उत्तराखण्ड में बढ़ता भूकम्प का खतरा


भू-वैज्ञानिकों ने आने वाले समय में उत्तराखण्ड में बड़े भूकम्पों की आशंका जताई है

भूकम्पजोन पाँच में चिन्हित हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड को सबसे अधिक संवेदनशील बताया गया है। प्रसिद्ध भूगर्भवेता प्रो. वल्दिया, जिन्होंने हिमालय क्षेत्र में इस दिशा में कई महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं, का मानना है कि समूचा मध्य हिमालय भूकम्प की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील है। यहाँ कभी भी बड़ा भूकम्प आ सकता है और अब कोई भी बड़ा भूकम्प यहाँ अत्यन्त विनाशकारी होगा, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कुछ दशकों में जिस अनियोजित तरीके से यहाँ विकास कार्य किये गए हैं, बहुमंजिला मकानों का जिस प्रकार से यहाँ निर्माण हो रहा है, उनके टूटने पर तबाही का अन्दाजा लगाया जा सकता है।

उत्तराखण्ड सेंट्रल सेस्मिक गैप क्षेत्र में पड़ता है, जो भूकम्प के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील है। इंडियन प्लेट के युरेशियन प्लेट के नीचे दबने की वजह से हिमालयी क्षेत्र में दबाव बढ़ने के कारण बड़े भूकम्पों का खतरा लगातार बना हुआ है। दबाव जैसे-जैसे तेज होगा, उससे जो ऊर्जा निकलेगी, उसे ज़मीन सहन नहीं कर पाएगी, वहाँ भूकम्प का केन्द्र बन जाएगा।

उत्तराखण्ड के पाँच जिले रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ व बागेश्वर भूकम्प की दूष्टि से अत्यन्त संवेदनशील जोन 5 में आते हैं, शेष अधिकांश जिले जोन 4 में आते हैं। एक तरह से पूरे उत्तराखण्ड का भूगोल बदल सकता है, लेकिन संयोग से पिछले दो सौ वर्षों में कभी रिक्टर स्केल में 8 या इसके पास का तेज भूकम्प यहाँ रिकार्ड नहीं किया गया। उत्तराखण्ड का जोन 5 व जोन 4 का भाग मेन सेंट्रल थ्रस्ट से जुड़ा है। इससे पूरे इलाके में पृथ्वी के भीतर काफी हलचल होती रहती है। माना जा रहा है कि दो सौ वर्षों से बड़ा भूकम्प न आने के कारण इस थ्रस्ट के आसपास काफी ऊर्जा एकत्र हो रही है। भू-वैज्ञानिक प्रो. वल्दिया का कहना है कि उत्तराखण्ड की धरती में इतना तनाव पैदा हो गया है कि उसे पूरी तरह निकालने की क्षमता केवल महाभूकम्पों में ही है। मध्यवर्ती हिमालय में महाभूकम्प 1505 में आया था। इसके बाद 1803 में गढ़वाल में आया था। भूकम्प की उथल-पुथल केवल उसी दरार तक सीमित नहीं रहती, जहाँ से वह पैदा हुआ हो। हिमालय की धरती अगणित भ्रंशों से विदीर्ण है, कटी-फटी है। यदि कभी महाभूकम्प आता है तो सभी दरारें सक्रिय हो जाएँगी।

जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च बंगलौर से जुड़े सीपी राजेंद्रन के अनुसार भू-क्षरण की दर से पता चला है कि उत्तराखण्ड में जमीनी परत के विच्छेदन के कारण वहाँ बड़ा भूकम्प आने की सम्भावना बनती है। 700 किमी. लम्बी केन्द्रीय भूकम्पीय खाई हिमालय के अगले हिस्से का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जो पिछले 200 से 500 सालों के दौरान आये एक बड़े भूकम्प में विच्छेदित नहीं हुआ है। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि इस लम्बी भूकम्पीय निष्क्रियता के कारण बड़ी आबादी वाले इस क्षेत्र में बड़ा भूकम्प आने का पूरा खतरा बना हुआ है।

भूकम्प ऐसी प्राकृतिक घटना है, जिसकी न तो कोई अचूक भविष्यवाणी की जा सकती है, न इसे रोका जा सकता है। भूकम्प वास्तव में धरती के भीतर होने वाली प्राकृतिक हलचल है, जो लगातार होती रहती है। भूकम्प और हमारी धरती का चोली दामन का साथ है। चूँकि रहना इसी धरती पर है, इसलिये जरूरी है कि भूकम्प से डरे बिना ऐसे कदम उठाए जाएँ, जिससे जान-माल की न्यूनतम क्षति हो।

विशेषज्ञों के अनुसार दिल्ली के कुल मकानों में दो प्रतिशत ही बड़े भूकम्प सहने की स्थिति में हैं। जापान में अक्सर रिक्टर स्केल पर 7 व इससे तीव्रता के भूकम्प आते रहते हैं। उनके लिये वह सामान्य प्राकृतिक घटना है। जापान के आपदा प्रबन्धन के पीछे उनकी समृद्ध और श्रेष्ठ टेक्नोलॉजी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, जो उसने अपने कौशल से हासिल की है। पिछले 50 वर्षों में जापान ने भूकम्पों का सामना करने के लिये अद्भुत काम किये हैं, वहाँ स्कूल के बच्चों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। इमारतों का निर्माण ऐसे किया जाता है कि भूकम्पों के दौरान गगनचुम्बी इमारते लहरा जाएँ, पर गिरे नहीं।

जापान ने आपदा को ध्यान में रखते हुए अपनी पूर्व चेतावनी प्रणाली अत्यन्त मजबूत किया है।

उत्तराखण्ड में भवनों के निर्माण में जिस प्रकार से तय मानकों एवं नियमों की अनदेखी की जा रही है। वह बड़े संकट की ओर इशारा करता है। राज्य में आपदा प्रबन्धन और सुरक्षा के मजबूत तंत्र की आवश्यकता है। जिला स्तर पर स्थित आपदा केन्द्रों को सक्षम व संसाधनों से लैस किये जाने की आवश्यकता है। ग्राम स्तर तक बचाव व राहत दल की इकाई व उसके लिये आवश्यक उपकरण मौजूद होने चाहिए। सेवल डिस्क की सीएमओ इंफ्रांस्ट्रक्चर की सीडीओ लाजिस्टिक डेस्क की डीएफओ रिसोर्स डेस्क की मुख्य कोषाधिकारी तथा कम्युनिकेशन की जिम्मेदारी जिला सूचना अधिकारी को दी गई है, परन्तु अभी तक यह कागज़ों तक सीमित है। भूकम्प जैसी घटना के लिये सबसे जरूरी है कि सावधान रहना, सतर्क रहना व जागरूक रहना, इससे नुकसान को काफी कम किया जा सकता है।

उत्तराखण्ड में दर्ज किये गए प्रमुख भूकम्प

 

समय

तीव्रता

क्षेत्र

1 सितम्बर 1803

7.7

गढ़वाल-कुमाऊं

26 मई 1816

6.5

द. गंगोत्री

16 जून 1902

6.0

द.पू. पौड़ी

14 अक्टूबर 1911

6.5

भारत-चीन सीमा

28 अक्टूबर 1916

6.5

च्नगाबांग चोटी के पास

8 अक्टूबर 1927

6.1

भारत-चीन सीमा

4 जून 1945

6.5

नंदादेवी चोटी के पास

27 जून 1966

6.2

अथ्पाली धुंग

29 जुलाई 1980

6.5

पिथौरागढ़

19 अक्टूबर 1991

6.4

चमोली

 

(लेखक केन्द्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर में भूगोल के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

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