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उड़ीसा

उड़ीसा उड़ीसा भारत के इक्कीस राज्यों से एक राज्य है और देश के पूर्वी तट पर, अथवा बंगाल की खाड़ी के पश्चिमी तट पर 170 50’ उ.अं. से 220 34 उ.अ. तथा 81027’ दे.से 270 29’ पू.दे. के मध्य स्थित है। 1,55,842 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अर्थात्‌ भारत की कुल 4.7भूमि पर विस्तीर्ण यह राज्य क्षेत्रफल में भारत का नवाँ बृहत्तम राज्य है। किंतु जनसंख्या (1971 : 2,19,44,615), जो भारत की कुल जनसंख्या का 4.01 प्रतिशत है, की दृष्टि से इसका स्थान भारतीय राज्यों में ग्यारहवाँ और जनसंख्या के प्रति कि.मी. घनत्व (1971 में 141) की दृष्टि से तेरहवाँ है। कर्क रेखा (230 30’ उ.अ.) से पूर्णतया दक्षिण विस्तृत होने के कारण राज्य का संपूर्ण क्षेत्र उष्णकटिबंध में पड़ता है। पहले इसकी राजधानी कटक थी लेकिन अब भुवनेश्वर हो गई है। भुवनेश्वर पूर्णतया नवनिर्मित सुनियोजित नगर है और प्रमुखतया प्रशासनिक कार्यकुशलता की दृष्टि से विकसित किया गया है। राज्य की भाषा उड़िया है।

भौगोलिक दृष्टि से उड़ीसा को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं उत्तरी पठार, पूर्वी घाट, मध्य क्षेत्र तथा तटीय मैदानी प्रदेश। प्रत्येक की अपनी अपनी विशेषताएँ हैं।

उत्तरी प्रदेश में मयूरभंज, क्योंझर, सुंदरगढ़ तथा ढेनकानाल (केवल उसका पाललाहरा तहसील) जिले पड़ते हैं। यह एक ऊँचा नीचा प्रदेश है, साधारणत: इसकी ढाल उत्तर से दक्षिण की ओर है। यह ऊँची नीची पहाड़ियों से कई छोटे छोटे टुकड़ों में विभक्त है, जहाँ छोटी छोटी सैंकड़ों धाराएँ नदियों तक बहती हैं। मैदान से एकाएक खड़ी पहाड़ियों का पाया जाना साधारण बात है। इस प्रदेश की सबसे ऊँची चोटी (मनकादंचा 3,639 फुट) सुंदरगढ़ जिले के बोनाई तहसील में है। ये पहाड़ियाँ मध्य भारत की पर्वतश्रृंखलाओं के बढ़े हुए भाग हैं। इनकी ढालू भूमि घने, उष्णकटिबंधीय जंगलों से ढकी हुई है। इन पहाड़ियों की तलहटी में बड़े बड़े मैदान हैं जहाँ धान से लेकर मोटे अन्न तक की कृषि होती है।

पूर्वी घाट भी उच्च पठारी प्रदेश है, जहाँ उड़ीसा की सबसे ऊँची चोटियाँ स्थित हैं। यहाँ पठार पर्याप्त बड़े क्षेत्र मे फैला हुआ है, जो पहाड़ियों तक जंगलों से घिरा हुआ है। देवमाली पहाड़ी, जिसकी दो जुड़वाँ चोटियाँ (5,486 फुट) उड़ीसा की सबसे ऊँची चोटियाँ हैं, कोरापुट नगर से स्पष्ट देखी जा सकती है। पूर्वी घाट की ढाल घने जंगलों से आच्छादित है। इस प्रदेश में कोरापुट, कालाहंडी, गंजाम तथा फुलबानी जिले तथा महानदी के दाहिने तट की ओर का क्षेत्र आता है।

मध्यदेश उत्तरी पठार तथा पूर्वी घाट के बीच में पड़ता है जिसमें बोलाँगीर, संबलपुर तथा ढेनकानाल जिले पड़ते हैं। इस प्रदेश में भी छोटी छोटी पहाड़ियाँ इधर-उधर छिटकी हुई हैं, परंतु राज्य के कुछ सबसे उपजाऊ क्षेत्र भी इसी प्रदेश में पड़ते हैं, जैसे बरगढ़ मैदान। इस प्रदेश में बहनेवाली मुख्य नादियाँ महानदी तथा उसकी सहायक हैं। ग्रामों के आस पास ताड़ के कुंजों का पाया जाना यहाँ की विशेषता है।

तटीय मैदान सामुद्रिक जलवायु का क्षेत्र है, जो पश्चिम बंगाल तथा मद्रास राज्य के बीच स्थित है। इसे प्रदेश का अधिकांश भाग उड़ीसा की नदियों द्वारा बिछाई गई दोमट मिट्टी से बना डेल्टा की तरह का मैदान है। यह क्षेत्र राज्य का सबसे उपजाऊ एवं घनी आबादी का क्षेत्र है, जिसमंे आम, नारियल तथा ताड़ के घने कुंज और धान के विस्तृत खेत मिलते हैं। इन खेतों में नदियों तथा नहरों द्वारा सिंचाई का पूरा प्रबंध है। तट के समीप की भूपट्टी दलदली है तथा तट के किनारे किनारे बालू के टीले अथवा ढूहै अच्छी तरह देख जा सकते हैं। डेल्टा के मध्य का भाग, प्राय : 3,000 वर्ग मील का क्षेत्र, प्रति वर्ष बाढ़ का शिकार होता रहता है।

नदियाँ- राज्य की मुख्य नदियाँ महानदी तथा ब्राह्माणी हैं, जो उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पूर्व प्राय: एक दूसरे के समांतर बहती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कई छोटी-छोटी नदियाँ हैं, जिनमें सालंदी, बूराबलांग तथा स्वर्णरेखा राज्य के उत्तरी भाग में बहती हैं और ऋषिकुल्या, वंशधारा, नागवल्ली, इंद्रावती, कोलाब तथा मचकुंद दक्षिण में गंजाम तथा कोरापुट जिलों में बहती हैं। महानदी सबसे बड़ी नदी है, जिसकी लंबाई 533 मील है। इसका आधा भाग मध्य प्रदेश में पड़ता है। इस नदी की द्रोणी का क्षेत्रफल 51,000 वर्ग मील है तथा वर्षाकाल के मध्य में पानी का बहाव 1,60,000 घन फुट प्रति सेंकड रहता है। कुछ स्थलों पर इस नदी का पाट एक मील से भी बड़ा हो जाता है। वह बंगाल की खाड़ी में कई शाखाएँ बनाती हुई फाल्सपाइंट पर गिरती है। उड़ीसा की तीन प्रमुख नदियों के एक साथ मिल जाने के कारण डेल्टा प्रदेश में शाखाओं तथा धाराओं का एक जाल सा बिछा हुआ है।

भूविज्ञान- वैज्ञानिक दृष्टि से उड़ीसा राज्य के बारे में बहुत कम जानकारी है। प्राक्‌ पुरातन युग में उड़ीसा का वह भाग जहाँ आज पूर्वी घाट प्रदेश हैं, नीचा तथा समतल मैदान था और वहाँ महानदी तथा ब्राह्मणी नदियाँ पूर्व की ओर बहती थी। संपूर्ण प्रदेश चौरस अथवा कुछ ऊँचा नीचा था जिसमें यत्रतत्र पहाड़ियाँ खड़ी थी। दूसरे चरण में गोंडवानाश्परतों का जमाव हुआ जो छोटा नागपुर से क्योंझर, फूलबानी से दक्षिण गंजाम तथा कोरापुट से अंत में मद्रास तक, एक पेटी के उठने का कारण बनीं। इस उठे प्रदेश के पूर्व में असमतल क्षेत्र है, जिसके बीच बीच में पहाड़ियाँ हैं। यह क्षेत्र तट से कुछ मील हटकर तट के समांतर है। इस क्षेत्र ने भी कई बार थोड़ा थोड़ा उठकर अपनी यह ऊँचाई प्राप्त की है। तटीय प्रदेश का विकास भी केवल नदियों द्वारा डेल्टा बनाने की क्रिया से ही नहीं, बल्कि स्वत: ऊपर उठने के कारण भी हुआ है। चिल्का झील के आस पास कुछ सीप, घोंघे इत्यादि के अवशेष पाए गए हैं, जिससे इसके कभी ऊँचे रहने का प्रमाण मिलता है।

मिट्टी- उड़ीसा की मिट्टी के विभिन्न प्रकारों की पूरी छानबीन नहीं की गई है। उत्तरी पठारी क्षेत्र में लाल मिट्टी पाई जाती है। इस क्षेत्र कणाश्म (ग्रैनाइट) का बाहुल्य है, जिससे मिट्टी में बालू का अंश अधिक रहता है, तथा चिकनी मिट्टी (क्ले) केवल इतनी ही है जो जल को कुछ रोक सके। पूर्वी घाट के क्षेत्र की मिट्टी अधिकतर लेटराइट है। लौहआक्साइड का अधिक प्रति शत होना मिट्टी का मुख्य लक्षण है। लेटराइट मिट्टी का जमाव केवल कुछ इंच नीचे तक ही सीमित है, परंतु कहीं कहीं कई फुट तक भी है, विशेषकर उच्च स्थानों पर। मध्य पठार की मिट्टी कई प्रकार की है, जैसे कुछ तो चट्टानों के समीप ही उन्हीं से निर्मित तथा दूसरी जो पर्याप्त दूरी से हवा एवं पानी द्वारा लाई गई हैं। काली, रूईवाली मिट्टी गंजाम जिले के उत्तर-पूर्वी भाग में और महानदी के दोनों किनारों पर पाई जाती है। गर्मी में इसमें दरारें पड़ जाती हैं तथा वर्षाकाल में यह चिपचिपी हो जाती है। यह लाल मिट्टी से अधिक उर्वरा है। मध्य क्षेत्र के अन्य भागों में कई प्रकार की मिट्टयाँ पाई जाती हैं। तटीय प्रदेश की मिट्टी दोमट स्वभाव की है।

जलवायु- उड़ीसा में उष्णप्रदेशीय समुद्री जलवायु है। मोटे तौर पर उड़ीसा में तीन ऋतुएँ कहीं जा सकती हैं, शरद, ग्रीष्म तथा वर्षा ऋतु। शरद् ऋतु नवंबर से फरवरी मास तक रहती है, ग्रीष्म ऋतु मार्च से प्रारंभ होती है और वर्षा के प्रारंभ अर्थात्‌ जून मास में शेष होती है। वर्षा ऋतु अक्टूबर मास तक रहती है। वर्षा उत्तरी जिलों में प्राय: 60 इंच होती है, जबकि दक्षिणी जिलों में केवल 50 इंच तक। सन्‌ 1956 ई. में कुछ स्थानों पर 100 इंच तक वर्षा हुई थी।

(1) जनसंख्या तथा ग्राम एवं नगर प्रतिरूप- 1901-1971 की अवधि में उड़ीसा की जनसंख्या दुगुनी से अधिक अर्थात्‌ 1,03,02,917 से बढ़कर 2,19,44,615 हो गई है। 1921 के बाद वृद्धि तीव्रतर गति से हुई और 1961-71 में सर्वाधिक (44 लाख से अधिक, 25.05)बढ़ी। पहाड़ी और पठारी भाग अधिक होने के कारण प्रति वर्ग कि.मी. घनत्व (1971 में 141) भारत के राष्ट्रीय औसत घनत्व (जम्मू कश्मीर छोड़कर) से भी कम है। उड़ीसा की जनसंख्या संरचना में 1961-1971 की शताब्दी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन स्त्री पुरुषों की संख्या के अनुपात में हुआ है--यहाँ, 1901 में प्रति हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या 1037, 1911 में 1056 और 1921 में 1086 हो गई थी, पुन: क्रमश: घटते घटते 1931 में 1067, 1941 में 1053, 1951 में 1022 और 1961 में 1001 हुई और 1971 में घटकर केवल 988 हो गई, यद्यपि भारत (930) की अपेक्षा अभी भी यह अनुपात काफी अधिक है। भारत (29.46) की अपेक्षा यहाँ अभी साक्षरता भी कम (1971 में 26.18) है। यहाँ के अधिकांश निवासी हिंदू (96.25) हैं और केवल 3,78,888 (1.73) ईसाई, 3,26,507 (1.47) मुसलमान और लगभग सवालाख अन्य धर्मावलंबी हैं। यद्यपि अब भी अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण है तथापि 1971 तक कुल 78 नगर हो गए थे। ग्रामीण आबादी 46,466 (1971) गाँवों में वितरित हैं जिसमें अधिकांश (36,151) गाँवों की आबादी 500 से भी कम है। कटक (1971 में 2,05,759 बृहत्तर), राउरकेला (1,72,502), बेरहामपुर (1,17,662), भुवनेश्वर (1,05,491)और संबलपुर (1,05,085) एक लाख से अधिक जनसंख्यवाले नगर हैं। राज्य में कुल 68,51,000 लोग कार्यरत हैं। यहाँ प्रधानत: उड़िया भाषा (84) है और तेलुगू (23) बँगला (1.5) तथा जनजातीय भाषाएँ भी बोली जाती हैं। यहाँ 15.1 अनुसूचित जातियाँ तथा 23.1 अनुसूचित जनजातियाँ हैं।

जिले कुल क्षेत्रफल कुल जनसंख्या जिला केंद्र
(वर्ग कि.मी.मे) (1971)


1. बालासोर 6,394 18,30,504 बालासोर
2. बौघ-खोंडमल 11,070 6,21,675 फुलबानी
3. बोलाँगीर 8,903 12,63,657 बोलाँगीर
4. कटक 11,211 38,27,678 कटक
5. ढेनकानाल 10,826 12,63,914 ढेनकानाल
6. गंजाम 12,527 22,93,808 छत्रपुर
7. कालाहाँडी 11,835 11,63,869 भवानीपटना
8. क्योंझर 8,240 9,55,514 क्योंझर
9. कोरापुट 27,020 20,43,281 कोरापुट
10. मयूरभंज 10,412 14,34,200 बारीपुट
11. पुरी 10,159 23,40,859 पुरी
12. संबलपुर 17,570 18,44,898 संबलपुर
13. सुंदरगढ़ 9,675 10,30,758 सुंदरगढ़

सिंचाई एवं ऊर्जा उत्पादन- कृषि एवं औद्योगिक विकास के लिए इधर कई छोटी बड़ी बहूद्देश्यी योजनाएँ चालू की गई हैं। हीराकुंड, ऋषिकुल्या, सालंदी, डेल्टा सिंचाई योजना एवं अन्य लगभग एक दर्जन मध्यम स्तरीय सिचांई योजनाओं से पर्याप्त लाभ हुआ है। पिछड़े तथा सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए इनके अतिरिक्त 87 बड़ी एवं मध्यस्तरीय योजनाओं की क्षेत्रों के लिए इनके अतिरिक्त ऊर्जा उत्पादन योजनाओं में बालीमेला बाँध (आंध्रप्रदेश) के साथ), मचकुंद तथा तालचेर (250 मेगावाट) की तापीय विद्युत्‌ योजनाएँ प्रमुख हैं। 1971 में जल तथ तापीय विद्युत्‌शक्ति की उत्पादन क्षमता 560 मेगावाट थी जो 1974 तक 920 मेगावाट हो जाएगी।

कृषि- उड़ीसा में 80 से अधिक निवासी कृषि पर आश्रित हैं, यद्यपि राज्य की केवल 36.4 भूमि पर ही कृषि होती है। कुल 67.44 लाख हैक्टेयर फसली भूमि में से केवल 13.90 लाख हैक्टेयर भूमि सिंचित है। चावल प्रमुख उपज है और भारत का कुल लगभग दशांश चावल यहाँ पैदा होता है। अन्य प्रमुख फसलों में दालें, तेलहन, जूट, मेस्ता, गन्ना, नारियल और हल्दी आदि हैं। 1970-71 में कुल 51.04 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था जिसमें 85 चावल (43.41लाख टन) था। कृषि में अभी भी खाद्यान्नों के उत्पादन का ही महत्व है और व्यापारिक फसलों का महत्व कम है। यहाँ बंजर भूमि तथा पड़ती क्षेत्रों को अभिसिंचित करके कृषिभूमि में 40 तक की वृद्धि संभव है।

वनसंपदा- राज्य में 67 लाख हैक्टेयर अर्थात्‌ कुल 43 से अधिक भूमि वनाच्छादित है। राज्य को वनों से प्रचुर आय होती है लेकिन अभी भी वनसरंक्षण तथा वनसंपदा के औद्योगिक उपयोग के क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुआ है। यहाँ व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण काष्ठों में साखू, सागवान, असन, कुरुम, पिसाल, रोजवुड, गंबर तथा हल्दू मुख्य हैं और राज्य के बाहर इनका निर्यात होता है। अन्य संपदा में बाँस प्रमुख है जिसके आधार पर कागज के तीन बड़े कारखाने रायगादा, चौदवार तथा ब्रजराजनगर केंद्रों में स्थापित हुए हैं और एक अखबारी कागज का कारखाना भी स्थापित करने की योजना है। जलावन की लकड़ी के अतिरिक्त बीड़ी बनाने के लिए केंदू की पत्तियाँ, लाख, तसर, साखू के बीज तथा पागलपन की बीमारी दूर करने वाली सर्पगंधा जैसी एवं अन्य औषधोपयोगी वस्तुएँ वनों से प्राप्त होती हैं।

खनिज पदार्थ- उड़ीसा भारत के खनिजसंपन्न राज्यों में गिना जाता है। यहाँ 20 प्रकार के खनिजों के भंडार हैं किंतु अभी तक केवल एक दर्जन खनिजों का ही व्यापारिक स्तर पर उत्पादन हो रहा है। खनिजोत्पादन से प्राय: कुल भारतीय आय का केवल 5 उड़ीसा में उत्पन्न खनिजों से प्राप्त होता है। लौह, मैंगनीज़, कोयला, चूना-पत्थर और डोलोमाइट, ब्रोमाइट, फायर क्ले, चीनी मिट्टी, बाक्साइट, ग्रेफाइट, निकेल, गैलिना आदि प्रमुख खनिज हैं। उड़ीसा का लौहभंडार विस्तृत और उच्च किस्म (60 से अधिक धातुसंपन्नता) का है। कुल भंडार (उड़ीसा 182 क.टन) की दृष्टि से क्योंझर (100 क.टन; संभावित राशि 813 क.टन), सुंदरगढ़ (बोनाई, 66 क.टन), मयूरभंज (6 क.टन), संबलपुर (5.1 क.टन), कटक (3.15क.टन,)और कोराकुट (1क.टन) प्रमुख क्षेत्र हैं। राउरकेला तथा जमशेदपुर लौह इस्पात कारखानों को लौह अयस्क की अधिकांश आपूर्ति उड़ीसा की खदानों से ही होती है। उड़ीसा में मैंगनीज़ का कुल 1 करोड़ टन से अधिक भंडार (भारत के कुल का 8)है। अधिकांश भंडार क्योंझर, सुंदरगढ़, कोरापुट (कुटिंगी), बोलाँगीर और कालाहाँडी जिलों में प्राप्य हैं। यहाँ भारत का पंचमांश मैंगनीज़ उत्पादित होता है। कोयले का 81 क.टन भंडार है जिसमें 71 क.टन हिंगेर-रामपुर कोयला क्षेत्र (संबलपुर) में प्राप्य हैं किंतु निम्न किस्म का है। शेष तालचेर (ढेनकानाल), अथगढ़ (कटक) और पुरी तथा खोंडमल घाटियों में प्राप्य है। 1971 में 40 लाख टन उत्पादन का लक्ष्य था। तापीय विद्युत्‌ उत्पादन में भी कोयले का उपयोग हो रहा है। सुंदरगढ़, संबलपुर और दंडकारण्य क्षेत्र में चूना पत्थर, क्योंझर (रायकोला, आनंदपुर), गंगपुर में डोलोमाइट, कटक और ढेनकानाल में क्रोमाइट (राज्य में भारत का कुल 35 भंडार) पाए जाते हैं। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम एवं राजकीय निगम दोनों मिलकर खनिज विकास में रत हैं। बोनाइ खदानों के समीप किरूबुरू लौह योजना द्वारा 20 लाख टन वार्षिक लौह अयस्क का निर्यात होगा।

उद्योग धंधे- 1947 तक यह राज्य खनिजसंपन्न होने पर भी उद्योगधंधों में काफी पिछड़ा था। अब तक उसके बाद 35 बृहत्‌ औद्योगिक कारखाने स्थापित किए गए हैं जिनमें अधिकांश खनिज पर आधारित हैं। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में पश्चिमी जर्मन सरकार की सहायता से स्थापित हिंदुस्तान स्टील लिमिटेड का सरकारी कारखाना इनमें सबसे बड़ा है। उड़ीसा औद्योगिक विकास निगम द्वारा बारबिल में कच्चा लोहा (पिग आयरन) और जाजपुर रोड में एक फेर्रोक्रोम का कारखाना स्थापित किया गया है। जोदा तथा जयपुर में एक एक फेर्रोमैंगनीज़, थेरूबिल्ली में फेर्रोसिलिकन, हीराकुंड में ऐल्युमिनियम स्मेल्टर, बेलपहाड़, राजगंगपुर में एक एक सीमेंट कारखाना स्थापित है। इनके अतिरिक्त कागज बनाने के तीन, उर्वरक (राउरकेला), कास्टिक सोडा एवं नमक (गंजाम), औद्योगिक विस्फोटक पदार्थ (राउरकेला), चीनी (रायगादा, अस्का), शीशा (बारंग), ऐल्युमीनियम केबुल, कंडक्टर तथा छड़ (हीराकुंड), प्रभारी मशीन टूल (कंसबहाल), रेफ्रजरेटर (चौदवार), वस्त्र उद्योग (चौदवार, झरसूगुदा और बरगढ़)तथा री-रोलिंग कारखाना (हीराकुंड) आदि भी स्थापित हैं। इस प्रकार राउरकेला, हीराकुंड तथा चौदवार (कटक के पास) उड़ीसा के बड़े औद्योगिक केंद्र हो गए हैं। 1970 तक राज्य में कारखानों (1948 फैक्टरी ऐक्ट द्वारा परिभाषित) में 75 हजार (1961 में केवल 38 हजार) लोग कार्य करते थे जिनकी प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 2,899 रु. (1961 में केवल 1,180 रु.) थी।

यातायात- उड़ीसा के यातायात के साधन अभी समुचित रूप से विकसित नहीं हो पाए हैं। यहाँ दक्षिण पूर्वी रेल मार्गो की 1,837 किलोमीटर (637 कि.मी. की दुहरी लाइनें) लंबाई हैं जिससे कलकत्ता और मद्रास संबद्ध हो गए हैं। स्वतंत्रता के बाद संबलपुर से टिटलागढ़ तक तथा उत्तर में कुछ नवविकसित खनिज एवं औद्योगिक केंद्रों को खड़गपुर-बंबई मुख्य रेलमार्ग से संबद्ध किया गया है। दंडकारण्य रेलमार्ग से दक्षिणी क्षेत्र में तीव्र विकास हो रहा है। पारादीप बंदरगाह को जोड़नेवाली तथा लक्षन्नाथ से इच्छापुरम्‌ तक के 449 कि. मी. मार्ग को दुहरी करने की चालू योजनाओं से भी प्रचुर लाभ होगा। 1951 में सभी प्रकार की सड़कों की लंबाई 3,200 कि.मी. थी जो 1961 तक 31,296 कि.मी तथा 1969-70 तक 66,682 कि.मी. (12,993 कि.मी. पक्की, 53,689कि.मी. कच्ची) हो गई है। 1970 मार्च तक राज्य सरकार प्रमुख मार्गो पर अपनी बसें चलाती है। नदियों तथा समुद्रतटीय मार्गो द्वारा भी अब परिवहन में प्रचुर प्रगति हुई है। भुवनेश्वर और राउरकेला कलकत्ते से हवाई मार्गो द्वारा संबद्ध हैं।

दंडकारण्य योजना- इस राज्य के कुछ भाग दंडकारण्य योजना में भी लिए गए हैं।

भारत के स्वंतत्र होने के पश्चात्‌ उड़ीसा की निम्नलिखित देशी रियासतें उड़ीसा राज्य में मिला दी गई--पटना, अलीगढ़ अथमालिक, खाइपाड़ा, रेराखोल, रनपुर, बमरा, दसपाला, हिंडोल, नरसिंगपुर, नयागढ़, नीलगिरि, पालाहारा, सोनपुर, तालचेर तथा टिगिरिया।

संक्षिप्त इतिहास- उड़ीसा अथवा उत्कल का वर्णन उत्तरकालीन वैदिक साहित्य से ही चला आता है। अशोक के आक्रमण का जिस वीरता और बलिदान से कलिंगवासियों ने सामना किया था वह उनके शालीन इतिहास का गौरव है। उसी से प्रेरित होकर अशोक ने हिंसा त्याग बौद्धधर्म में दीक्षा ली थी। प्राचीन कलिंगवासी ईसा से पहले जैन राजा खारवेल के समय से ही सामुद्रिक यात्राओं तथा सुदूर देशों में उपनिवेश और विशाल साम्राज्य स्थापित करने में अग्रगण्य रहे हैं। वैभव के उन दिनों में तेजस्वी कलिंग राजाओं का विशाल साम्राज्य दक्षिण में गोदावरी से लेकर उत्तर में गंगा तक फैला हुआ था। परंतु सन्‌ 1568 से 1751 ई. तक उड़ीसा मुसलमानों के अधीन मुगल साम्राज्य का एक अंग था। सन्‌ 1803 ई. में अंग्रेजों द्वारा विजित होने के पूर्व आधी शताब्दी तक यह भूभाग मराठा शक्तियों से प्रभावित होता रहा।

अंग्रेजों द्वारा विजित होने के बाद यह बंगाल प्रांत में मिला लिया गया। परंतु उड़ीसावासी, जिन्हें अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता तथा भाषा पर गर्व रहा है, सदैव ही राजनीतिक कारणों के लिए उड़ीसा प्रदेश को विभाजित करने का विरोध करते रहे हैं। इसके फलस्वरूप सन्‌ 1936 ई. के प्रथम अप्रैल को उड़ीसा को एक पृथक्‌ प्रांत का रूप दिया गया।

उड़ीसा अपने छह जिलों (कटक, बालासोर, पुरी, संबलपुर, गंजाम तथा कोरापुट) के साथ सन्‌ 1936 ई. से पृथक्‌ प्रांत रहा है, परंतु सन्‌ 1948 ई.में 23 और 1949 ई. में एक देशी रियासत को इसमें मिलाकर नए उड़ीसा राज्य का संघटन किया गया। छोटी-छोटी देशी रियासतों को तो पड़ोस के जिलों में मिला दिया गया और जो बड़ी रियासतें थी उन्हें नए जिलों का रूप दे दिया गया। इस प्रकार अब उड़ीसा राज्य तेरह जिलों में विभाजित है।

मंदिर- उड़ीसा के मंदिरों की ख्याति बड़ी है और इस ख्याति का कारण उसकी विशिष्ट तथा विशद निर्माण कला है। ये मंदिर अधिकतर 12वीं -13वीं सदी के बने हुए हैं और भारतीय वास्तुकला में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनकी मूर्तियों का उभार, तक्षण की सजीवता तथा भंग और छंद्स भारतीय कला में अपना सानी नहीं रखते। उड़ीसा के मंदिरों का एक महान्‌ केंद्र भुवनेश्वर है। भुवनेश्वर का विख्यात शिवमंदिर नवीं शताब्दी के मध्य में उत्कल के तेजस्वी राजा लतातेंदु केशरी के राज्यकाल में ही निर्मित किया गया तथा पुरी के विख्यात जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में अनंगभीमदेव द्वितीय ने कराया था। 13वीं शताब्दी के मध्य महाराज नरसिंहदेव द्वारा कोणार्क के विश्वविख्यात सूर्यमंदिर का निर्माण हुआ। उस समय सागर का जल इस विशाल एवं भव्य मंदिर का पादप्रक्षलन करता था, परंतु आज सागर उस स्थान को छोड़कर कुछ पूर्व हट गया है। फिर भी इस मंदिर की शिल्पकला आज भी दर्शकों को बरबस के मंदिरों के साधारणत: निम्नलिखित भाग होते हैं--विमान, जगमोहन, नाटयमंडप, गर्भगृह तथा भोगमंडप। इनके विमानों की ऊँचाई गगनचुंबी होती है। भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर अपने सौंदर्य के लिए स्तुत्य है। इनके अतिरिक्त पुरी का जगन्नाथ मंदिर और कनारक का कोणार्क-सूर्यमंदिर बड़े प्रसिद्ध हैं। जगन्नाथपुरी का मंदिर तो कला की सूक्ष्म दृष्टि से उड़ीसा शैली का अवसान प्रमाणित करता है परंतु कनारक का मंदिर वास्तु का अपूर्व रत्न है। उसके अश्व, चक्र, ग्रह आदि अद्भुत वेग और सजीवता के परिचायक है। जगन्नाथ और कनारक के मंदिरों के बहिरंग पर सैकड़ों कामचित्र उभारे हुए हैं। इस दृष्टि से इनकी और खजुराहो के मंदिर की कलादृष्टि समान है। संभवत: इस प्रकार के अर्धनग्न चित्रों का कारण वज्रयान तथा तंत्रयान का प्रभाव है। वज्रयान का आरंभ उड़ीसा में ही श्रीपर्वत (महेंद्र पर्वत) पर हुआ था। उड़ीसा के मंदिरों के काल परिमाण के बाद इस प्रकार के नग्न चित्रों की चलन भारतीय वास्तु और मंदिरों से उठ गई। उड़ीसा के मंदिरों के विमान उत्तर भारत की शिल्पकला में प्रमाण बन गए और उत्तराखंड में बननेवाले बाद के मंदिरों की नगरशैली उनसे ही प्रसूत हुई।

अन्य स्रोतों से:




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संदर्भ:
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