उत्तराखंड का संक्षिप्त भूविज्ञान परिचय : आर्थिक विकास एवं चुनौतियाँ (A short introduction on Geology of Uttarakhand : Economic Development and Challenges)

4 Oct 2016
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उत्तराखंड के पहाड़ी भूभागों में पानी भूमिगत बहुत कम मात्रा में हो पाता है। क्योंकि बहाव की तीव्रता अधिक है। अत: बरसात का पानी भूमिगत शैल परतों में नहीं समा पाता। इसके लिये जल अवरोध गढ्ढे बनाये जा रहे हैं। लेकिन वे ठीक से बन रहे हैं या नहीं जिससे जल शैल परतों में समाये, यह देखना अति आवश्यक है। जल ग्रहण क्षेत्र को हरा भरा रखना अति आवश्यक है। वृक्ष और झाड़ियाँ पानी के बहाव को कम कर अपनी जड़ों के द्वारा जल को भूमिगत करने में सहायक होती हैं।

उत्तराखंड एक नवनिर्मित राज्य है जिसका जन्म 9 नवम्बर 2000 में हुआ। मुख्यत: यह उत्तर प्रदेश का उत्तर पश्चिमी पर्वतीय भाग था। जिसे विकास की दृष्टि से पिछड़ा भाग होने के कारण इसे पृथक राज्य का दर्जा दे दिया गया और जिसका नाम उत्तराखंड पड़ा। इसका क्षेत्रफल 53483 वर्ग किमी. है। यहाँ की जनसंख्या लगभग एक करोड़ है। एक पहाड़ी राज्य होने के कारण यह प्रदेश विषम भौगोलिक परिस्थितियों का प्रदेश माना जाता है, और मैदानी भाग की तुलना में अनेक रूप से भिन्न है जहाँ उत्तर प्रदेश का मुख्य भाग गंगा-यमुना का विशाल समतल मैदान है, वहीं उत्तराखंड का मुख्य भाग विशालकाय दुर्गम पर्वत मालाओं से बना है। उत्तर प्रदेश गंगा-यमुना दो बड़ी नदियों द्वारा लाई गई दोमट मिट्टी से बना है जबकि उत्तराखंड की पर्वत मालायें विभिन्न प्रकार की चट्टानों से बनी हैं।

भूगर्भ में मुख्यत: विभिन्न प्रकार के शैल हैं। पृथ्वी में पाये जाने वाले पदार्थों का आकार, उनमें पाये जाने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के खनिज पदार्थों का अध्ययन, रासायनिक विश्लेषण आदि भूविज्ञान के अंतर्गत आता है। भूविज्ञान के दूसरे भाग में इन पदार्थों की बनावट एवं भूभौतिकी है। इसके अलावा स्तरक्रमविज्ञान और उसका इतिहास, जीवाश्मिकीय अध्ययन, भौतिक भूविज्ञान-अर्थात भू-आकृतिक अध्ययन, पृथ्वी की उत्पत्ति आदि का अध्ययन भी भूविज्ञान विषय में शामिल हैं। उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त भूवैज्ञानिक अध्ययन में मौसम विज्ञान, समुद्र भूविज्ञान, खगोलीय भूविज्ञान भी आते हैं। भूविज्ञान की परिधि अभी भी बढ़ती जा रही है।

इस विषय के अध्ययन में पृथ्वी में होने वाली हलचल (जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूचाल, सुनामी, सूखा एवं अन्य मौसम के विनाशकारी दृश्य), मानसून एवं कृषि, रेन वाटर हारवेस्टिंग (यानि कृत्रिम झील, पौंड्स, जलाशय, जल अवरोधक गड्ढ़ों का निर्माण छतों के पानी को इकट्ठा करके उसका समवर्धन/ उसका उपयोग) को भी इस विषय में शामिल किया गया है। भूमिगत जल की खोज में तो आजकल सराहनीय कदम उठाये जा रहे हैं, जिसमें सुदूर संवेदन और समकाल/समक्षेत्री विधियाँ भी अपनाई जा रही है। नवीन प्रपेक्ष में, प्रदूषण चाहे औद्योगिक निस्तारण से हो चाहे चट्टानों में निहित रसायनों जैसे आर्सेनिक, आयरन, क्रोमियम, लेड, मरकरी, कैल्शियम से या शहरों की गंदगी से संबंधित सभी प्रदूषण आज भूगर्भ की परिधि के विषय बन चुके हैं। अत: भूविज्ञान के इस विस्तृत क्षेत्र को समझते हुए इस विषय का परिचय प्रदेश के योजनाकारों को ही नहीं अपितु जन-जन को भी होना लाभकारी हो सकता है।

उत्तराखण्ड का भूविज्ञान


उत्तराखण्ड में विविध प्रकार का शैल समूह और उनकी उत्पत्ति का इतिहास आद्यमहाकल्प (आर्कियन लगभग 4000 मिलियन वर्ष) से चतुर्थ महाकल्प (क्वाटरनी 0-1.8 मिलियन वर्ष) पुराना है। उत्तराखंड राज्य हिमालय का भाग होने के कारण यहाँ के विभिन्न शैल समूह दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर क्रमश: वाह्य हिमालय, लघु हिमालय, वृहद हिमालय और टेथिस हिमालय में फैले हुए हैं। जिसका विवरण इस लेख में दिया जा रहा है।

वाह्य हिमालय


वाह्य हिमालय में मुख्यत: शिवालिक महासंघ के शैल समूह शामिल हैं। शिवालिक महासंघ की शैल उत्तराखंड के सबसे निचले (दक्षिणी) भाग में गंगा यमुना के मैदान से सटे हुए हैं, शिवालिक पहाड़ियाँ इन्हीं ‘‘शिवालिक महासंघ’’ के शैल समूह से निर्मित हैं और गंगा-यमुना के मैदानी भूमि के साथ भ्रंश से जुड़ी हैं। शिवालिक महासंघ को तीन भागों में बाँटा गया है- निम्न, मध्य और ऊपरी शिवालिक संघ। सर्व प्रथम निम्न शिवालिक संघ के शैल का निर्माण लगभग 15 लाख साल पहले मध्य मायोसीन में हुआ और उनका नाम कामलियाल और चिंजी रखा गया। तत्पश्चात मध्य शिवालिक को नागरी, धोक पठान एवं अंत में ऊपरी शिवालिक को टेट्रट, पिंजौर और बोल्डर वेड शैल समूह के नाम से जाना जाता है। शिवालिक शैल समूह का निर्माण 1.8 मिलियन वर्ष तक चलता रहा। पूरे शिवालिक महाशैल संघ की बनावट भी अलग-अलग है। सबसे नीचे क्रमश: मृतिका और महीन बलुआ पत्थर का क्रम है। बीच का शैल समूह मध्यम कणों के बलुवा पत्थर (सैंड स्टोन) और ऊपरी भाग के शैल बड़े कणों के संगुटिका एवं गोलाश्म संस्तर से बने हैं। निम्न शिवालिक संघ के शैल समूह की अधिक से अधिक मोटाई 2000 मीटर, मध्य की मोटाई मोहंड में 1800 मीटर तक आंकी गई है एवं ऊपरी शिवालिक संघ की मोटाई भिन्न-भिन्न जगहों में अलग-अलग नापी गई है।

शिवालिक शैल समूह पूरे उत्तराखंड के दक्षिणी भाग में विद्यमान हैं। यही नहीं यह शैल समूह पूर्वोत्तर राज्यों तक भी फैला है। शिवालिक शैल समूह के उत्तर की ओर लघु हिमालय के शैल समूह से मिलने से पहले एक भ्रंश-रेखा जिसका नाम ‘‘मेन बाउंडरी थ्रस्ट (एम.बी.टी) है, से विभाजित है। भूवैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि इस भ्रंश रेखा की गहराई अत्यधिक है। यह भ्रंश रेखा लघु हिमालय में पूरब से पश्चिम तक विद्यमान है। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि इस भ्रंश रेखा पर भूपर्पटी संचलन लगातार चल रहा है। जहाँ-जहाँ यह भ्रंश रेखा पाई गई है उन स्थानों में भूपर्पटी संचालन से होने वाले खतरे की आशंका बनी रहती है। यह भ्रंश रेखा देहरादून में राजपुर के पास शहंशाही आश्रम में दिखाई देती है।

लघु हिमालय


लघु हिमालय के शैल समूह को दो भागों में बाँटा गया है। वाह्य लघु हिमालय और आंतरिक लघु हिमालय जो क्रमश: दक्षिण और उत्तरी भागों में स्थित है।

वाह्य लघु हिमालय


‘‘मैन बाउंडरी थ्रस्ट’’ के उत्तर में लघु हिमालय की वाह्य शैल वर्ग है, जिसमें मुख्य रूप से क्रोल संघ शैल समूह है। यह शैल समूह भी शिवालिक शैल समूह की भाँति पूरे उत्तराखंड के दक्षिण में विद्यमान हैं तथा देहरादून के पश्चिम से लेकर नैनीताल के पूर्वी भाग तक फैला है। क्रोल शैल संघ को चांदपुर, नागथाट, ब्लेनी, इंफ्राक्रोल, क्रोल एवं ताल शैल समूह में क्रमश: बांटा गया है। उपरोक्त सभी शैल समूहों की चर्चा करने से पता चलता है कि सबसे पहले क्रोल संघ में चांदपुर शैल समूह का निर्माण हुआ। इसमें मुख्यत: परतदार चट्टानें बनी जिनकी मोटाई बहुत अधिक आंकी गई है। इसमें मुख्यत: फिलाइट (शेल का कायान्तरित रूप) पाया जाता है जिसका रंग मुख्यतः काला व हल्का मटमैला हरा या कहीं-कहीं बैंगनी रंग का भी है। यह शैल परतें गहरे समुद्र में बनी हैं और कायांतरित होने के कारण माइलोनीकृत (बहुत कमजोर मुलायम, जीर्ण शीर्ण अवस्था) स्थिति में पहुँच गईं। यह माइलोनिकृत शैल उत्तराखंड के बहुत बड़े दक्षिण भूभाग में फैली हैं एवं इस भाग में अच्छे सीढ़ीनुमा खेत हैं जिन पर अच्छी खेती की जा रही है। चांदपुर शैल समूह के ऊपर नागथाट शैल समूह का निर्माण हुआ है।

यह शैल समूह मुख्यत: क्वार्ट्जाइट से बना है, जो एक बहुत ही मजबूत शैल है। यह बलुवा पत्थर का कायांतरित रूप है। यह माना जाता है कि इस बलुआ पत्थर का निर्माण नदियों द्वारा या फिर बहुत ही उथले समुद्र के किनारे के भाग में हुआ है। यह शैल भवन निर्माण या अन्य सिविल निर्माण में कारगर है क्योंकि इसमें अधिक मजबूत शैल होती है। यह शैल समूह उत्तराखंड के कई भागों में विद्यमान है। नैनीताल में भीमताल के पास यह शैल बहुत ज्यादा मात्रा में पायी जाती है। भीमताल में इसका नाम ‘‘भीमताल वोलकेनिक्स’’ है। नागथाट शैल समूह के ऊपर ब्लेनी शैल समूह है। ब्लेनी में मुख्यत: संगुटिका, ग्रेवाके, स्लेट, बलुवा पत्थर और मसूराकार चूना पत्थर विद्यमान है। यह शैल समूह भी मसूरी (धनोल्टी) लैंसडाऊन (सतपुली) और नैनीताल की पहाड़ियों और कई जगह में विद्यमान है।

ब्लेनी शैल समूह के बाद इन्फ्राक्रोल शैल समूह जमा हुआ। यह शैल समूह भी देहरादून से नैनीताल के बीच बाहरी लघुहिमालय के दक्षिणी भाग में कई जगहों में विद्यमान है। यह भूरी, खाकी, काली, बैंगनी, हरी रंग की शैल है। यह शैल तुलनात्मक रूप से मजबूत मानी जाती है। इसकी मोटाई भी कहीं-कहीं बहुत अधिक है। इन्फ्राक्रोल के बाद क्रोल शैल समूह बना। यह भी देहरादून से नैनीताल के बीच कई जगह विद्यमान है। क्रोल शैल समूह को करीब पाँच छोटी इकाइयों में बांटा गया है। सबसे पहले ‘ए’ इकाई है जिसमें अत्यंत विभंग चूना पत्थर मिलता है। यह हल्की हथौड़ी मारने पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर जाता है। ‘बी’ इकाई में हल्की लाल रंग की शैल मिलती हैं। ‘सी’ श्रेणी में उत्तम किस्म का चूना पत्थर मौजूद है। यह परतों में या फिर संस्थूल भूरे रंग का चूना पत्थर है। इसमें सल्फर (गंधक) की मात्रा भी अधिक है, देहरादून के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल सहस्त्रधारा में गंधक युक्त पानी का झरना इसी चूना पत्थर से आ रहा है। उत्तराखंड के दो प्रमुख पर्यटन महत्व के बड़े नगर मसूरी एवं नैनीताल मुख्यत: क्रोल ‘सी’ शैल पर ही विराजमान है। क्रोल शैल समूह के सबसे ऊपरी भाग में ‘डी’ और ‘ई’ श्रेणी की शैल हैं जो डोलोमाइट और मुख्यत: खाकी हरी शैल से बने हैं।

उत्तराखंड हिमालय का वह भाग है जहाँ की शैल परतें बहुत ज्यादा वलित है यहाँ की शैल समूह का वलित स्तर क्षेपण से बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। सबसे ज्यादा भाग में शैल, फिलाइट आदि कमजोर शैल का बाहुल्य है। दोनों शैल समूह कई भागों में अपक्षरण से प्रभावित है। पहाड़ की ढालों में वनस्पति अनेक कारणों से समाप्त हो गई हैं जिससे शैल के ऊपर की अपक्षय शैल समूह गुरुत्वाकर्षण के कारण स्वयं भी नीचे खिसकना शुरू कर देती है। बरसात का पानी ऐसे स्थानों में बहुत बड़े-बड़े भूस्खलनों का कारण बन जाता है।

क्रोल शैल समूह के बाद ताल शैल समूह जमा हुआ। ताल शैल समूह के निचले भाग में काली शैल तथा फोस्फोराइट मिलता है। देहरादून स्थित मालदेवता एवं मसूरी के पास दूरमाला नामक स्थानों में फास्फोराइट की खानें क्रोल-ताल के संगम पर ही विद्यमान हैं। इस काली शेल की काफी मोटी परत है जिसके ऊपर खाकी, हरी एवं बैंगनी रंग की शैल पाई जाती है तत्पश्चात ताल के ऊपरी भाग में क्वार्जाइट का भंडार है जिसकी मोटाई 70 से 500 मीटर या उससे अधिक है। यह शैल भी देहरादून से नैनीताल के बीच विद्यमान है।

इन सारे शैल समूहों का निर्माण काल कैम्ब्रियनपूर्व महाकल्प से कैम्ब्रियन माना गया है। भूवैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि इन शैल समूहों का निर्माण मुख्यत: समुद्र से हुआ होगा। हिमालय का यह भाग कैम्ब्रियन (540 मिलियन वर्ष) के बाद समुद्र से ऊपर उठ गया। इस कारण इस भाग में शैल निर्माण बंद हो गया था। इस भाग में पुन: समुद्री शैलों का निर्माण हुआ लेकिन बड़े लंबे अंतराल के बाद, इस भाग में पुन: आंतरिक हरकतें हुई जो बड़ी तीव्र थी। अत: यह भाग फिर से सिनोमानियन (99.6 मिलियन वर्ष) कल्प में समुद्र में बदल गया। यह समुद्र बहुत गहरा नहीं था। इस समुद्र की शैलों में निहित जीवाश्म अवशेषों से पता चला कि इस समुद्र की गहराई अधिकतम 70 से 80 मीटर तक रही होगी। इस समुद्र में दो प्रकार के शैल समूह मिलते हैं जिनका नाम क्रमश: ककारा और सुबाथू शैल समूह है।

ककारा शैल समूह मूल रूप से चूना पत्थर एवं गहरे काले रंग की शैल का बना है। इसकी मोटाई भी लगभग 60-70 मीटर है। चूना पत्थर स्लेटी रंग का है। गढ़वाल क्षेत्र के मसूरी, नीलकंठ, सिंगताली, ताल वैली, दुगड्डा एवं अन्य स्थानों में मिलता है। इस शैल समूह में उत्तराखंड में सिर्फ चूना पत्थर पाया जाता है। जबकि हिमाचल और जम्मू कश्मीर में इस शैल समूह में काली शेल एवं कम मात्रा में चूना पत्थर मिलता है। ककारा के बाद सुबाथू शैल समूह है। यह शैल समूह खाकी-हरी, कमजोर शैल के अलावा चूना पत्थर, से निर्मित है। सुबाथू शैल समूह में जीवाश्म अवशेषों का भंडार है। यहाँ पाये जाने वाले जीवाश्म में द्विकपटी कवच और गेस्ट्रोपोड के अलावा सूक्ष्म जीवाश्म जैसे नुमुलाईटिस, असिलिना, (फोरामिनीफेरा), ऑस्ट्रोकोडा, एवं ब्रायोजोआ मुख्य हैं। सुबाथू शैल समूह की कुल मोटाई 90-410 मीटर आंकी गई है। लेकिन उत्तराखंड में इसकी कुल मोटाई लगभग 300 मीटर (दुगड्डा), 250 मीटर (ताल घाटी), 260 मी. (नीलकंठ) एवं लगभग 10 मी. (सिंगथाली) में आंकी गई है, दुगड्डा के अलावा इसकी मोटाई सभी स्थानों में कम है क्योंकि इस शैल समूह को गढ़वाल क्षेप ने ऊपरी सिरे में विच्छेदन किया हुआ है।

लघु आंतरिक हिमालय


लघु आंतरिक हिमालय में मुख्य रूप से चकराता, रौतगरा, देववन, मंढ़ाली, वेरीनाग शैल समूह एवं गढ़वाल/अलमोड़ा और रामगढ़ संघ के शैल (वाल्दिया, 1980) मुख्य है।

चकराता शैल समूह : यह शैल समूह लघू हिमालय के वाह्य और आंतरिक दोनों भागों में विद्यमान है। मुख्यत: इसमें लाल, हरी, भूरी रंग का ग्रेवैक और पांशु प्रस्तर हैं। यह सबसे पुराना अवसादीय शैल समूह है। इस शैल समूह के निचले तल का पता नहीं चल पाता। इसके ऊपरी भाग में मंधाली शैल समूह का संगम चकराता क्षेत्र में क्षेपयुक्त है।

रौतगारा शैल समूह : यह समूह चकराता शैल समूह के बाद जमा हुआ। इसमें मुख्य रूप से सफेद, लाल रंग का क्वार्टजाइट जमा हुआ। इस समूह में दूसरा स्थान स्लेट का है। यमुना घाटी (चकराता), शिवपुरी (ऋषीकेश), टुगोली (देवप्रयाग) में प्रमुख रूप से व्याप्त है।

देवबन शैल समूह : मुख्य रूप से यह शैल समूह स्ट्रोमेटोलाइट युक्त चर्टी डोलोमाइट और डोलोमाइटी चूनापत्थर से बना है। यह शैल समूह रौतगढ़ के पश्चात जमा हुआ है। यह शैल समूह रौतगढ़ के साथ ही उपरोक्त स्थानों में व्याप्त है। इस शैल समूह की आयु 10000 मिलियन वर्ष मानी गई है।

मंधाली शैल समूह : देवबन डोलोमाइटी चूनापत्थर के बाद मंधाली शैल समूह जमा हुआ। इसमें स्लेटी और काली रंग की पाइराट युक्त स्लेट/फाइलाइट मुख्य रूप से मौजूद हैं। कम मात्रा में चूना पत्थर भी पाया जाता है। यह शैल समूह चकराता में टोंस घाटी और कुमायूं के अलावा और भी कई स्थानों पर जमा है। इस शैल समूह को 950-626 मिलियन वर्ष पुराना माना गया है।

बेरीनाग शैल समूह : बेरीनाग शैल समूह सफेद, पीले हल्के लाल रंग का क्वार्टजाइट है। इस शैल समूह का नाम बेरीनाग (पिथौरागढ़) के नाम से रखा गया है कुमायूं और गढ़वाल के बड़े-बड़े हिस्सों में पाया जाता है।

अल्मोड़ा/गढ़वाल संघ की शैल : सिस्ट, अभ्रक की क्वार्टजाइट और नाइस के अलावा इस संघ में ग्रेनाइट और ग्रेनोडायोराइट भी मिलते हैं। इस संघ की शैल पूरे गढ़वाल और कुमायूं मंडल बहुत अधिक मात्रा में फैली हुई है।

रामगढ़ संघ की शैल : ये शैल दूधातोली से रानीखेत, चम्पावत पर्वत श्रेणी में फैली है और अल्मोड़ा के नापे अंतरगत आती है। इसमें मुख्य क्वार्टज-पॉर्फिरी और पॉर्फिराइटी ग्रेनाइट शामिल हैं। इसके अलावा फाइलाइट, क्वार्टजाइट के मेटाअवसाद, स्लेट और संगमरमर भी इस संघ की शैल में शामिल हैं।

उत्तराखंड की सभी परतदार चट्टानों और मध्यस्त क्रिस्टलीय के बीच मेन सैंट्रल थ्रस्ट (एम. सी. टी.) है। एम. सी. टी. भी एम. बी. टी. की भांति सक्रिय क्षेप की श्रेणी में आता है।

सेंट्रल क्रस्टलाइन में उच्चतर श्रेणी के कायांतरित शैल हैं। विख्यात भूवैज्ञानिक प्रो. वाल्दिया ने इस शैल संघ का नाम ‘‘वैकृत संघ’’ दिया है। इसमें मुख्य रूप से कायनाइट, सिलिमिनाइट, युक्त बड़े कणों की शैल और इसमें गारनेट-मसकोवाइट-बायोटाइट-पेगमाटाइट खासतौर पर मिलते हैं। मध्यस्त क्रिस्टलीय की शैल जोशीमठ, बद्रीनाथ आदि उत्तरी भाग में विद्यमान है। इस शैल समूह की आयु आर्कियन (3000 मिलियन वर्ष) मानी गई है।

टिथियन शैल समूह : जोशीमठ के निकट अलकनंदा की सहायक नदी धौलीगंगा उत्तर पूर्व की ओर मलारी एवं वहाँ से पूर्व की ओर चली जाती है। यह नदी और इसकी सहायक नदियां मलारी के बाद पूरे समय टेथियन शैल समूह में विचरण करती हैं। मध्यस्त क्रस्टलाइन और टेथियन शैल संघ को टिथियन भ्रंश मलारी नाला के पास से अलग करता है। इस संघ में जो शैल समूह शामिल है वे इस प्रकार हैं- मारतौली, रालम, गरबियॉग (कैम्ब्रियन), सियाला, वैरीगेटेड शैल समूह (सिलूरियन), मुथ क्वार्टजाइट, डिवोनियन कालापनी चूना पत्थर (कारनियन एवं लेडियन), कुटीशेल (नोरियन), कियोटो चूनापत्थर (रेहाटियन), लपथल (निम्न जूरासिक), स्पिति शैल (ऊपरि जूरासिक आरंभिक नियोकामियन, सांगचामल्ला (टोरोनिन-कम्पेनियन एवं सिनोमानियन) एवं आफिलिटक मिलांज। टिथियन के शैल संघ में शैल बलुवा पत्थर, क्वार्टजाइट, चूना पत्थर मुख्य रूप से सम्मिलित हैं।

संक्षिप्त संरचना एवं विवर्तन : हिमालय की उत्पति, संरचना एवं विवर्तन का इतिहास बहुत जटिल है। विशेषज्ञों के अनुसार संपूर्ण हिमालय तरुण वलित पर्वतमाला के अंतर्गत आती है। जिसके निर्माण में प्लेट टेक्टोनिक्स का विशेष महत्व है। संक्षिप्त में हिमालय की संरचना में वालियन तंत्र का वर्चस्व रहा है। यहाँ की शैल अत्यधिक भ्रंशित एवं विभाजित है। हिमालय में यूँ तो कई भ्रशों का जिक्र विशेषज्ञ करते हैं। लेकिन दो बड़े गंभीरस्थ एम.बी.टी और एम.सी.टी. क्षेप, प्रमुख हैं। हिमालय में विद्यमान में ये दोनों क्षेप आज भी गतिमान हैं। उत्तराखंड हिमालय के भूगर्भ विज्ञान में उपरोक्त सभी तत्वों का बहुत अधिक वर्चस्व है।

उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में यहाँ के भूविज्ञान से आपेक्षित लाभ : उत्तराखंड के भूविज्ञान से प्राप्त लाभ के दोहन से यहाँ निवास करने वाले सभी जन परिचित हैं। उदाहरण के लिये पहाड़ों में मकान की छतों में करीब-करीब गाँवों में सभी जगह स्लेट का प्रयोग होता रहा है। मकान बनाने के लिये व अन्य निर्माण सामाग्री जैसे भवन निर्माण पत्थर, चिकनी मिट्टी पर्याप्त मात्रा एवं कम लागत में उपलब्ध हैं। उत्तराखंड में चूना पत्थर के भंडार गंगोली हाट, सोर-थल-केदार (मंधाली) और क्रोल शैल समूह (मसूरी रिखणी खाल आदि) में मौजूद हैं। वैज्ञानिक तरीके से इसका दोहन सीमेंट उद्योग और उससे संबंधित उद्योग में कारगर सिद्ध हो सकता है। हिमाचल की भांति सीमेंट उद्योग यहाँ भी संभव है। ताल शैल समूह के फोस्फोराइट का दोहन पर्यावरण को ध्यान में रख कर किया जा सकता है। अल्मोड़ा मैग्नेसाइट के बड़े भंडारों के अलावा उत्तराखंड में टेल्क, तांबा, शीशा, यूरेनियम पाईराइट और सल्फर, ग्रेफाइट, जिप्सम, ऐस्बेस्टस आदि विभिन्न खनिज मौजूद हैं। भूवैज्ञानिक दृष्टि से सुरक्षित उत्तराखंड में छोटी नदी घाटी परियोजनाओं की अपार संभावनायें मौजूद हैं। हिमालय में छोटी परियोजना विकास में सहायक तो हैं ही पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को बढ़ावा देना न तो हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण के लिये अनुकूल है न हिमालय की भूवैज्ञानिक परिस्थिति के हक में है। क्योंकि यह प्रदेश कई क्षेप, भ्रंश के बाहुल्य के कारण भूकंप एवं भूस्खलन की दृष्टि से बहुत संवेदनशील है।

कई और महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी हमें भूविज्ञान से पता चल सकती है। इसमें भवन निर्माण, पुस्ता, सड़क एवं पुलों का निर्माण महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी निर्माण कार्यों की शुरुआत करने से पहले हमें निर्माण स्थलों के भूविज्ञान की जानकारी कई प्राकृतिक आपदाओं से बचा सकती है। जहाँ भवन निर्माण कार्य होगा वहाँ की शैल मजबूत हैं या नहीं इस बात का हमें ज्ञान होना जरूरी है। इसके साथ यह भी मालूम होना चाहिए कि भवन निर्माण अगर भ्रंश रेखा पर होगा तो इसका परिणाम घातक हो सकता हैं। क्योंकि ऐसे स्थान पर बना भवन पृथ्वी की आंतरिक हलचल की भेंट चढ़ सकता है। ऐसे स्थानों में भूकंप व भूस्खलन जल्दी असर कर सकता है। यही नहीं हिमालय में बड़ी-बड़ी विद्युत परियोजनायें जो चलाने वाले देशों में भारत, चीन पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, अफगानिस्तान आदि देश हैं। इन सभी देशों की मंशा भी बड़े-बड़े बाँध बनाकर हिमालय को एक ‘‘पावर हाउस’’ की भांति उपयोग कर बहुत अधिक विद्युत उत्पादन की है। लेकिन हिमालय पर्वत माला के भूविज्ञान एवं संवेदनशील पर्यावरण को ध्यान में रख कर ही इन देशों को सोचना होगा, अन्यथा इसका दूरगामी प्रभाव बहुत विनाशकारी हो सकता है।

उत्तराखंड के पहाड़ी भाग में सरकार कई योजनायें जल-संरक्षण स्रोत पर चल रही है। वर्षा का जल शैल परतों में ज्यादा से ज्यादा जा सके इसकी सफलता तभी संभव है जब किसी व्यक्ति को इस स्थान के भूविज्ञान का ज्ञान हो। जल अवरोधक गढ्ढे क्यों और कहाँ बनाये जायें अथवा जलग्रहण क्षेत्र को हरा-भरा रखा जाय, इन सब की सार्थकता तभी संभव है जब वहां के निवासी इस क्षेत्र के संक्षिप्त भूगर्भविज्ञान से परिचित हो जायें।चुनौतियाँ : उत्तरांखड में दो प्रमुख क्षेप ‘‘मेन बाउंडरी क्षेप’’ (दक्षिण में) और ‘‘मेन सेंट्रल क्षेप (उत्तर में) मौजूद हैं। इन क्षेपों पर आज भी गहन हलचल जारी है। विद्वानों का मानना है कि जहां से ये क्षेप गुजर रहे हैं उस स्थान पर उत्तरान्मुखी इण्डियन सीमांत पट्टिका यूरेशियन प्लेट को उत्तर की ओर धकेल रही है। इस कारण इन जगहों पर गहराई में चट्टानों में बहुत अत्यधिक दबाव बनता जा रहा है। जो अत्यधिक बढ़ जाने के कारण इन चट्टानों को अनियंत्रित प्रकार से तोड़ देने के कारण उथल-पुथल मचा देता है। जिसका अहसास पृथ्वी के ऊपरी भाग में होना स्वाभाविक है। इससे ऊपरी सतह हिलने लगती है यह भूकम्प कहलाता है। जिसके विनाशकारी प्रमाण पिछले दशक में चमोली और उत्तरकाशी भूकम्प में देखने को मिले थे। उत्तराखंड भूकम्प जोन चार-पाँच में स्थित है। अत: ऐसी स्थिति से निपटने के लिये यहाँ जागरूकता लाना जरूरी है। यह सही बात है कि भूकम्प की हलचल से जब मकान ढह जाते हैं या फिर सड़के या पुल टूट जाते हैं तो उससे जन और संपत्ति दोनों की हानि होती है। अत: भवन निर्माण में विशेषज्ञों से जानकारी न लेना विपत्तियों को आमंत्रण जैसा साबित हो सकता है। उन्नत तकनीक से बने भवन बड़े भूकम्प में भी सुरक्षित रह सकते हैं, या जान-माल का खतरा कम कर सकते हैं। अगर मकान सुरक्षित है तो उसमें रहने वाला मनुष्य/ अन्यजीव सुरक्षित है। उदाहरण के लिये 2 फरवरी में चिली के 8.8 तीव्रता वाले भूकम्प में केवल 750 जानें गई। जबकि जनवरी 2010 में हैती में उससे भी कम रिक्टर स्केल के भूकम्प में करीब तीन लाख जानें गई।

भूस्खलन


उत्तराखंड हिमालय का वह भाग है जहाँ की शैल परतें बहुत ज्यादा वलित है यहाँ की शैल समूह का वलित स्तर क्षेपण से बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। सबसे ज्यादा भाग में शैल, फिलाइट आदि कमजोर शैल का बाहुल्य है। दोनों शैल समूह कई भागों में अपक्षरण से प्रभावित है। पहाड़ की ढालों में वनस्पति अनेक कारणों से समाप्त हो गई हैं जिससे शैल के ऊपर की अपक्षय शैल समूह गुरुत्वाकर्षण के कारण स्वयं भी नीचे खिसकना शुरू कर देती है। बरसात का पानी ऐसे स्थानों में बहुत बड़े-बड़े भूस्खलनों का कारण बन जाता है। उत्तराखंड के अनेकों स्थानों के भ्रमण के बाद लेखक का अनुभव यह है कि सबसे ज्यादा भूस्खलन उन स्थानों पर देखने को मिला है जहाँ शैल, फिलाइट सिस्ट आदि शैल हैं या अपक्षय शैल समूह अधिक है।

इस प्रकार के शैल समूह में लोवर शिवालिक, चांदपुर, डगसाई इन्फ्राक्रोल, अल्मोड़ा/ गढ़वाल ग्रुप की माइका-सिस्ट, फिलाइट आदि प्रमुख हैं। उत्तराखंड में भूकम्प के कारण पड़ी बड़ी दरारों में वर्षा के पानी के प्रवेश करने के कारण भी यहाँ विनाशकारी भूस्खलन का उत्तरकाशी भूस्खलन ताजा उदाहरण है। वर्णावत पर्वत पर जब भू-स्खलन बहुत उत्तेजित था लेखक को वहाँ के सूक्ष्म भूविज्ञान निरीक्षण से पता चला कि चकराता शैल समूह के बिना अपक्षरण शैल के बड़े-बड़े ब्लॉक भी आसानी से नीचे खिसक रहे थे। यहाँ गिरे मलवे के निरीक्षण के बाद पता चला कि क्ले के घोल से अत्यधिक चिकनाहट के कारण ब्लाक को फिसलाकर नीचे ला रही थी। क्योंकि ऊपर भूकम्प से उत्पन्न दरार में क्लेयुक्त पानी अंदर प्रवेश करने के कारण क्ले ने दो शैल परतों के बीच जा कर उसमें फिसलन जैसी स्थिति पैदा कर दी। इस क्ले ने बिना अपक्षय शैल को उसके तल से फिसलने को मजबूर कर दिया। इसी कारण यह भूस्खलन हुआ।

शैल तल नमन और पहाड़ी ढाल अगर साथ-साथ हों तो उससे भी भीषण परिणाम देखने में आते हैं। इसका उदाहरण कोटद्वार से दुगड़ा मोटर मार्क पर देखा जा सकता है जहाँ कुछ जगहों पर शिवालिक के बलुवा पत्थर (सैंडस्टोन) के बहुत विशाल टुकड़े सड़क पर गिरते रहते हैं जिससे वहाँ से गुजरने वालो (वाहन, मनुष्य, अन्यजीव) को पूरा खतरा बना रहता है।

उत्तराखंड के पहाड़ी भूभागों में पानी भूमिगत बहुत कम मात्रा में हो पाता है। क्योंकि बहाव की तीव्रता अधिक है। अत: बरसात का पानी भूमिगत शैल परतों में नहीं समा पाता। इसके लिये जल अवरोध गढ्ढे बनाये जा रहे हैं। लेकिन वे ठीक से बन रहे हैं या नहीं जिससे जल शैल परतों में समाये, यह देखना अति आवश्यक है। जल ग्रहण क्षेत्र को हरा भरा रखना अति आवश्यक है। वृक्ष और झाड़ियाँ पानी के बहाव को कम कर अपनी जड़ों के द्वारा जल को भूमिगत करने में सहायक होती हैं। इससे जल भूमिगत तो होता ही है भूमि का कटाव भी रुकता है।

अत: उत्तरांखड के जन-जन को यहाँ के भूविज्ञान के संक्षिप्त परिचय से आर्थिक लाभ प्राप्त हो सकता है एवं कई विपत्तियों से भी बचा जा सकता है।

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के. पी. जुयाल
76, धर्मपुर, देहरादुन


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