वायुमंडल में ऑक्सीजन की उपस्थिति एवं जैव विकास

7 Oct 2016
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आद्य वायुमंडल में ऑक्सीजन की उपस्थिति व उसकी मात्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि का अध्ययन वैज्ञानिकों के मध्य कई दशकों से ज्वलंत चर्चा का विषय रहा है। भूवैज्ञानिक अभिलेखों में अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं जिससे आद्यवायुमंडल की ऑक्सीजन का स्तर जानने के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है। कुछ वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में वायुमंडल-महासागर के त्रिमितीय मॉडल को आधार बनाया। इस मॉडल के अनुसार ऑक्सीजन का उत्पादन व विकास तीन चरणों में हुआ।

सभी जानते हैं कि जिस वायुमंडल में हम जीते हैं, सांस लेते हैं, उसमें 78.8% नाइट्रोजन, 20.95% ऑक्सीजन, 0.93% आर्गोन, 0.038% कार्बन डाइआक्साइड व थोड़ी मात्रा में वाष्प होती है। परंतु पृथ्वी में हमेशा से ऐसा नहीं था, पृथ्वी के जन्म के प्रथम चरण में, काफी लम्बे काल तक, वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य थी और उसमें जीवों का अभाव था। और यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि वायुमंडल में मुक्त ऑक्सीजन की उपस्थिति के पश्चात ही जीवों में विकास की प्रक्रिया संभव हो पाई। जहाँ जंतुओं में ऑक्सीजन उनकी उपापचय क्रियाओं के लिये अति आवश्यक थी, वहीं वनस्पतियों का निर्माण ऐसे रासायनिक घटकों से हुआ जो ऑक्सीजन का निर्माण करते थे।

भूवैज्ञानिक समय सारणी के जीवाश्म संबंधी आलेखों पर नजर डालें तो अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ सामने आती हैं कि किस तरह पृथ्वी में बदलाव के साथ वायुमंडल व जैव मंडल में बदलाव दृष्टिगोचर हुए और जीवन का विकास संभव हो पाया। करीब 4500 मिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी का जन्म माना जाता है, 4500 से 3800 मिलियन वर्ष के बीच का समय अर्थात हेडन कल्प में कोई भी शैल विद्यमान नहीं थी, उसके पश्चात 3800 से 2500 मिलियन वर्ष अर्थात आद्य महाकल्प (आर्कियन) का वायमुंडल आज के वायुमंडल से सर्वथा भिन्न था। एक अपचित वायुमंडल जिसमें मीथेन, अमोनिया, कार्बन मोनोआक्साइड आदि गैसों की प्रमुखता थी जो आज के जीवन के लिये विषैली मानी जाती हैं, इस समय पृथ्वी इतनी ठंडी हो चुकी थी कि शैलों का बनना भी शुरू हो चुका था। इसी समय अंतराल में सर्व प्रथम स्ट्रोमैटोलाइट के अभिलेख मिलते हैं, जैवमंडल व वायुमंडल का यह एक महत्त्वपूर्ण बदलाव था। इसके उत्तरार्ध में वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा 0.1 प्रतिशत तक हो गई। 2500 से .542 मिलियन वर्ष अर्थात प्रोटेरोजोइक कल्प में प्रथम जटिल जीवों की उत्पत्ति हुई, यही वह समय था जिसके उत्तरार्ध में उच्चतर वनस्पतियाँ व जंतु अस्तित्व में आये और इसके अंत होने तक शैलीय प्राणियों का अस्तित्व इस पृथ्वी में आया। वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा इस समय 15 से 20 प्रतिशत तक बढ़ गई थी। विकसित प्राणियों के विकास के साथ ऑक्सीजन की मात्रा का बढ़ना यह दर्शाता है कि जैव विकास व वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा का आपस में गूढ़ संबंध है।

कुल मिलाकर उपरोक्त कथन यह निर्दिष्ट करता है कि वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा आर्कियन कल्प के पश्चात उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई, परंतु यह नहीं उल्लेख करता कि ऐसा कैसे हुआ। इसके लिये कार्बन, सल्फर, लौह की भूरसायनिकी तथा विकासोन्मुख जीवों पर इन तत्वों के चक्रों के प्रभाव को दृष्टि में रखना होगा। सबसे पहले आर्कियन काल में ऑक्सीजन की मात्रा पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि उस समय मुक्त ऑक्सीजन सर्वथा उपलब्ध नहीं थी। 3500 मिलियन वर्ष पूर्व जब नील हरित शैवाल अस्तित्व में आये उस समय ये जीव फोटोसिस्टम I द्वारा कार्बनिक यौगिक बनाते थे।

जैसे
Co2 → + 2H2 CH2 → O+H2O
और
CO2+2H2S CH2O+H2O+2S

इस पूरी प्रक्रिया में ऑक्सीजन उत्पन्न नहीं होती।

अब प्रश्न यह उठता है कि वायुमंडल में ऑक्सीजन आई कहाँ से। ऐसा माना जाता है कि ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत जैविक है। प्रोटेरोजोइक कल्प में ऑक्सीजन नीलहरित शैवालों में ऑक्सीजैनिक फोटोसिस्टम II अथवा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा उत्पन्न हुई। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा नीलहरित शैवाल सूर्य की रोशनी की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड व पानी के साथ क्रिया कर कार्बोहाइड्रेट बनाते हैं और ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं।

सूर्य की रोशनी
जैसे CO2 → +H2O CH2O+O2

फोटोसिस्टम II की उपस्थिति में यदि जैविक कार्बन के अंतर्हित होने की दर आज की दर से आंकी जाय तो ऑक्सीजन के उत्पन्न होने की दर 1013 मोल वर्ष होगी, जोकि ज्वालामुखियों से प्राप्त अपचित गैसों जैसे H2, CO तथा SO को ऑक्सीकृत करने के लिये पर्याप्त होती है। यदि ज्वालामुखियों से गैसों का उत्सर्जन अधिक हो उस स्थिति में अपचयित गैसों की मात्रा प्रकाश संश्लेषण से प्राप्त ऑक्सीजन से ज्यादा होगी और इस स्थिति में जैविक कार्बन के अंतर्हित होने की मात्रा कम होगी।

भूरसायनिक प्रमाण भी बताते हैं कि नील हरित शैवालों द्वारा प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया कई हजार मिलियन वर्ष पूर्व शुरू हो गई थी और करीब 2400 मिलियन वर्ष पूर्व वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी थी, परंतु जितनी मात्रा प्रकाश संश्लेषण द्वारा उत्पन्न हो रही थी उतनी मात्रा ऑक्सीजन वायुमंडल को उपलब्ध नहीं थी। इसका मुख्य कारण कार्बनिक पदार्थों के क्षरण में ऑक्सीजन का उपयोग होना है, यदि ऑक्सीजन का उत्सर्जन व उसके उपयोग की मात्रा समान है तो वायुमंडल में ऑक्सीजन की उपलब्धता उसी अनुपात में कम हो जायेगी, अत: जैव कार्बन के अंतर्हित होने के अनुपात के ऊपर वायुमंडल की ऑक्सीजन का अनुपात निर्भर करता है। कुछ जैविक पदार्थ समुद्र में पाये जाने वाले सल्फेट को ऑक्सीजन की उपस्थिति में पायराइट में बदल देते हैं, यह भी ऑक्सीजन की अनुपलब्धता का कारण बनता है।

ऑक्सीजन का क्षय बहुत तीव्र गति से होता है, भूतापीय क्रियाओं व ज्वालामुखी से प्राप्त गैसें जैसे हाइड्रोजन भी ऑक्सीजन का उपयोग करती हैं। महासागरों में घुले खनिज व ऊष्ण समुद्र नितल मुख द्वारा प्राप्त गैसों के साथ भी ऑक्सीजन क्रिया करती है। लौह खनिज व लोहित संस्तर इत्यादि सब ऑक्सीजन व खनिजों की परस्पर क्रिया द्वारा निक्षेपित हुए हैं।

आद्य वायुमंडल में ऑक्सीजन की उपस्थिति व उसकी मात्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि का अध्ययन वैज्ञानिकों के मध्य कई दशकों से ज्वलंत चर्चा का विषय रहा है। भूवैज्ञानिक अभिलेखों में अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं जिससे आद्यवायुमंडल की ऑक्सीजन का स्तर जानने के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है। कुछ वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में वायुमंडल-महासागर के त्रिमितीय मॉडल को आधार बनाया। इस मॉडल के अनुसार ऑक्सीजन का उत्पादन व विकास तीन चरणों में हुआ। प्रथम चरण को अपचित चरण कहा गया। इस काल में पूरे वायुमंडल/महासागर सिस्टम में मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा बिल्कुल भी नहीं थी। ऑक्सीकृत प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करने वाले जीवों से पहले महासागर व बेसाल्टीय शैलों से प्राप्त अपचित पदार्थों की मात्रा फोटोलिसिस से प्राप्त ऑक्सीजन की मात्रा से बहुत अधिक थी, अत: वायुमंडल में मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा केवल 10-14 PAL अर्थात नगण्य थी, जीवों में जैविक प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के शुरू होने के बाद भी वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम थी।

यह स्थिति उस समय तक बनी रही जब तक वायुमंडल में अपचयित गैसों की मात्रा विद्यमान थी। महासागरों की सतह पर स्ट्रोमेटोलाइट बहुलता वाले स्थानों में, स्थानीय रूप से कहीं-कहीं प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ी, और इस तरह स्थानीय मरुउद्यानों को विकसित किया। पूरा वायुमंडल ऑक्सीजन रहित होते हुए भी इन मरुउद्यानों में धुलीय ऑक्सीजन की सांद्रता 10% PAL तक थी। इन्हीं मरुउद्यानों ने संभवत: पटित लौह शैल समूहों (बैंडेड आयरन फॉरमेशन) के निक्षेपण के लिये अनुकूल परिस्थितियां पैदा की होंगी। आर्कियन कल्प में या आद्यप्रोटेरोजाइक कल्प में अपचित वस्तुओं की पूर्ति घटने अथवा ऑक्सीजन के अधिक निर्माण होने से वायुमंडल में ऑक्सीजन एकत्रित हो पाई थी। ऑक्सीजन के बढ़ने के प्रमाण हैं 2000 मिलियन वर्ष पूर्व के बाद पाये जाने वाले लोहित संस्तर (रैड बैड) यानि उस समय महासागर विश्वव्यापी स्तर पर ऑक्सीजन युक्त हो चुके थे। मध्य प्रोटेरोजोइक में महासागरों का गहरे स्थानों का पानी ऑक्सीजन युक्त नहीं रहा होगा और ppm मात्रा में लौह युक्त रहा होगा और यही उत्प्रवाही धारा के रूप में आता पानी पटित लौह शैल समूह के बनने के लिये जिम्मेदार माना जाता है।

महासागरों की सतह के ऑक्सीभूत क्षेत्र व गहराई के अनाक्सीभूत क्षेत्र की एक साथ उपलब्धता आद्यप्रोटेरोजोइक के द्वितीय चरण को दर्शाती है। इस चरण में वायुमंडलीय ऑक्सीजन की ऊपरी सीमा ~ 0.03 PAL थी जोकि कार्बनिक पदार्थों के अंतर्हित होने की दर के समानुपाती है। गहरे महासागर जब पूर्णतया ऑक्सीभूत हो गये और उनमें धुलीय लौह की मात्रा बिल्कुल भी नहीं रही उस समय तृतीय चरण की शुरुआत मानी जाती है। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया की तीव्रता संभवत: इस चरण की शुरूआत का मुख्य कारण रही होगी। प्रकाश संश्लेषण के अलावा महासागरों में पानी के प्रवाह में परिवर्तन और कार्बनिक पदार्थों के अंतर्हित दर में परिवर्तन भी इसके कारण हैं। यह समय 1800 मिलियन वर्ष आंका गया है। इस समय पटित लौह शैल समूह की उपस्थिति भी नहीं पाई जाती।

यद्यपि कुछ स्थानों जैसे यूकन के रैपिटन ग्रुप और ब्राजील को युरूकुल ग्रुप में मिलने वाले ऊपरी प्रोटेरोजोइक के पटित लौह शैलसमूह पर यह व्याख्या मेल नहीं खाती, परंतु इन संस्तरों की विशेषता है कि ये पूरी तौर पर हीमेटाइट व चर्ट के बने हैं और हर जगह हिमनद निक्षेप (ग्लेशियल डिपोजिट) के साथ संलग्न हैं। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि इन निक्षेपों के बनने की प्रक्रिया अलग रही होगी और निश्चित ही इसे द्वितीय चरण की वापसी का संकेत नहीं माना जाना चाहिये।

चित्र में प्रयुक्त छायांकित PO2 भाग की अनुमोदित यात्रा को दर्शाता है। उर्ध्वाधर रेखाएं विकास के सोपानों के संक्रमण काल को दर्शाती हैं। इस चित्र में यह संक्रमण काल 2400 मिलियन वर्ष दिखलाया गया है। यह व्याख्या उपलब्ध लौह संस्तरों से प्राप्त दत्त एवं अपरदी खनिज निक्षेप की उपलब्धता तथा कनाडा व दक्षिणी अफ्रीका में पाये गये ~ 2300 मिलियन वर्ष पूर्व के सल्फर समस्थानिकों के विस्तृत आयाम के साथ मेल खाती है। सर्वव्यापी सल्फर समस्थानिक अनुपात महासागरों के पानी में घुलीय सल्फर की मात्रा को प्रदर्शित करता है जो दर्शाता है कि किस मात्रा में ऑक्सीजन उस समय वायुमंडल में उपलब्ध थी।

प्रत्यक्ष रूप से, वह समय जब वायमुंडल पहली बार ऑक्सीकृत हुआ अभी भी विवाद का विषय है। पुरामृदा (पेलियोसोल) से प्राप्त दत्त के अनुसार मुक्त ऑक्सीजन की उपस्थिति 3000 मिलियन वर्ष पूर्व तक पाई गई है। आर्कियन कल्प में इसकी अंतिम सीमा अनाक्सीकृत यूरेरिनाइट की उपस्थिति से भी पता चलती है। हॉलेंड (1984) के अनुसार यूरेरिनाइट के परिरक्षण के लिये PO2-PCO2-4.9+0.8 बार होना चाहिए। ऐसा पाया गया है कि पूरे आर्कियन में PO2.003 PAL से कम ही था।

चित्र के ठोस उर्ध्वाधर बार जो अध: प्रोटेरोजोइक की पुरामृदा से प्राप्त दत्त के आधार पर आंकलित हैं, बताते हैं कि PO2/PCO2 का अनुपात इस समय करीब 0.3 + 0.01 होगा। पुरा- जलवायवीय मॉडल के आधार पर CO2 का आंशिक दाब अध: प्रोटेरोजोइक में .25 बार व .02 बार के बीच का होगा। यह मॉडल तृतीय चरण में वायुमंडल की ऑक्सीजन के बढ़ने की दर को नहीं बताता। वाकर के अनुसार, गहरे महासागरों के फेरस लौह से विहीन होने के पश्चात ही वायुमंडल में मुक्त ऑक्सीजन व्याप्त हुई। यह तथ्य बहुत ज्यादा निर्णयात्मक नहीं माना जा सकता क्योंकि मध्य प्रोटेरोजोइक तक कार्बन चक्र भी बहुत अच्छी तरह विकसित हो चुका था। उदाहरणस्वरूप, ऊपरी प्रोटेरोजोइक व कैम्ब्रियन में बहुकोशिकीय जीवों के अवतरण व परिवर्तन की प्रक्रिया में कोलोजन व अवशिष्ट पदार्थों के रूप में कार्बन के अंतर्हित होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। इन पदार्थों की प्रतिरोधक क्षमता एक कोशीय जीवों से ज्यादा थी। सिलूरियन आते-आते स्थलीय पादपों में लिग्निन उपस्थित था जिसकी प्रतिरोधक क्षमता और अधिक थी। उपरि प्रोटेरोजोइक में मुक्त ऑक्सीजन के बढ़ने के प्रमाण कार्बन के समस्थानिक विवरण के अभिलेखों में भी देखे जा सकते हैं। उपरि रीफियन में समुद्री कार्बोनेटों के δ13C की कुल मात्रा करीब +5% थी, यदि कार्बन चक्र की दर आज की दर के समान मानी जाय तो उस स्थिति में कार्बन के अंतर्हित होने की दर दुगुनी होगी, और इस स्थिति में ऑक्सीजन के उत्पन्न होने की दर आज के अनुपात में लगभग 10 गुना ज्यादा होगी। जैविक कार्बन के अंतर्हन का दूसरा प्रमाण प्रोटेरोजोइक के अंत में पाया गया। और इसका सीधा संबंध ऑक्सीजन स्तर के बढ़ने के साथ पाया गया।

ये सारे प्रमाण इंगित करते हैं कि वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा एकाएक नहीं बढ़ी बल्कि उपरि प्रोटेरोजोइक तक भी आज की मात्रा से काफी नीचे थी। यह मात्रा विकासोन्मुख जीवों में ऑक्सीजन की मांग से मापी जा सकती है। उदाहरणार्थ, 1500 मिलियन वर्ष पूर्व यूकैरियोटिक जीवों के उपापचय को नियमित रखने के लिये कम से कम 0.01 O2 PAL की जरूरत होती है और 600 मिलियन वर्ष पूर्व तक आते-आते यह मांग उत्तरोत्तर बढ़ती गई क्योंकि इस समय बहुकोशिकीय जीव विकसित हो चुके थे। ऐसा भी पाया गया कि चपटे शरीर वाले एडियाकारा जंतु इस प्रकार विकसित हुए कि वो वायुमंडल की ज्यादा से ज्यादा ऑक्सीजन का उपयोग कर सकें। इस तरह, यह माना गया कि ऑक्सीजन की बढ़ती मात्रा ने पूरे बहुकोशिकीय जंतुओं के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यह घोषणा बहुत ही साधारण प्रतीत होते हुए भी कार्बन समस्थानिक प्रलेखों व कार्बन चक्र के साथ पूरी तरह मेल खाती है। संक्षेप में, वायुमंडल में मुक्त ऑक्सीजन के प्रमाणों और उत्तरोत्तर विकास व उसका जीवों पर विकास का अध्ययन करने के लिये काल निर्धारित प्रोटेरोजोइक शैल समूहों का होना अति आवश्यक है। पिछले 30-40 वर्षों में, प्रोटेरोजोइक के लौह शैल समूह की उम्र, पुरामृदा, लोहित संस्तर तथा हिमनद संस्तर का अध्ययन बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है।

सम्पर्क


मीरा तिवारी
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून


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