तरंगों के प्रति

किस अनंत का नीला अंचल हिला-हिलाकर
आती हो तुम सजी मंडलाकार?
एक रागिनी में अपना स्वर मिला-मिलाकर
गाती हो ये कैसे गीत उदार?
सोह रहा है हरा क्षीण कटि में, अंबर शैवाल,
गाती आप, आप देती सुकुमार करों से ताल।
चंचल चरण बढ़ाती हो,
किससे मिलने जाती हो?
तैर तिमिर-तल भुज-मृणाल से सलिल काटती,
आपस में ही करती हो परिहास,
हो मरोरती गला शिला का कभी डाँटती,
कभी दिखाती जगती-तल को त्रास,
गंध-मंद गति कभी पवन का मौन-भंग उच्छवास
छाया-शीतल तट-तल में आ तकती कभी उदास,
क्यों तुम भाव बदलती हो-
हँसती हो, कर मलती हो?
बाँहें अगणित बढ़ी जा रहीं हृदय खोलकर
किसके आलिंगन का है यह साज?
भाषा में तुम पिरो रही हो शब्द तोलकर,
किसका यह अभिनंदन होगा आज?
किसके स्वर में आज मिला दोगी वर्षा का गान,
आज तुम्हारा किस विशाल वक्ष:स्थल में
आज जहाँ छिप जाओगी,
फिर न हाय तुम गाओगी!
बहती जातीं साथ तुम्हारे स्मृतियाँ कि
दग्ध चिता के कितने हाहाकार!
नश्वरता की-थीं सजीव जो-कृतियाँ
अबलाओं की कितनी करुण पुकार!
मिलन-मुखर तट की रागिनियों का नित
शंकाकुल कोमल मुख पर व्याकुलता
उस असीम में ले जाओ,
मुझे न कुछ तुम दे जाओ!
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