उत्तराखंडः जंगल की आग से बढ़ता है जल संकट

27 May 2020
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उत्तराखंडः जंगल की आग से बढ़ता है जल संकट
उत्तराखंडः जंगल की आग से बढ़ता है जल संकट

उत्तराखंड़ सहित देश के विभिन्न राज्यों के जंगलों में हर साल आग लगती है, लेकिन उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की सबसे ज्यादा घटनाएं होती हैं। उत्तराखंड में सबसे भीषण आग वर्ष 1995 में लगी थी। 3 लाख 75 हेक्टेयर जंगल इस आग से प्रभावित हुआ था। वर्ष 2000 से अभी तक राज्य का 45000 हेक्टेयर के ज्यादा जंगल जल चुका है। वन विभाग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2010 में 1610.82 हेक्टेयर जंगल में आग लगी थी, जबकि 2011 में 231.75 हेक्टेयर, 2012 में 2823.89 हेक्टेयर, 2013 में 384.05 हेक्टेयर, 2014 में 930.33 हेक्टेयर और 2015 में 701.61 हेक्टेयर जंगल में आग लगी थी। इन छह वर्षों में आग लगने की 3439 घटनाए दर्ज की गई थी, लेकिन सबसे भयानक आग वर्ष 2016 में लगी थी, तब आग लगने की 1857 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे, और 4538 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जलकर राख हो गया था। 2017 से 2019 तक भी अलग अलग जगहों पर पहाड़ झुलसा था, लेकिन इस बार फिर चीड़ से मोहब्बत में उत्तराखंड के सुंदर पहाड़ जल रहे हैं। इससे न केवल पारिस्थितिक तंत्र बिगड़ेगा, बल्कि बड़ा जल संकट भी खड़ा हो जाएगा।

उत्तरखंड के जंगल विशेषकर दो प्रकार के हैं - चौड़ी  पत्ती और चीड़ के जंगल। राज्य के अधिकांश पहाड़ी इलाकों में चीड़ का जंगल है। चीड़ के अपने फायदे हैं, लेकिन चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों की अपेक्षा चीड़ कम लाभदायक है। चीड़ का पेड़ जमीन से पानी सोख लेता है और अपने आच्छादित क्षेत्र में कोई अन्य वनस्पति नहीं उगने देता। चीड़ से झड़ी पत्तियां, जिन्हें ‘पिरूल’ कहा जाता है, जमीन के ऊपर एक मोटी लेयर बना देती हैं। इससे भी जमीन की उर्वरा क्षमता कम होती है। इसके अलावा यही पिरूल गर्मियों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण है। क्योंकि चीड़ आसानी से आग पकड़ता है और इसमें आग फैलती भी बहुत तेज है। दूसरी तरफ, आग लगने की यही घटनाएं चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों के जंगलों में चीड़ की अपेक्षा काफी कम होती हैं। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ अधिक मात्रा में पानी अवशोषित करते हैं और मृदा अपरदन को रोकने में भी लाभकारी हैं। इससे मिट्टी में नमी बनी रहती है, भूजल के अलावा विभिन्न जलस्रोत रिचार्ज होते हैं। इसलिए जिन पहाड़ी इलाकों में चौड़ी पत्ती के जंगल हैं, वहां पानी की उपलब्धता अपेक्षाकृत ज्यादा है। वहां के वातावरण में भी काफी शीतलता और ताजगी है। लेकिन चीड़ के पेड़ में ये गुण न के बराबर है। स्पष्ट कहें तो, चीड़ उतना गुणकारी नहीं हैं। 

चौड़ी पत्ती का जंगल हो या चीड़ या फिर फिर किसी अन्य प्रकार का जंगल। पेड़ों से गिरने वाली पत्तियां जमीन के ऊपर एक लेयर बनाती है, जो स्पंज की भांति काम करती है। बारिश के दौरान ये लेकर स्पंज की तरह पानी को सोखती है और धीरे-धीरे पानी जमीन में चला जाता है। एक प्रकार के रनऑफ वाटर, यानी पहाड़ी ढलानों पर पानी का बहना कम हो जाता है। इससे स्रोतों और भूमि के अंदर जल की उपलब्धता रहती है। जंगल में हरियाली और विविधता कायम रहती है, लेकिन जंगल में आग सबसे पहले जमीन पर पड़ी इन्हीं सूखी पत्तियों में लगती है। जिससे जमीन के ऊपर पानी को सोखने के लिए बना प्राकृतिक स्पंज भी राख हो जाता है। सैंकड़ों जीव-जंतु भी मरते हैं। भूमि की उर्वरता और भूजल रिचार्ज में अहम योगदान देने वाले सैंकड़ों जीवों की मौत की तो कहीं गितनी ही नहीं हो पाती है। दरअसल केंचुए जमीन में छोटे-छोटे छेद करते हैं, जिनसे पानी जमीन के अंदर तक जाता है, लेकिन आग में ये भी जलकर राख हो जाते हैं। शायद इनकी मौत का आंकलन आज तक किसी जंगल की आग के बाद नहीं किया गया होगा।

गौर करने वाली बात ये है कि जंगल की आग को बुझाने के लिए फिलहाल हम इतने संसाधनयुक्त नहीं हैं। आग बुझाने के लिए हम सीधे तौर पर बारिश पर निर्भर है। बारिश होने से आग बुझ जाती है। फिर से उस क्षेत्र में हरियाली उगने में समय लगता है। प्राकृतिक स्पंज तबाह होने से इस पूरे अंतराल में बारिश के दौरान रनऑफ वाटर बढ़ जाता है। बारिश का सारा पानी नीचे की तरफ बह जाता है। पर्यावरणीय संतुलन अलग से बिगड़ता है। दरअसल, उत्तराखंड पहले से ही भीषण जल संकट के दौर से गुजर रहा है। अधिकांश पानी के स्रोत यहां सूख चुके हैं। हिमालयी शहरों में पानी के लिए हाहाकार मचा है। ऐसे में हर साल जंगल में लगने वाली आग ‘‘आग में घी डालने’ का काम करती है। हिम्मोत्थान के सीनियर प्रोग्राम ऑफिसर डाॅ. सुनेश कुमार शर्मा ने बताया कि ‘‘वनों को आग से बचाने के लिए हमें जंगलों की प्राकृतिक तकनीक और हाइड्रोलाॅजी को समझना होगा। चीड़ के जंगलों का क्षेत्र घटाकर, चौड़ी पत्ती वाले जंगलों का फैलाव करना होगा। इसके लिए सभी को मिलकर सरकार पर दबाव बनाने की आवश्यकता है। साथ ही जन भागीदारी बेहद जरूरी है। क्योंकि चौड़ी पत्ती की अपेक्षा चीड़ वाले क्षेत्रों में जल संकट ज्यादा गहराएगा।’’

सरकार से लोगों ने कई बार चीड़ का विकल्प तैयार करने की अपील की थी, लेकिन सरकार को चीड़ से इतनी मोहब्बत है कि ‘चीड़ से ईंधन या अन्य उत्पादन बना रहे हैं। पिरूल का उपयोग किया जा रहा है, इससे आजीविका के साधन उपलब्ध होंगे और जंगल में आग भी नहीं लगेगी, लेकिन धरातल पर स्थिति बिल्कुल अलग है। चीड़ से सरकार का प्यार प्रकृतिक की धरोहरों को बर्बाद कर रहा है। वास्तव में उत्तराखंड में इको-टूरिज्म विकसित करने की जरूरत है। यात्रियों की संख्या को एक निर्धारित सीमा तक सीमित किया जाए। सरकार अपने स्तर पर तो चीड़ का विकल्प तैयार कर, चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगाए, लेकिन प्रदेश में आने वाले हर पर्यटक से पौधारोपण करवाया जाए। पौधों की देखभाल की जिम्मेदारी उन विभागों को दी जाए, जिनकी जमीन पर पेड़ लगाए जा रहे हैं। इसके अलावा प्रत्येक ग्राम पंचायतों को भी अपने अपने क्षेत्र में इन पौधों की पेड़ बनने तक की जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाए। तभी जल और हरियाली के साथ जीवन भी बचेगा।


हिमांशु भट्ट (8057170025)

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