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उल्का

उल्का वह पिंड है जो रात में आकाश में गिरते तारे के समान जान पड़ता है। इसका अधिकांश हमारे वायुमंडल में ही भस्म हो जाता है। जो अंश बचकर भूमि तक पहुँचता है उसे उल्कापिंड कहते हैं (द्र. उल्कापिंड)। प्राचीन चीनी साहित्य में उल्काओं की चर्चा कई स्थानों पर है। ऋग्वेद (4.4.27; 10,68,4), अर्थर्ववेद (19, 9, 9), महाभारत आदि में भी उल्काओं की चर्चा हैं। यूरोप के प्राचीन साहित्य में भी कहीं-कहीं इनका उल्लेख मिलता है। पहले यूरोप के वैज्ञानिक समझते थे कि उल्काएँ वायुमंडल में से ही गिरती हैं, परंतु सन्‌ 1833 से माना जाने लगा कि वे पृथ्वी के बाहर से आती हैं। सन्‌ 1833 के 13 नवंबर को उल्काओं की एक झड़ी लग गई। यह झड़ी पूर्वी उत्तर अमरीका से रात भर देखी गई। अनुमान किया गया कि दो लाख से ऊपर उल्काएँ गिरीं। उनमें से अधिकांश बड़ी चमकीली थी, परंतु भूमि तक संभवत: कोई भी उल्का नहीं गिर पाई; सब वायुमंडल में ही भस्म हो गई। कई लोगों ने देखा कि सब उल्काएँ आकाश के एक बिंदु से चलती हुई जान पड़ रही थी। सभी उल्का झड़ियों और उल्का बौछारों में यह विशेषता देखी जाती है। आकाश के जिस बिंदु से उल्काएँ चलती जान पड़ती हैं उसको उल्कामूल (रेडिमंट) कहते हैं। जिस तारामंडल में किसी उल्का झड़ी या बौछार का मूल रहता है उसी के अनुसार उस उल्का झड़ी का नाम पड़ जाता है । उदाहरणत: सिंहवाली (लिओनिड्स), वीणावाली (लायरिड्स), इत्यादि।

समझा जाता है, किसी एक बौछार की उल्काएँ समांतर रेखाओं पर चलती हैं, परंतु पर्स्पेक्टिव के नियमों के अनुसार वे एक बिंदु सेउल्का मूल सेफैलती हुई जान पड़ती हैं।

सिंहवाली उल्का बौछारें कई बार देखी जा चुकी हैं, साधारणत: 33-33 वर्षों के अंतर पर और सदा अक्टूबर या नवंबर मास में। देवयानीवाली उल्काएँ (ऐंड्रोमीड्स) भी कई बार देखी गईं। उनके बारे में पता चला कि उनका प्रकाशमूल ठीक उसी मार्ग पर चलता था जिसपर बीला नामक धूमकेतू।

इनके अतिरिक्त उल्का बौछारों में वीणा, ययाति (पर्सियस) मृग (ओरायन) तथा मिथुन (जेमिनी) वाली उल्काएँ उल्लेखनीय हैं। वीणा की प्रमुख उल्काएँ 20 अप्रैल, 1803 और 21अप्रैल, 1922 को दिखाई पड़ी थी, परंतु उल्काओं की बहुलता रहने पर भी उनमें चमक की कमी थी। ययातिवाली उल्काओं का समय प्राय: जुलाई के अंत से अगस्त के आरंभ तक है और इन्हीं को लेकर सर्वप्रथम यह सिद्ध किया गया है कि उल्कामूल में भी अन्य आकाशीय पिंडों के समान दैनिक गति होती है। मृग और मिथुन की उल्काओं के समय क्रमानुसार अक्टूबर के अंतिम पक्ष और दिसंबर के प्रथम पक्ष हैं। 1926 ईसवीं में जियाकोबिनी ज़ीनर धूमकेतु से एक साधारण उल्का बौछार निकली और 1933 ईसवी में इस बौछार का अवलोकन शताब्दी का सबसे प्रमुख दृश्य था जो साढ़े पाँच घंटे तक दिखाई पड़ता रहा।

उल्कामूल की कक्षाएँ- अनेक उल्काएँ एकाकी जान पड़ती हैंवे किसी उल्का बौछार से संबद्ध नहीं जान पड़तीं। इसके अतिरिक्त बौछार या झड़ी के रूप में बार-बार लौटनेवाली उल्काएँ कुछ समय में मिट जाती हैं। देवयानीवाली उल्काएँ कई बार अच्छा प्रदर्शन करने के बाद मिट गई। जान पड़ता है, अंतरिक्ष में रोड़ों और कणों के समूह हैं जो निश्चित कक्षा में चलते रहते हैं और जब कभी पृथ्वी अपनी कक्षा में चलते-चलते उनके पास पहुँच जाती है तो उल्का झड़ी लग जाती है। परंतु रोड़ों का समूह बृहस्पति आदि बड़े ग्रहों के आकर्षण से विचलित हो जाता है; उनकी कक्षा बदल जाती है। तब उनसे और पृथ्वी से मुठभेड़ नहीं होती और उस उद्गम से उल्का झड़ी नहीं लगती। फिर, समूह के रोड़ों में परस्पर आकर्षण इतना कम रहता है कि प्रत्येक बार जब वे पृथ्वी या अन्य ग्रह के पास पड़ जाते हैं तो निकटवाले रोड़ों के अधिक खिंचने के कारण समूह कुछ फैल जाते हैं और अंत में वे बहुत तितर-बितर हो जाते हैं। अनुमान किया जाता है कि रोड़ों का समूह धूमकेतुओं के सिरों के भाग हैं। धूमकेतु के एक ही उल्कामूल से निकलनेवाली उल्का बौछारों को हम उल्काश्रेणी कह सकते हैं।

उल्काओं की संख्या- अवलोकन से पता चला है कि रात के पहले भाग की अपेक्षा पिछले भाग में अधिक उल्काएँ दिखाई देती हैं। इसका कारण यह है कि सांयकाल से अर्ध रात्रि तक पृथ्वी के घूर्णन और वार्षिक गति के संयोजन से उत्पन्न द्रष्टा का वेग कम रहता है और अर्ध रात्रि के बाद अधिक। वर्ष के जनवरी-जुलाई के महीनों की अपेक्षा जुलाई-जनवरी में अधिक उल्काएँ दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि उधर उल्काएँ है ही अधिक। औसतन प्रति दिन लगभग दो करोड़ उल्काएँ इस वायुमंडल में गिरती हैं और उनमें से कम से कम एक इस पृथ्वी पर पहुँचती है। साधारणत: उल्का की ऊँचाई लगभग 50-60 मील होती है। उल्का की चमक के विषय प्रचलित मत यह है कि इसके गैस पदार्थ वायुमंडल में स्थित बिजली से, या गति के कारण उत्पन्न घर्षणताप से अथवा अन्य कारणवश अयनित (आयोनाइज़) होकर भासित (फ़ॉस्फ़ोरेंट) होते हैं। साधारण उल्का के द्रव्यमान और आयतन की मापें इतनी कम निकलती हैं कि उनपर विश्वास नहीं होता। चमक में प्रथम और द्वितीय श्रेणी की उल्काओं के व्यास दशमलव एक इंच से कम और द्रव्यमान कुछ मिलिग्राम मात्र पाए गए है; किंतु इनका आकार चारों ओर की तप्त गैस और उद्भासन (इरैडियेशन) के कारण बड़ा दिखाई पड़ता है। इनके वर्णक्रम (स्पेक्ट्रा) के फोटोग्राफों के अध्ययन से पता चला है कि इनमें हाइड्रोजन, कैलसियम, मैगनीसियम, कार्बन, हीलियम और सोडियम भी पाए जाते हैं। उल्का के गिरते समय कुछ क्षणों तक एक पतली धीमी ध्वनि सुनाई पड़ने का भी प्रमाण मिला है। उल्का की मध्यमान गति लगभग 14 मील प्रति सेंकड होती है। आजकल रेडियो तरंगों की प्रतिध्वनि को आकाशवाणी यंत्र पर सुनकर दिन में भी उल्काओं का अध्ययन किया जाने लगा है।

अग्निगोले- अग्निगोले (फायरबाल) भी उल्का ही हैं, परंतु वे साधारण उल्का से बहुत बड़े होते हैं। फिर, बड़े होने के कारण ही वे अधिक समय तक भस्म होने से बचे रहते हैं और पृथ्वी तक पहुँच जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, जब वे द्रष्टा के वेग की दिशा में चलते हुए पीछे से आते हैं और आगे निकल जाते हैं तो उनका सापेक्ष वेग हमारे वायुमंडल में कम रहता है और इस प्रकार वे सैंकड़ों मील तक दिखाई पड़ते रहते हैं। जब वे पृथ्वीपृष्ठ से थोड़ी ही ऊँचाई पर से जाते हैं तब उनकी हरहराहट अथवा गर्जन बहुधा बड़ा प्रचंड होता है। थोड़ी ऊँचाई से जाने के कारण ऐसा भी संभव है कि वे क्षितिज के एक ओर से आएँ और दूसरी ओर निकल जाएँ। अग्निगोले चंद्रमा के समान बड़े दिखाई पड़ सकते हैं। कुछ अग्निगोले देखते-देखते फूट पड़ते हैं। अग्निगोलों का एक असाधारण समूह 9 फरवरी, 1913 को कनाडा में दिखाई पड़ा था। वहाँ से लगभग 6,000 मील चलने के बाद भी अन्यत्र दिखाई पड़ा और फिर आगे निकल गया। गोले चार पाँच समूहों में बँटे थे ओर प्रत्येक समूह में 50-60 अग्निगोले थे। कनाडा में उनकी ऊँचाई लगभग 35 मील थी। लोगों को बादल के गड़गड़ाने के समान शब्द सुनाई पड़ा; कुछ मकान भी थर्रा गए।

उल्काओं का प्रेक्षण- उल्काओं के प्रेक्षण में अव्यवसायी ज्योतिषी बड़ी सहायता कर सकते हैंऔर करते भी हैं; कारण यह है कि इन प्रेक्षणों में बहुत समय लगता है और लाखों प्रेक्षणों के बाद कोई उपयोगी बात ज्ञात होती है। ऐसे ज्योतिषियों की कई परिषदें यूरोप आदि देशों में बनी हैं। उल्का दिखाई पड़ने पर सावधानी से तारों के सापेक्ष उसका आदि और अंत लिख लिया जाता है या नकशे में अंकित किया जाता है; चमक, रंग, समय आदि भी लिख लिया जाता है। अब फोटोग्राफी से भी काम लिया जा रहा है। तेज प्लेट या फिल्म पर लगभग एफ/4 के लेंज़ से प्रकाशदर्शन (एक्सपोज़र) देने से काम चल जाता है। एक ही प्लेट पर कई घंटों का प्रकाशदर्शन दिया जाता है। दो दूरस्थ स्थानों से एक ही समय पर प्रेक्षण करने से उल्काओं की दूरी भी जानी जा सकती है।

उल्काओं की उत्पत्ति- उल्काओं की उत्पत्ति का प्रश्न सबसे जटिल है। पूर्वोक्त वार्ता से यह निश्चित है कि कुछ उल्काओं की उत्पत्ति धूमकेतुओं से हुई हैं। किंतु यह भी पता चला है कि अग्निगोलों की उत्पत्ति इस सौर मंडल से बाहर की है। इन सभी उल्काओं के पदार्थ भी सौरमंडल के अन्य सदस्यों के पदार्थ के समान ही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार यह सौरमंडल बना है उसी प्रकार ये उल्काएँ भी इस या अन्य किसी सौरमंडल में बनी या बनती रहती हैं तथा एक मंडल से दूसरे मंडल में भी वे संभवत: जा सकती हैं।

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