वेद- विज्ञान- संस्कृति एवं पर्यावरण

हमारे पूर्वोजों ने अनेक ऐसे आविष्कार किए, जिनका विचारमात्र भी आज के वैज्ञानिक नहीं कर सकते। वेद में 18 प्रकार के वायुयानों का उल्लेख है। हमारे ऋषि सूर्य आदि अन्य मंडलों में जा सकते थे। आधुनिक वायुयान के अधिकतम गति 101 मील प्रति घंटा से ऊपर तक जाने की संभावनाएं हम संजोए हुए हैं। सामान्य वायुयान अभी तक 21 मील ऊपर तक ही जा सकता है। 9 प्रकार के विद्युत को ऋषिगण जानते थे। मनुष्य के ह्दय में एक कौतूहल आज भी प्रश्नवाचक बना हुआ है कि आखिर संसार है क्या? सृष्टि की रचना, सभ्यता एवं संस्कृति का विकास-क्रम कैसे और किस प्रकार बना और सृष्टि का विनाश कब, कैसे और किस रूप में होने वाला है? युद्ध, महायुद्ध, भूकंप, ओजोन परत में छिद्र या परमाणु विखंडन आदि जैसे संसार का नष्ट होना निश्चित है? ऐसे प्रश्न पर चर्चा-परिचर्चा विश्व-स्तर पर होती रहती है, लेकिन इस विषय में सभी का समान मत नहीं होने से विषय पर प्रश्नवाचक बना हुआ है।

परंतु विभिन्न विद्धानों, वैज्ञानिकों एवं भविष्यवेताओं में संसार की स्थिति, निर्माण और उसके नष्ट होने की तिथि के बारे में मतभेद हो सकते हैं कि वेद, ज्ञान का प्रकाश पुंज है, जिससे ऐसा अखंड, अनंत, अपरिमित ज्ञान बोध होता है, जिसको सृष्टि के ऋषियों ने हृदयंगम किया था। वेद, शास्त्र के विद्वान, वेद को सृष्टि विज्ञान के संपूर्ण एवं परिपूर्ण ग्रंथ की मान्यता देने हेतु सर्वसहमत हैं। मनुष्य की उन्नति, प्रगति सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हुआ है या भविष्य में होगा, वह वैदिक विज्ञान के आश्रम से ही संभव है।

विश्व की प्राचीनतम मानव सभ्यता के युग से आधुनिक सभ्यता, संस्कृति एवं वैज्ञानिक आविष्कारों का मुख्यत: आधार भू-मंडल में स्थित प्रमुख चार अवयव-जल, अग्नि, वायु और मृदा हैं। इन चारों वस्तुओं के विषद ज्ञान को वेद कहते हैं।

वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनकी चार अलग-अलग संहिताएं हैं। बिखरे हुए वेद मंत्रो का संकलन करने का कार्य ऋषियों ने संपन्न कर उन्हें संहिताओं में विभाजित किया। भू-मंडल में स्थित चार वस्तुओं में से जल के संबंध में सामवेद में वर्णन किया गया है।सामदेव में जल के इस रूपांतर कार्य तथा गुणों का ज्ञान आदि विश्लेषणात्मक एवं वैज्ञानिक ढंग से सविस्तार उपलब्ध है। ऋग्वेद से अग्नि के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यजुर्वेद में वायु के विभिन्न प्रकार एवं उनके कार्यों के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार अथर्ववेद में मृदा के विभिन्न गुणों के संबंध में जानकारी अवगत हो सकती है। इसी कारण जल, अग्नि, वायु और मृदा को क्रमश: ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद कहा जाता है। अग्नि, जल, वायु, और मृदा के क्रमशः 21,1000, 101 एवं 9 मुख्य विभाग होते हैं। इन सबका योग 1,131 के बराबर होता है वेदों की भी 1000, 21, 101, 9 ऋचाएं हैं। यजु का अर्थ वायु है और अथर्व का अर्थ मिट्टी है।

प्रत्येक वेद में जल, अग्नि, वायु और मिट्टी पारिभाषिक शब्द हैं और उनसे केवल हमारे इस जल, अग्नि, वायु और मिट्टी का ही तात्पर्य नहीं है, वरन् इन चारों पदार्थों के आदिस्वरूप, प्रकृति की अव्यय अवस्था से लेकर स्थलतम अवस्था तक जितने रूप प्रकारांतर, विभाग इत्यादि बनते हैं, उन सबका जातिवाचक नाम जल, अग्नि, वायु और मिट्टी वेद में निहित हैं। उदाहरणस्वरूप जल से वेद में घृत, मधु, सुरा, जल इत्यादि समस्त जलीय पदार्थों से अभिप्राय है और जल के सूक्ष्म कण जो भाप रूप में आकाश में स्थित हैं, उनको भी वेद जल ही कहकर पुकारता है।

प्राचीन ऋषियों ने प्रकृति की आदि अवस्था से अन्त्य अवस्था तक पूर्णावलोकन कर प्रत्येक देश में उन देशों की प्राकृतिक रचना को देखकर इन शाखाओं का विस्तृत तथा सक्रम प्रचार किया। उदाहरणस्वरूप उत्तर प्रदेश में जल और वायु प्रधान होने से विंध्य पर्वत के ऊपर साम और यजुर्वेद का प्रचार हुआ तथा विंध्य से नीचे दक्षिण देश अग्नि और भूमि प्रधान होने से वहां ऋग्वेद तथा अथर्ववेद का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इससे स्पष्ट है कि हमारे ऋषि-मुनियों को संसार का जबरदस्त सूक्ष्म एवं विस्तृत ज्ञान था, तभी तो वे परिस्थिति-अनुकूल वेदों का प्रचार करने में सक्षम सिद्ध हो सके।

जिन वेदों की रचना भारत में हुई, उनकी 1,131 शाखाएं थीं, उनमें से केवल मात्र 6 शाखाएं ही उपलब्ध हैं अर्थात् 1,125 शाखाएं उपलब्ध नहीं है। जर्मन में 103 शाखाएं अवश्य उपलब्ध हैं, जिन्हें जर्मन सरकार ने बहुत ही सुरक्षित ढंग से रखा है, जिनका अध्ययन केवल वहां के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों द्वारा किया जा सकता है। वेद का अर्थ निरुक्त से होता है। प्राचीनकाल में 18 निरुक्त प्रचलित थे। अब भारत में केवल एक यास्कीन निरुक्त ही उपलब्ध है। जर्मनी में 3 निरुक्त उपलब्ध हैं।

वेदों का अध्ययन प्राचीनकाल में वेद की आज्ञानुसार (यजुर्वेद अ.26/15) ही पर्वतों के शिखर पर अथवा नदियों के संगम पर किया जाता था। ऋक् और अथर्व का अध्ययन पर्वतों पर होता था, कारण कि पत्थर पर जो प्रभाव पड़ता है, वह भी जाना जा सकता है। इससे अग्नि तथा मिट्टी का ज्ञान विशेष रूप से वहां जाना जा सकता है। साम और यजु का अध्ययन नदियों के संगम पर हुआ करता था, इसका कारण भी स्पष्ट है कि दो नदियों के जल-संगम से विभिन्न गुणों एवं शक्तियों की संभावित संभावनाओं का भी अवलोकन हो सकता है। वायु और जल के संघर्ष से नवीन शक्ति के प्रकट होने की संभावनाएं होती थीं, उसका भी प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन सरलता एवं सुगमता से किया जा सकता है। अग्नि और मिट्टी को वैज्ञानिक एकजातीय समझते हैं। ठीक इसी प्रकार जल और वायु भी एकजातीय हैं।

हमारे पूर्वोजों ने अनेक ऐसे आविष्कार किए, जिनका विचारमात्र भी आज के वैज्ञानिक नहीं कर सकते। वेद में 18 प्रकार के वायुयानों का उल्लेख है। हमारे ऋषि सूर्य आदि अन्य मंडलों में जा सकते थे। आधुनिक वायुयान के अधिकतम गति 101 मील प्रति घंटा से ऊपर तक जाने की संभावनाएं हम संजोए हुए हैं। सामान्य वायुयान अभी तक 21 मील ऊपर तक ही जा सकता है। 9 प्रकार के विद्युत को ऋषिगण जानते थे। यजुर्वेद के वर्णनानुसार, एक ही विद्युत दीप जिसे उत्तरी ध्रुव के नीचे बिंदु सरोवर के ऊपर रखा जाता था, संपूर्ण एशिया में प्रकाश देता था। ऋग्वेद 4 अ. 4 के अनुसार उनका सामाजिक जीवन इतना पवित्र तथा उच्च था कि सदैव उनका उद्देश्य यही रहता था कि सभी देशों में शांति तथा स्वराज्य स्थापित रहे।

यजुर्वेद आख्यान 17/20 में लिखा है कि वैदिक मंत्रों के आधार पर मन द्वारा ही सृष्टि की उत्पत्ति क्रम का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। आधुनिक काल के वैज्ञानिक सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में तथ्यात्मक प्रत्युत्तर देने में असफल हैं कि ईश्वर ने इतने विशाल संसार की रचना कैसे की। जब सृष्टि के आदि में कुछ भी नहीं था तो भला उसका वर्णन कौन कर सकता है? उस काल में न देवता थे और न ही पितृ और न ही मनुष्य, फिन मन और प्राण ही सूक्ष्म अवस्था में उस काल में वहा उपस्थित थे। अतः वेद ने उसी मन की ओर संकेत कर हमें सृष्टि विज्ञान को सही ढंग से जानने व पहचानने का एकमात्र यंत्र है तो म नहीं है? (ऋग्वेद अ. 20 सू. 164 स. 4 के अनुसार)

अपने मन से यदि हम पूछें कि कौन-सा वन है, उस वन में कौन-सा वृक्ष है, उस वृक्ष में कौन-सी डाली है, जिस डाली को काटकर ईश्वर ने इतने बड़े संसार की रचना की है तो इसका उत्तर वृष्ण यजु. अ. में 7 दिया है कि स्वयंभू वन है, वाक् वृक्ष है, मन उसकी डाली है, जिसको काटकर उस एक शक्ति ने इतना बड़ा संसार बनाया है।

ऋग्वेद अ. 2 अ. 20 म. 13 के अनुसार संपूर्ण ब्रह्मांड पांच चक्रों स्वयंभू, परमेष्ठ, सूर्य, पृथ्वी और चंद्र पर आधारित है। प्रत्येक चक्र, सृष्टि, पृथ्वी एवं चंद्र के स्वयंभू मंडल मे विलीन हो जाने से प्रलय होती है। जिन शक्तियों और नियमों के आधार पर पांचों चक्र अपने-अपने भार को धारण करते हैं, उन्हें सनातन धर्म कहते हैं, क्योंकि ये आदि से अंत तक धारण किए रहता है। धर्म वही है, जो प्रकृति के अनुकूल हो और पाप वही है, जो प्रकृति के विरुद्ध हो।

भारतीय संस्कृति ‘अरण्य संस्कृति’ है। वन दार्शनिक एवं रहस्यमय ज्ञान के लिए उपयुक्त स्थल माना गया है, लेकिन आज कि भौतिकवादी संस्कृति ने वनों का विनाश द्रुतगति से किया है, जिससे कालांतर में सूर्य एवं पृथ्वी को अपने भार को वहन करने की क्षमता क्षीण होती प्रतीत हो रही है। सूर्य की बैंगनी किरणें पृथ्वी पर सीधे रूप से पड़ने पर संभावित संतुलन को क्षति पहुंचने की संभावनाएं प्रबल बनती जा रही हैं। अब हमें प्रकृति के प्रतिकूल आचरण से जलवायु परिवर्तन के खतरों से सावधान होकर परिस्थिति के संतुलन की आवश्यकता है।

जिस पृथ्वी से हमारा जन्म से मृत्यु तक का सह संबंध है, उस पर करुणामय वृत्ति नहीं है। जो पेड़ अपने काटने वाले को भी छाया देता है, उसकी भी कुल्हाड़ी से हत्या अर्थात् हम पर्यावरण को असंतुलित करके निश्चय ही असनातनी एवं अवैदिक बनते जा रहे हैं, जिसमें हमारा भविष्य अंधकारमय परिलक्षित हो रहा है। यदि पृथ्वी पर सूर्य की बैंगनी किरणों के आगमन की गति तीव्र हो गई तो पुंडरीकात्मक संसार नहीं रह पाएगा। अतः समय रहते पर्यावरण को संतुलित रखने से ही मानव सुरक्षित रह सकेगा।

विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग,
गांधी स्मारक, पी.जी. कॉलेज, सुजननगर, जयनगर, मुरादाबाद

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