उत्तराखंड : कितने लाभप्रद जल विद्युत के दावे

1 Aug 2013
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Hydropower project
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जहां तक जलविद्युत परियोजनाओं से बिजली और रोज़गार के स्थानीय लाभ का सवाल है, तो हकीक़त और भी हास्यास्पद है। बतौर केन्द्रीय मंत्री श्री के एल राव ने खुद माना था कि जलविद्युत परियोजनाओं से स्थानीय लोगों को बिजली नहीं मिलती। टिहरी व भाखड़ा इसके पुख्ता उदाहरण हैं। ताज़ा उदाहरण धौली गंगा परियोजना का है। इसकी क्षमता 280 मेगावाट। इसका पहला आपूर्ति सब स्टेशन बरेली है। परियोजना के नज़दीक मुनस्यारी को एक मेगावाट बिजली नहीं दे पा रहे। यह इलाक़ा अक्सर अंधेरे में डूबा रहता है। हम सब जानते हैं कि परियोजना निर्माण में आधुनिक तकनीक व मशीनों का उपयोग होता है। पानी से पैदा बिजली स्वच्छ, स्वस्थ और सबसे सस्ती होती है। जलविद्युत परियोजनाओं में जो ‘पीकिंग पावर’ होती है। ताप विद्युत की तरह धुआं फैलाकर यह वायुमंडल को प्रदूषित नहीं करती। परमाणु विद्युत उत्पादन इकाइयों से विकरण जैसी आशंका से भी जलविद्युत परियोजनाएं मुक्त हैं। ‘रन ऑफ द रिवर’ परियोजनाएं तो पूरी तरह सुरक्षित हैं। आम ही नहीं खास पर्यावरण कार्यकर्ताओं की धारणा है कि इनमें कोई बांध नहीं बनता। नदी को इनसे कोई नुकसान नहीं होता। अतः ‘रन ऑफ द रिवर’ जल विद्युत परियोजनाएं बनाई जानी चाहिए। जलविद्युत के पक्ष में दिए जाने वाले ये दावे महज दावे हैं या हकीक़त ? जलविद्युत परियोजनाओं की जद में आने वाली आबादी के लिए यह जानना आज बेहद जरूरी है; खासकर तब, जब उत्तराखंड पुनर्निर्माण की दिशा तय हो रही हो।

उत्तराखंड में आज 98 जलविद्युत परियोजनाएं कार्यरत हैं और 111 निर्माणरत। वर्तमान कार्यरत परियोजनाओं की कुल स्थापना क्षमता 3600 मेगावाट है। 21,213 मेगावाट की 200 परियोजनाएं योजना में हैं। ये उत्तराखंड जलविद्युत निगम के आंकड़े हैं।योजना आयोग ने 2032 से उत्तराखंड से 1,32,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा है। विद्युत उत्पादन की हकीक़त यह है कि केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार देश की 89 प्रतिशत जलविद्युत परियोजनाएं स्थापना क्षमता से कम उत्पादन कर रही हैं। दक्षिण एशिया क्षेत्र में बांध, नदी और विकास की पड़ताल में लगी संस्था ‘सैंड्रप’ के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में कार्यरत अधिकांश जलविद्युत परियोजनाएं अपनी स्थापना क्षमता से औसतन 20 से 25 प्रतिशत कम उत्पादन कर रही हैं। टिहरी की क्षमता 2400 मेगावाट है। औसतन उत्पादन 436 मेगावाट का है। यह उत्पादन 700 मेगावाट से अधिक यह कभी नहीं गया।

उत्तराखंड सरकार हमेशा यह कहती है कि ऊर्जा उत्पादन उसकी आय का बड़ा स्रोत है। वह ऊर्जा प्रदेश के रूप में भारत में आगे बनना चाहती है। जलविद्युत कितनी सस्ती हैं और इससे असल आय कितनी होती है? इसका पता लगाना हो तो आकलन करना चाहिए कि उत्तराखंड अपनी विद्युत परियोजनाओं से कितना कमाना चाहता था और इस आपदा में जलविद्युत की वजह से उसने कितना गंवा दिया? एसोसिएटिड चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्रीज ‘ऐसोचैम’ ने पहले चरण में साढ़े आठ हजार करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया था। अब ‘नया पहाड़’ बनाने का दावा 30 हजार करोड़ की मांग कर रहा है। इसमें इंसान, वन्यजीव, मवेशी, वनस्पति, नदी, पहाड़, भूमि और खेती की क्षति की कीमत शामिल नहीं है। विष्णुप्रयाग, श्रीनगर गढ़वाल, फाटा ब्योंग, सिंगोली भटवारी, धौलीगंगा और मनेरी भाली परियोजना के कुप्रबंधन की वजह से जो नुकसान हुआ, उनका आकलन ही कर लिया जाए जलविद्युत के कमाने और गँवाने की हकीक़त सामने आ जाएगी।

‘पीकिंग पावर’ का मतलब होता है कि जब, जहां और जितनी जरूरत पड़े, उतनी ज्यादा बिजली तुरंत आपूर्ति कर पाने की क्षमता। ताप और परमाणु बिजली परियोजनाओं में यह क्षमता नहीं होती। जलविद्युत परियोजनाओं में होती है। इस क्षमता के कारण जलविद्युत परियोजनाएं बेहतर मानी जाती हैं। ‘सैंड्रप’ के मुताबिक भारतीय जलविद्युत परियोजनाओं द्वारा इस क्षमता के उपयोग के उदाहरण नगण्य हैं।

जहां तक जलविद्युत परियोजनाओं से बिजली और रोज़गार के स्थानीय लाभ का सवाल है, तो हकीक़त और भी हास्यास्पद है। बतौर केन्द्रीय मंत्री श्री के एल राव ने खुद माना था कि जलविद्युत परियोजनाओं से स्थानीय लोगों को बिजली नहीं मिलती। टिहरी व भाखड़ा इसके पुख्ता उदाहरण हैं। ताज़ा उदाहरण धौली गंगा परियोजना का है। इसकी क्षमता 280 मेगावाट। इसका पहला आपूर्ति सब स्टेशन बरेली है। परियोजना के नज़दीक मुनस्यारी को एक मेगावाट बिजली नहीं दे पा रहे। यह इलाक़ा अक्सर अंधेरे में डूबा रहता है। हम सब जानते हैं कि परियोजना निर्माण में आधुनिक तकनीक व मशीनों का उपयोग होता है। उत्तराखंड में स्थानीय स्तर पर आवश्यक कौशल तैयार करने की व्यवस्था न होने के कारण बाहरी को रोज़गार अधिक है। मलबा ढोने की ठेकेदारी ज़रूर स्थानीय नेताओं के कब्ज़े में है। कर्मचारियों के लिए मकान की किराएदारी भी ठेकेदार और दलाल खा रहे हैं। सामान्य नागरिक को इन परियोजनाओं से कुछ नहीं मिला। हां! जलविद्युत परियोजनाओं द्वारा किए विस्फोट के कारण सूखे जलस्रोतों की वजह से खेत होते हुए भी खेती न कर पाने की बेबसी ज़रूर बढ़ गई है। इस तरह जलविद्युत परियोजनाओं ने रोज़गार देने की बजाय लोगों के हाथ को बेरोज़गारी और पैरों को पलायन ही दिया है।

लोग समझते हैं कि रन ऑफ रिवर परियोजनाओं में कोई बांध नहीं बनते। वे पानी को नहीं रोकती। इस वजह से वे नुकसानदेह नहीं होती। हकीक़त यह है कि 25 मेगावाट से अधिक की प्रत्येक परियोजना में पानी रोका जाता है। बांध बनता है। रन ऑफ रिवर बांध इस दृष्टि से और खतरनाक हैं कि पानी को रोकने के बाद सुरंग में डाला जाता है। सुरंगें इतनी चौड़ी कि तीन ट्रेनें एक साथ गुजर जाएं। लंबी 5 किमी से लेकर 30 किमी तक। हिमाचल की एक परियोजना में यह लंबाई 50 किमी है। सिंगोली भटवारी परियोजना की सुरंग तो विरोध के बावजूद गाँवों के ठीक सिर पर बनाई गई है।

यह जानते हुए भी कि उत्तराखंड में हॉर्न की तेज आवाज़ से ही कंकड़ हिल जाते हैं। विस्फोट की वजह से भू-स्खलन होते हैं। इन सुरंगों की वजह से पहाड़ के भीतर बैठे स्रोत के एकदम से बह निकलने के कारण फ्लश फ्लड होते हैं। हाइड्रोलॉजी बदल जाती है। एक धारा दूसरी में जा मिलती है। कई धाराएं सूख जाती हैं। यहां सुरंगों को बनाने में डायनामाइट थोक में इस्तेमाल किया गया है। झूठ बोलते हैं कि उत्तराखंड में डायनामाइट का इस्तेमाल नहीं हो रहा। वहां तो सड़क निर्माण में भी डायनामाइट का इस्तेमाल हो रहा है। एक आकलन के मुताबिक अकेले जोशीमठ ब्लॉक में पांच साल में 20,636 किलो डायनामाइट लगाया गया। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि पूरे उत्तराखंड की सुरंग व सड़क परियोजनाओं में उपयोग किए गए डायनामाइट की मात्रा कितनी अधिक है और उससे विनाश कितना अधिक।

जलविद्युत कितनी स्वच्छ और सुरक्षित है, इसका अंदाजा परियोजना निर्माण के दौरान निकले मलबे की मात्रा और उसके निष्पादन के तौर-तरीके से लगाया जा सकता है। मलबे की व्यापकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक औसत परियोजना में दो लाख ट्रक मलबा निकलता है। नियम है कि मलबा नदी के हाई फ्लड जोन से बाहर और अधिक ऊंचाई पर डाला जाए। उसे समतल किया जाए और सुरक्षा दीवार बनाई जाए। मलबे का निष्पादन उचित तरीके से करने में लागत लगती है। अतः परियोजनाओं ने अपना मलबा नदी किनारे और नदी के भीतर डाला। इस मलबे के साथ आने के कारण बांध से निकली बाढ़ बाघ की तरह आई। इसमें पत्थर-पेड़ मिट्टी सब आए। श्रीनगर गढ़वाल के घरों में भरा मलबा इस बात का प्रमाण है।

16 जून को बारिश बढ़ी। नदियों में पानी बढ़ा। फाटक बंद रखने पर जलस्तर बढ़ता है। धारीदेवी मूर्ति के डूबने पर जनाक्रोश के भय से श्रीनगर गढ़वाल बांध (303 मेगावाट परियोजना-कंपनी जी वी के) के फाटक खोलकर रखे गए थे। 16 जून को मूर्ति हटी। उसके तत्काल बाद बांध के फाटक बंद कर दिए गए। पीछे से आए मलबे व पानी ने चुनौती दी। 17 की सुबह बिना चेतावनी.. बिना सूचना फाटक खोल दिए गए। बांध के जलाशय में एकत्र मलबा और पानी बाघ की तरह आए और झपट्टा मारा। यदि फाटक बंद न किए जाते, तो तबाही कम होती। विष्णु प्रयाग परियोजना जे पी समूह की है। इसमें भी यही हुआ। इस कुप्रबंधन की वजह से लामबगड़ बाजार, गोविंदघाट आदि बह गये। मनेरी-भाली परियोजना में सुरक्षा दीवार नहीं बनने के कारण तबाही ज्यादा हुई। अतः समझ लेना चाहिए कि तबाही की वजह धारी देवी का प्रकोप नहीं, बांध असुर का प्रकोप था।

“टिहरी न होता, तो बाढ़ और भयानक होती’’ -इस बयान ने भी खूब भ्रम फैलाने की कोशिश की। हकीक़त यह है कि भागीरथी में अधिकतम बाढ़ के घंटे 16 जून को आए। 16 जून को भागीरथी में 6900 क्युमेक्स पानी था। अलकनंदा में अधिकतम बाढ़ के घंटे 17 जून को आए। परिणामस्वरूप हरिद्वार में अधिकतम बाढ़ के घंटे 18 जून को आए। यदि टिहरी न होता, तो क्या होता? सिर्फ इतना होता कि भागीरथी में 16 जून को अधिकतम जलस्तर के कारण हरिद्वार में अधिकतम बाढ़ के घंटे 18 जून की बजाय 17 जून को आते। फर्क यह भी होता कि 17 तक अलकनंदा का अधिकतम पानी वहां न पहुंचने के कारण हरिद्वार में 17 को अधिकतम बाढ़ का स्तर तुलना में नीचे होता। याद करने की बात है कि इसी टिहरी के कुप्रबंधन की वजह से 2010 में हरिद्वार, बिजनौर, बदायूं, शाहजहांपुर, हरदोई को भयानक बाढ़ का सामना करना पड़ा था।

यह कुप्रबंध ही जलविद्युत परियोजनाओं की हकीक़त है। हकीक़त यह भी है कि सरकार ऐसे लोगों को पर्यावरणीय आकलन व मंजूरी समितियों का अध्यक्ष बनाती रही है, जो पूर्व में जलविद्युत कंपनियों के पैनल पर रहे हैं। उनसे कोई जलविद्युत परियोजनाओं की गलतियों पर लगाम लगाने की उम्मीद कैसे कर सकता है, बशर्ते कि अप्रत्याशित रूप से उनका हृदय परिवर्तन न हो गया हो।

हकीक़त यह भी है कि मंत्रालय के अधिकारियों के पास आकलन रिपोर्ट देखने की फुर्सत ही नहीं है। परियोजनाओं द्वारा हर छह महीने हुए कार्य संबंधी की रिपोर्ट भेजने का प्रावधान है। परियोजनाएं भेजती भी हैं या नहीं? मंत्रालय को इसमें दिलचस्पी ही नहीं है। हकीक़त यह है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के अध्यक्ष हैं। गत साढ़े नौ साल से उसकी कोई बैठक नहीं हुई। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के अध्यक्ष भी वही हैं। आपदा के बाद प्रधानमंत्री ने उनकी कोई बैठक नहीं बुलाई। विष्णुप्रयाग पीपलकोटी समेत कई परियोजनाओं में विश्व बैंक के उधार का पैसा लगा है। ये परियोजनाएं ही विनाश को बढ़ाने वाली हैं। उनसे अपना हाथ खींचकर विश्व बैंक उत्तराखंड की ज्यादा मदद करता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अतः ये विदेशी मददगार मदद के बहाने आपदाग्रस्त इलाकों में क्या करेंगे? इसकी हकीक़त भी जलविद्युत परियोजनाओं की बनाए रखने की हकीक़त से जुड़ी है। आगे आगे देखिए होता है क्या?

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