उष्ट्रगण (टाइलोपोडा) पागुर करनेवाले खुरवाले पशु हैं। इनके पैरों में उँगलियाँ केवल दो होती हैं और पैर के नीचे गद्दी होती है। इनके सींग नहीं होते, गर्दन लबी और पूँछ छोटी होती है।
उष्ट्र मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार में मेरुदंड के ऊपर एक अथवा दो कूबड़ होते हैं। ये एशिया तथा अफ्रीका में वास करते हैं। दूसरे प्रकार में कूबड़ नहीं होता। ये दक्षिण अमरीका में पाए जाते हैं।
कूबड़वाले उष्ट्र मरुस्थल के निवासी होते हैं। इनमें एक कूबड़वाले उष्ट्र प्रधानत: अरब देश में और पूरब की ओर इराक, ईरान तथा बलूचिस्तान होते हुए भारत में राजस्थान तक मिलते हैं तथा अफ्रीका में सहारा मरुस्थल और उसके उत्तर के प्रांतों में फैले हुए हैं। ये कहीं भी जंगली नहीं होते। इनके शरीर पर छोटे और भूरे रंग के बाल होते हैं। पूँछ के किनारे बाल अधिक लंबे होते हैं। इनके कान छोटे होते हैं और ग्रीवा तीन फुट लंबी होती है। कंधा भूमि से सात फुट ऊँचा होता है। अंग्रेजी भाषा में इनको 'ड्रॉमिडरी' कहते हैं।
दो कूबड़वाले उष्ट्र विशेषत मध्य एशिया के मरुस्थल में वास करते हैं। ये पश्चिम में कालासागर से पूरब की ओर सारे चीन में और हिमालय पर्वतश्रेणी के उत्तर से साइबीरिया की सीमा तक विस्तृत हैं। कुछ यूरोप में स्पेन देश की पहाड़ी अंचलों में पाए जाते हैं। ये शीतप्रधान देश के निवासी हैं और पहाड़ियों तथा चट्टानों पर रहते हैं। इस कारण इनके पैर की गद्दी अधिक कठोर होती है। इनके बाल भूरे रंग के तथा बड़े-बड़े होते हैं। अंग्रेजी भाषा में इनको 'बैक्ट्रियन कैमेल' कहते हैं। ये भी जंगली नहीं होते, पर चीन के पश्चिमी प्रांतों में कुछ ऐसे जंगली उष्ट्र पाए जाते हैं। भूतत्वविदों का सिद्धांत है कि इन जंगली उष्ट्रों के शरीर की गठन यूरोप की एक प्राचीन तथा लुप्त उष्ट्र जाति से बहुत मिलती-जुलती है।
एशियाई उष्ट्रों के कर्णछिद्र लंबे बालों से ढके रहते हैं और पलकों के बाल भी लंबे होते हैं। मुहँ लंबा होता है और दोनों ओष्ठ कुछ लटके रहते हैं। वक्षस्थल के नीचे उभड़ा हुआ कठोर चर्म होता है जिसपर शरीर का भार रखकर उष्ट्र भूतल पर बैठता है। ऐसा ही कठोर चर्म चारों पैरों के घुटनों पर भी होता है। इनके प्रत्येक पैर के नीचे केवल एक गद्दी होती है।
मरुनिवासी होने के कारण एशियाई उष्ट्रों में कुछ विशेषताएँ होती हैं, जिनके कारण वे ऐसे स्थान में वास करने योग्य होते हैं। इनके आमाशय के दो विशेष कोष्ठों में छोटी छोटी थैलियाँ बनी होती हैं जिनका मुहँ मांसपेशियों द्वारा इच्छानुसार प्रसारित या संकुचित किया जा सकता है। उष्ट्र इन थैलियों में प्राय: दो गैलन अतिरिक्त जल भर होता है और चार-पाँच दिनों तक उसी पर जीवन धारण करने में समर्थ होता है। पलकों के बड़े बाल उड़ती हुई बालू को आँखों में जाने से रोकते हैं। कान के बड़े बाल भी इसी प्रकार उपयोगी होते हैं। नासिका का छिद्र बहुत पतला और अर्धचंद्राकार होता है। आँधी के समय उष्ट्र भूमि पर बैठ जाता है, मस्तक नीचा करके भूमि पर फैला देता है तथा नासिका के छिद्रों को बंद कर लेता है। इनकी ध्राणशक्ति प्रबल होती है। बहुत दूर से ही इनको जलाशय का पता लग जाता है। मस्तक की ऊँचाई के कारण इनकी दृष्टि बहुत दूर तक पहुँचती है, और भूमि के ताप का प्रभाव मस्तक पर कम पड़ता है। सहस्रों वर्ष से मरुस्थल में रहने के कारण इनके शरीर का विधान इतना भिन्न हो गया है कि बंगाल जैसे अधिक जलसिक्त स्थान की जलवायु को ये सहन नहीं कर सकते। वहाँ शीघ्र ही इनकी मृत्यु हो जाती है।
मरुनिवासी मनुष्य उष्ट्रों की इन विशेषताओं से पूरा लाभ उठाते हैं। वहाँ कोई भी परिवहनसाधन सुलभ नहीं होता, केवल उष्ट्र ही मनुष्य की सहायता कर पाता है। उष्ट्रों की शक्ति और सहनशीलता सराहनीय है। ये 15-20 मन का भार सरलतापूर्वक वहन करते हैं। दृष्टांत से ज्ञात है कि एक उष्ट्र एक यात्री तथा छह मन से अधिक भार लेकर टयुनिसिया से 600 मील दूर ट्रिपोली तक केवल चार दिन में पहुँचा। सात-आठ दिनों तक ये 135-150 मील प्रति दिन की गति से चलते हैं। इसी कारण अंग्रेजों ने इन्हें 'मरुस्थल के जहाज' का नाम दिया है। ऐतिहासिक युग से आधुनिक युग तक मरुप्रदेशों में वाणिज्य तथा व्यवसाय उष्ट्रों के ही द्वारा होता है। इन प्रदेशों में बैल की भाँति उष्ट्र हल में जोते जाते और कुएँ से जल खींचते हैं। इनके मल को सुखाकर ईधंन के रूप में व्यवहृत किया जाता है। इसके अतिरिक्त उष्ट्र मनुष्य के भोजन के भी साधन हैं। इनका दूध मनुष्य सेवन करते हैं और इनके मांस का भी रुचिपूर्वक आहार करते हैं। इनके बाल से चित्रकारों की तूलिका, कंबल तथा ऊनी कपड़े बनते हैं। अस्थियों से अनेक प्रकार की आवश्यक वस्तुएँ बनती हैं।
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बाहरी कड़ियाँ:
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