वेटलैंड यानी पर्यावरण की जीवनरेखा

30 Jan 2016
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विश्व आर्द्रभूमि दिवस, 2 फरवरी 2016 पर विशेष



. पर्यावरण में वेटलैंड एक ऐसी व्यवस्था है, जो धरती पर जलस्रोतों, पेड़–पौधों और जीव-जन्तुओं के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है तथा हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का एक बहुत जरूरी घटक भी है। पर्यावरण को बचाने के लिये जरूरी है कि हम अपने प्राकृतिक वेटलैंड को बचाएँ और सहेजें। वेटलैंड को सहेजने से ही हम पानी और परिन्दों को भी सहेज पाएँगे।

जैव विविधता के लिये तो वेटलैंड किसी वरदान की तरह है और प्रवासी पक्षियों के लिये भी ये उनकी पसन्दीदा सैरगाह या आश्रय स्थल की तरह होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वेटलैंड सहेजने के जरिए हम प्रकृति को ही सहेजने की बात करते हैं। अच्छी बात यह है कि अब इसकी तरफ लोगों का ध्यान भी तेजी से जा रहा है और कई जगह इस दिशा में अच्छे काम की शुरुआत भी हुई है।

वेटलैंड एरिया या आर्द्रभूमि क्षेत्र उस जगह को कहा जा सकता है, जो अस्थायी या स्थायी रूप से पानी से भरी रहे और धीरे–धीरे वह अपना खुद का एक स्वतंत्र पर्यावरणीय तंत्र विकसित कर लेता है।

बरसात के दिनों में ये वेटलैंड बरसाती पानी को व्यर्थ बह जाने से रोकते हैं और करोड़ो गैलन पानी को सहेजते हैं। ये पानी को धरती की रगों तक रिसाने तथा इसके जरिए भूजल भण्डार को बढ़ाने में अपना अहम योगदान भी करते हैं। इनके महत्त्व को देखते हुए कुछ स्थानों पर कृत्रिम रूप से भी इन्हें बनाया जाता है।

हमारी नदियों, जलस्रोतों और भूजल भण्डारों की तरह ही वेटलैंड या आमि भी धरती पर पानी के जलीय चक्र का अभिन्न हिस्सा है।

ये भूजल को रिचार्ज करते हैं। इनमें पानी भरे होने तथा पानी से सन्तृप्त होने के कारण इससे आसपास के जलस्रोतों को भी बड़ी मदद मिलती है। वे ज्यादा समय तक पानी दे पाते हैं और एक हद तक जलवायु परिवर्तन में भी मदद करते हैं।

जैव विविधता को समृद्ध करने में भी इनका बड़ा योगदान है। झीलों में जलीय और उसके आसपास दलदली जमीन में विभिन्न प्रकार के जीव–जन्तु तथा पेड़–पौधे का भी प्राकृतिक आवास होता है या वे यहाँ आश्रय लेते हैं।

वहीं ठंडे देशों से हर साल ठंड के मौसम में बड़ी संख्या में प्रवासी परिन्दे भी अपनी गुजर–बसर के लिये अन्य देशों के इन्ही वेटलैंड में शरण लेते हैं।

एक तरफ जहाँ जैव विविधता खतरे में है, जीव–जन्तुओं और पेड़–पौधों की कई प्रजातियाँ खत्म होने की कगार पर हैं, ऐसे समय में वेटलैंड की जरूरत साफ तौर पर समझी जा सकती है।

इसी महत्त्व के मद्देनजर 1971 में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर रामसर सम्मेलन में इन्हें सहेजने की तरफ सबसे पहले ध्यान केन्द्रित किया गया।

विश्व समुदाय की इस पहल का सभी देशों ने स्वागत किया और महत्त्वपूर्ण वेटलैंड को चिन्हित कर इनके लिये कुछ जरूरी नियामक तय किये गए। भारत ने भी इस कड़ी में अपने देश के महत्त्वपूर्ण 25 वेटलैंड को इसमें शामिल किया है।

लेकिन बीते 20 से 30 सालों में हमने देश भर में अपने वेटलैंड के प्रति जिस बेरुखी से उपेक्षित रवैया अपनाया, उसने कई जगह हमारी प्रकृति और पर्यावरण को खासा नुकसान पहुँचाया है।

दरअसल समूची प्रकृति का पूरा ताना-बाना एक तरह के पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर होता है। इस पारिस्थितिकी तंत्र में चीजें एक-दूसरे से बहुत गहरे तक जुड़ी रहती हैं। इसमें हम सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इसका एक भी धागा खींच देने से पूरा तंत्र ही उलझ जाता है।

भारत के लिये इसे बचना और भी जरूरी इसलिये हो जाता है कि हम तेजी से अपने प्राकृतिक वेटलैंड क्षेत्र को खोते या बर्बाद करते जा रहे हैं।

सन 2005 से अब तक हमने अपने करीब 38 प्रतिशत से भी ज्यादा वेटलैंड क्षेत्र को खत्म कर दिया है। यह एक भयानक आँकड़ा है और इसी गति से हम इन्हें खत्म करते रहे तो आने वाले दिनों के संकट से हमें कोई नहीं बचा सकता।

देश भर के झील क्षेत्रों और उनके संग्रहण क्षेत्रों पर इन कुछ सालों में सर्वाधिक अतिक्रमण हुए हैं। सरकारी कमजोर और लचर नीतियों की वजह से कई जगह अस्थायी ही नहीं बल्कि स्थायी अतिक्रमण भी हो चुके हैं। इनका प्रभाव वेटलैंड की सेहत पर पड़ता है।

क्षमता से कम पानी संग्रहित कर पाने से वेटलैंड समय से पहले ही सूखने लगते हैं। हमारे यहाँ यह समस्या अब आम हो गई है। आश्चर्य तो यह है कि अब कई वेटलैंड क्षेत्रों में गर्मी के मौसम से पहले ही पानी सूखने लगता है।

कई जगह तो जहाँ पहले प्रवासी पक्षी आते थे, अब पानी की कमी हो जाने से उन्होंने इससे किनारा कर लिया है।

खासतौर पर महानगरों और शहरों में तो अतिक्रमण हुआ ही है। कई जगह गाँव में किसानों ने भी अपने खेत बड़े कर लेने की गरज से इन्हें सिकुड़ा दिया है।

बीते सालों में अकबरपुर, ग्रेटर नोएडा में वेटलैंड की जमीन एक निजी रियल स्टेट कम्पनी को दिये जाने पर केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया गया था। तब तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन को राज्यसभा को आश्वस्त करना पड़ा था कि उन्होंने शिकायत मिलने पर केन्द्रीय दल वहाँ भेजा था।


सन 2005 से अब तक हमने अपने करीब 38 प्रतिशत से भी ज्यादा वेटलैंड क्षेत्र को खत्म कर दिया है। यह एक भयानक आँकड़ा है और इसी गति से हम इन्हें खत्म करते रहे तो आने वाले दिनों के संकट से हमें कोई नहीं बचा सकता। देश भर के झील क्षेत्रों और उनके संग्रहण क्षेत्रों पर इन कुछ सालों में सर्वाधिक अतिक्रमण हुए हैं। सरकारी कमजोर और लचर नीतियों की वजह से कई जगह अस्थायी ही नहीं बल्कि स्थायी अतिक्रमण भी हो चुके हैं। इनका प्रभाव वेटलैंड की सेहत पर पड़ता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि पर्यावरण मंजूरी में यह अन्तर्निहित है कि किसी भी तरह के निर्माण तथा संचालन चरण के लिये किसी भी वेटलैंड का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता और परियोजना क्षेत्र में आने वाले वेटलैंड का पुनरुद्धार किया जाना चाहिए।

वेटलैंड क्षेत्र में अतिक्रमण की दशा में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 5 में निर्माण करने वाले को शोकाज नोटिस भी दिया जा सकता है।

इसी तरह का एक मामला मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में भी 2013 में आया था। इसमें भोपाल के बड़े तालाब स्थित भोज वेटलैंड के डूब क्षेत्र में एक निजी अस्पताल को जमीन दिये जाने पर आपत्ति की गई थी।

भोपाल के ही एक संगठन की ओर से दायर याचिका में आरोप लगाया गया था कि बड़े ताल स्थित भोज वेटलैंड की डूब क्षेत्र में आने वाली करीब 32 एकड़ ज़मीन को राज्य सरकार ने पड़त और बंजर बताते हुए चिरायु अस्पताल और मेडिकल कॉलेज को आवंटित कर दी।

याचिका के साथ प्रस्तुत दस्तावेज़ों में बताया गया है कि यह जमीन अन्तरराष्ट्रीय रामसर क्न्वेशन में भोज वेटलैंड के रूप अधिसूचित की गई है और इसके आवंटन से पहले केन्द्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय से इसकी अनुमति लेना जरूरी है, जबकि अस्पताल प्रशासन ने बिना अनुमति के ही यहाँ निर्माण कार्य प्रारम्भ भी कर दिया और अस्पताल भवन का काम भी पूरा कर लिया गया।

दरअसल 2002 में मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने करीब 300 करोड़ रुपए खर्च कर भोपाल स्थित बड़े और छोटे तालाब को जोड़कर इसे भोज वेटलैंड के रूप में इसके समूचे संग्रहण क्षेत्र को संरक्षित किया था।

बताया जाता है कि भोपाल की बड़ी झील का संग्रहण क्षेत्र पहले करीब 31 वर्ग किमी तक फैला हुआ था लेकिन समय के साथ अब यह सिकुड़ कर करीब आधा ही रह गया है। इसे अन्तरराष्ट्रीय रामसर सम्मलेन की सूची में भी शामिल किया जा चुका है।

भारत सरकार ने वर्ष 2010 में वेटलैंड को सहेजने और उनके पारम्परिक तंत्र को यथावत बनाए रखने के उद्देश्य से कुछ महत्त्वपूर्ण कानून भी बनाए हैं। हालांकि इनके बाद भी वेटलैंड पर अतिक्रमण और उन्हें खत्म किये जाने का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है।

जानकार बताते हैं कि इन नियमों में स्थानीय भागीदारी नहीं होने से ये समुचित ढंग से प्रभावी साबित नहीं हो पा रहे हैं। इनमें कानून को अमल में लाने की जिम्मेवारी केन्द्र और राज्य सरकारों की ही है। इसमें स्थानीय नगरीय निकायों और ग्राम पंचायतों की कोई भूमिका नजर नहीं आती है।

इसी तरह इन वेटलैंड से जुड़े स्थानीय समाज की भी कहीं कोई भागीदारी नहीं है। जबकि ये अपने आसपास के समाज से गहरे तक जुड़े होते हैं।

जैसे मछली पकड़ने वाले, खेती करने वाले और अन्य कई तरह के काम-धन्धे करने वाले लोगों के लिये इनकी भूमिका भरण पोषण की होती है। स्थानीय भागीदारी के अभाव में कानून को जमीनी स्तर पर प्रभावी कर पाना मुश्किल साबित हो रहा है।

जल संकट से जूझते इस कठिन समय में अब वेटलैंड को सहेजने पर फोकस जरूरी हो गया है। हमें गम्भीरता से ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह सके। यदि अब भी हम सचेत होकर कुछ नहीं कर सके तो फिर बहुत देर हो जाएगी और हमारे पास करने और बचाने को कुछ भी नहीं रह जाएगा।

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