उत्तराखण्ड में मत्स्य पालन - जनसहभागी प्रयास


भारतीय गणराज्य के अन्य प्रदेशों की भाँति नवनिर्मित उत्तराखण्ड राज्य में भी ग्रामीण आर्थिकी का मुख्य घटक कृषि व्यवसाय है जिस पर यहाँ की 70 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या निर्भर करती है। राज्य में वन क्षेत्र अधिक होने के कारण यहाँ पर प्रति इकाई कृषि भूमि पर जनसंख्या दबाव काफी अधिक है। इसके अतिरिक्त विशिष्ट प्राकृतिक सौन्दर्यता एवं संसाधनों से भरपूर इस हिमालयी राज्य में 90 प्रतिशत से अधिक भू-भाग पर्वतीय है।

भारतीय गणराज्य के अन्य प्रदेशों की भाँति नवनिर्मित उत्तराखण्ड राज्य में भी ग्रामीण आर्थिकी का मुख्य घटक कृषि व्यवसाय है जिस पर यहाँ की 70 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या निर्भर करती है। राज्य में वन क्षेत्र अधिक होने के कारण यहाँ पर प्रति इकाई कृषि भूमि पर जनसंख्या दबाव काफी अधिक है। इसके अतिरिक्त विशिष्ट प्राकृतिक सौन्दर्यता एवं संसाधनों से भरपूर इस हिमालयी राज्य में 90 प्रतिशत से अधिक भू-भाग पर्वतीय है। राज्य की कुछ विषम परिस्थितियों जैसे ऊँची-नीची तलरूपता (समुद्र तल से 300 से 7300 मीटर तक ऊँचाई), भूकम्प के प्रति अधिक संवेदनशीलता, अधिक वर्षा (लगभग औसतन 1800 मिली मीटर वार्षिक), अस्थिर दुर्गम ढाल की अधिकता वाले नालों में तीव्र जलप्रवाह, मृदा क्षरण, छोटी व बिखरी कृषि जोतों के कारण यहाँ पर कृषि फसलों का उचित उत्पादन नहीं हो पाता है जिसके कारण यहाँ के कृषकों को अपनी आजीविका जुटाने हेतु काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। उक्त परिस्थिति में यहाँ के कृषकों हेतु अति आवश्यक हो जाता है कि वो कृषि फसलों के उत्पादन के अतिरिक्त कृषि आधारित अन्य व्यवसाय भी अपनाएँ।

कृषि आधारित अतिरिक्त व्यवसायों में मत्स्य पालन इस राज्य में कृषकों की आजीविका सुरक्षा हेतु एक सशक्त उपाय साबित हो सकता है क्योंकि यहाँ की विशिष्ट जलवायु, तलरूपता व प्राकृतिक संसाधन का संयोजन मत्स्य पालन को बढ़ावा देने हेतु पूर्णतया अनुकूल है। राज्य में गंगा, यमुना तथा उनकी कई सहायक नदियों व नालों में पर्याप्त जल होने के साथ-साथ बारहमासी जलस्रोतों, झरनों व वर्षा का प्रचुर मात्रा में होना आदि कई ऐसे प्रबल कारक हैं जिससे यहाँ पर मत्स्य पालन व्यवसाय प्रचुर मात्रा में विकसित किया जा सकता है। इसी सम्भावना को मूर्तरूप देने व इसके परीक्षण हेतु एक प्रयास केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान, देहरादून ने जनसहभागी आधार पर किया।

जनसहभागी विश्लेषण


राज्य के देहरादून जनपद स्थित विकासखण्ड विकासनगर के ग्राम देवथला, गोडरिया, पसौली व डूंगाखेत गाँवों में 34 कृषक परिवारों को अंगीकृत करते हुए केन्द्रीय मृदा व जल संरक्षण अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान, देहरादून द्वारा ग्रामीण विकास मंत्रालय भारत सरकार के भू-संसाधन विभाग वित्त पोषण से उत्तर-पश्चिम हिमालय के वर्षा आधारित क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा हेतु भूमि व जल प्रबन्धन तकनीकों का जनसहभागी प्रसार व मूल्यांकन नामक परियोजना वर्ष, 2007 में शुरू की गई। भूमि, जल एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों का ग्रामीण विकास एवं आजीविका सुरक्षा हेतु जनसहभागिता संवर्धन व उपयोग किया जाना उक्त परियोजना का मुख्य उद्देश्य था। परियोजना का नियोजन सहभागी ग्रामीण समीक्षा (पी.आर.ए.) विधि को प्रयोग करते हुए पूर्णतया जनसहभागिता आधारित किया गया। इसमें जनसहभागी जल संसाधन प्रबन्धन, मृदा संरक्षण, कम्पोस्ट निर्माण, बागवानी विकास, चारा, घास रोपण, फसल उत्पादन, वनीकरण, गदेरा नियंत्रण, पशुधन विकास, मत्स्य पालन, ग्रामीण आय व रोजगार सृजन आदि से सम्बन्धित तकनीकों के प्रचार-प्रसार हेतु किये जाने वाले कार्यों का निर्धारण किया गया।

सहभागी ग्रामीण समीक्षा के दौरान जब स्थानीय लोगों ने मछली पालन व उपभोग के प्रति थोड़ी रुचि दिखाई तो परियोजना की वैज्ञानिक टीम ने क्षेत्र के मत्स्य पालन की सम्भावनाओं के मद्देनजर मत्स्य व्यवसाय केन्द्रित समूह चर्चाएँ कर विभिन्न बिन्दुओं पर 150 कृषकों से आँकड़ें एकत्र कर उनका विश्लेषण किया जिसके बिन्दुवार निम्नलिखित परिणाम प्राप्त हुए हैं :

1. परियोजना के अन्तर्गत अंगीकृत गाँवों के 90 प्रतिशत से अधिक परिवारों में मछली मांस को खाने वाले मांसाहारी सदस्य पाये गए जिनमें महिला, पुरुष व बच्चे सभी शामिल थे।

2. मछली मांस पसन्द करने वाले परिवारों में 72 प्रतिशत से अधिक कृषक परिवारों के सदस्य सप्ताह में कम-से-कम एक दिन समूह में मछली मारने हेतु गाँव के बगल में स्थित गौना। नाले अथवा क्षेत्र में उपस्थित अन्य नदियों व नालों में सामान्यत: जाते पाये गए। साथ ही मछली मारने की उक्त परम्परा सदियों पुरानी बताई गई।

3. मछली मारने जाने वाले लोगों में मध्य आयु वर्ग का प्रतिशत सर्वाधिक 46 प्रतिशत पाया गया जबकि युवा वर्ग के लोगों का 24 प्रतिशत पाया गया। मध्य आयु वर्ग के समस्त लोगों को सभी स्थानीय नालों में उपस्थित मछली प्रजातियों तथा उनके पलायन करने के व्यवहार की पूरी जानकारी भी पाई गई।

4. विभिन्न मांसों के प्रति जब लोगों की प्राथमिकताओं का विश्लेषण किया गया तो पाया गया कि वह सभी प्रकार के मांस खाते हैं परन्तु प्राथमिकता के आधार पर बकरा, मछली, मुर्गा व शूकर मांस खाने वालों का प्रतिशत क्रमश: 33, 31, 26 व 10 पाया गया।

5. मछली मारने जाने वाले लोगों को मछली मारने हेतु अपनाए जाने वाले परम्परागत पदार्थों जैसे टिमरू पेड़ की पत्तियाँ व बीज तथा छिलक आदि का पाउडर बनाकर, ब्लीचिंग पाउडर आदि को प्रयोग किये जाने का भी पर्याप्त अनुभव पाया गया।

प्रयास
उपरोक्त निष्कर्ष के आधार पर स्थानीय कृषकों के बीच मछली के प्रति रुचि का पूर्ण आकलन किये जाने के उपरान्त परियोजना की वैज्ञानिक टीम द्वारा कृषकों को प्रेरित किया गया कि वो अपने खेतों में ही तालाब बनाकर आसानी से मत्स्य पालन कर सकते हैं। प्रेरणा हेतु कृषकों को यह भी स्पष्ट किया गया कि विभिन्न आकार के तालाब से वे प्रतिवर्ष कितना मत्स्य उत्पादन कर कितनी आमदनी प्राप्त कर सकते हैं। इसके उपरान्त प्रथम वर्ष 2007 में मछली पालन हेतु एक कृषक श्री जसमत, ग्राम-देवथला को चुना गया जिसको जन सहभागी आधार पर तालाब निर्मित करने हुतु परियोजना मद से छ: हजार रुपए की धनराशि तालाब निर्माण में लगने वाली सामग्री खरीदने हेतु दी गई।

चुने गए कृषक ने तालाब निर्माण में लगने वाली सामग्री को स्वयं खरीदा। चुने गए कृषक ने स्वयं तालाब की खुदाई व स्थानीय उपलब्ध सामग्री बजरी, पत्थर आदि एकत्र करते हुए 50 घनमीटर क्षमता वाले के तालाब का निर्माण किया।

तालाब में आई कुल लागत 15000 रुपए में कृषक की सहभागिता 9000 रुपए (67 प्रतिशत) रही। तालाब निर्माण के उपरान्त कृषक को परियोजना मद से मछली प्रजाति बीज उपलब्ध कराया गया तथा साथ ही उसको किस-किस प्रकार क्या-क्या आहार देना है, के विषय में भी विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई। धीरे-धीरे कृषक के तालाब में मछलियाँ बड़ी होनी शुरू हो गई तथा प्रथम वर्ष में कृषक के यहाँ 45 कि. ग्रा. प्रति 100 वर्ग मीटर के हिसाब से मछली का उत्पादन हुआ। इस सफलता को अपनी आँखों से देखकर गाँव के अन्य कृषकगण काफी प्रभावित हुए तथा वर्ष 2008 में जहाँ एक अन्य कृषक के यहाँ परियोजना मद से केवल एक तालाब बनवाया गया वही अन्य कृषकों ने तकनीकी जानकारी प्राप्त कर अपने स्वयं के प्रयासों से तीन तालाब निर्मित कर परियोजना टीम की देख-रेख में मत्स्य पालन शुरू कर दिया। तदोपरान्त वर्ष 2009 में भी परियोजना मद से एक अन्य कृषक के यहाँ एक और तालाब निर्मित कराकर मत्स्य पालन शुरू कराया गया है। वर्तमान में अंगीकृत गाँव में कुल 9 कृषकों ने मत्स्य पालन का कार्य शुरू दिया है। कुल मिलाकर जहाँ परियोजना मद से 3 तालाब निर्मित कराए गए वहीं कृषकों ने अपने स्वयं के प्रयासों से 6 तालाब निर्मित किये। साथ ही वर्ष 2007 में तालाब क्षेत्र जहाँ 50 घन मीटर था वहीं वर्तमान में 520 घन मीटर हो गया है। जिसमें लगभग 10 गुणा की वृद्धि दर्ज की गई।

परियोजना से पूर्व जहाँ कृषकों का खुद का मत्स्य उत्पादन शून्य था वहीं वर्तमान में उनके यहाँ 200 किग्रा प्रति वर्ष से भी अधिक मछली उत्पादन हो रहा है। जिससे लगभग 16,000 रुपए की वार्षिक आय प्राप्त हो रही।

उक्त सफलताओं के देखते हुए क्षेत्र के सभी कृषकगण अति उत्साहित हैं एवं वर्ष 2010 में लगभग 7 नए तालाब कृषकों द्वारा निर्मित कर लिये गए। इसके अतिरिक्त कृषकगण कम लागत से तालाब निर्माण करने की तकनीकों के विषय में भी जिज्ञासु हुए हैं। कुल मिलाकर अंगीकृत गाँवों में मत्स्य पालन व्यवसाय का विसरण शुरू हो गया है।

केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान, 218 कौलागढ़ रोड, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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