विज्ञान और कृषि का औद्योगिक रूप


देश में गन्ने पर आधारित चीनी उद्योग काफी विकसित दशा में है 1989-90 में 100 लाख टन से अधिक चीनी का उत्पादन करके भारत चीनी उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान पर आ गया है। गन्ने की वैज्ञानिक खेती की सफलता से न केवल चीनी उद्योग बल्कि गुड़ व खांडसारी उद्योग का तेजी से विकास हुआ है। इस उद्योग में लगभग 300 टन गुड़ तथा खांडसारी का उत्पादन होता है। इस उद्योग में लगभग 31 लाख लोगों को मौसमी रोजगार मिला हुआ है।

विज्ञान ही सम्भवतया मानव जाति का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है और कृषि कार्य प्राकृतिक पद्धतियों के खिलाफ मानव की महान चुनौती। विज्ञान ने मनुष्य को इस चुनौती का हल खोजने की शक्ति एवं सामर्थ्य दे दी है। विज्ञान के जरिए भारतीय कृषि के परम्परागत और भाग्यवादी स्वरूप के स्थान पर नया व्यावसायिक और औद्योगिक स्वरूप विकसित करने में काफी हद तक सफलता मिली है। कृषि प्रधान भारत ने दुनिया के प्रथम दस औद्योगिक देशों में स्थान बना लिया है।

उद्योगीकरण


कहना न होगा कि कृषि और उद्योग एक दूसरे के लिये सर्वोत्तम योगदान कर सकते हैं। विकास प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि कृषि-क्षेत्र बड़ी मात्रा में उद्योगों के लिये संसाधनों की आपूर्ति करे। अनेक विकसित देशों का अनुभव बताता है कि समृद्धि ने अधिक सीमा तक औद्योगीकरण मार्ग को सरल व तीव्रगामी बनाया है। अधिकांश विकास समस्याओं का रहस्य कृषि तथा उद्योग में उचित संतुलन बनाए रखने में छिपा हुआ है। कृषि के औद्योगिकीरण से कृषि के अस्थिर लाभों पर देश की अत्यधिक निर्भरता में कमी आती है, राष्ट्रीय जीवन के लिए प्रेरणा मिलती है तथा राष्ट्रीय आचरण का विकास होता है।

उत्पादन वृद्धि


वास्तव में उद्योगीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें महत्त्वपूर्ण उत्पादन व्यवस्था में क्रमिक परिवर्तन होते रहते हैं। यह उन आधारभूत परिवर्तनों को शामिल करता है जिनसे कृषि संगठन के यंत्रीकरण, नए उद्योग के निर्माण, नए बाजार के उत्पन्न होने और नए क्षेत्र के उद्योगीकरण ने उच्च उत्पादन क्षमता उत्पन्न की है।

उद्योगीकरण कृषि परिवहन और संचार के विकास में भी सहायक हो रहा है। देशी-विदेशी व्यापार का विकास बहुत हद तक उद्योगीकरण पर निर्भर है।

जब तक हमारे वैज्ञानिक कृषि को औद्योगिक स्वरूप नहीं दे पाए थे देश में प्रतिवर्ष औसतन 60 लाख टन खाद्यान्नों का आयात होता था। परन्तु आज भारत न केवल 88 करोड़ जनसंख्या के लिये खाद्यान्न आपूर्ति में आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़ रहा है बल्कि खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य कृषिगत उत्पादों का निर्यात करके बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भी अर्जित कर रहा है।

विज्ञान की जैव प्रौद्योगिकी शाखा से फसलों की किस्मों व उनकी उत्पादन क्षमता में उत्साहवर्धक सुधार हुए हैं। फसलों को रोगरोधी और कीटरोधी बनाने तथा अनुवांशिक रोगों से छुटकारा दिलाने में नित नूतन सफलताएँ हासिल की गयी हैं।

ज्यों-ज्यों विज्ञान पर आधारित कृषि औद्योगिक स्वरूप ग्रहण कर रही है त्यों-त्यों कृषि उत्पादन में वृद्धि का दौर चल रहा है। खाद्यान्नों व कपास की पैदावार 1950-51 की तुलना में 1992-93 में 2.5 से 3 गुनी तक बढ़ चुकी है। सकल सिंचित क्षेत्रफल जो 1950-51 में 2.26 करोड़ हेक्टेयर था, 1993-94 में 7.95 करोड़ हेक्टेयर हो गया। इसी आधार पर रासायनिक उर्वरकों का उपयोग जो 1950-51 में 66 हजार टन था वह 1993-94 में 147 लाख टन तक पहुँच गया।

कृषि यंत्र उद्योग:


कृषि के उद्योगीकरण की ही देनदारी है कि कृषि यंत्रीकरण की गहनता निरन्तर बढ़ रही है। जहाँ 1950 में विद्युत संचालित पम्प सेटों की संख्या 4700 थी वहाँ 1993-94 में वह बढ़कर 1 करोड़ से भी अधिक हो चुकी है। देश में 1960-61 में ट्रैक्टरों की संख्या 25,000 थी। वह फिलहाल लगभग 6 लाख होने का अनुमान है। यंत्रों द्वारा बड़े-बड़े फार्मों को जोतना-बोना, निकाई-गुड़ाई करना, समय पर खाद देना, सिंचाई करना, कीटनाशी दवायें छिड़कने का काम हो रहा है। अब एक उपकरण जो इस काम में शामिल हुआ है वह है- कम्प्यूटर। कम्प्यूटर न केवल इन बताए गए कार्यों में सहायता करता है बल्कि वह कृषि उत्पादों को डिब्बाबंद करने, मंडियों का चयन करने, मूल्य निर्धारण और यहाँ तक कि माल को ढोने के लिये मार्ग तय करने का कार्य भी करने लगा है। विज्ञान ने कृषि कार्यों में कम्प्यूटर का उपयोग करके उद्योगीकरण का नया आयाम जोड़ दिया है। कृषि यंत्रीकरण की बदौलत ही आज लगभग 400 हेक्टेयर भू-भाग में बहुफसलीकरण कार्यक्रम सफलता-पूर्वक संचालित किए जा रहे हैं जबकि 1965-66 के पूर्व इन कार्यक्रमों की प्रगति नगण्य थी।

हरित क्रांति के सफल प्रयासों से जहाँ एक दौर भारतीय कृषकों द्वारा अधिक उपज देने वाली फसलों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशी दवाइयों, आधुनिक उपकरणों एवं सिंचाई के नवीनतम साधनों को उपलब्ध कराया गया वहीं दूसरी ओर कृषिगत माल के भण्डारण, प्रसंस्करण एवं नियमन कार्यक्रमों का विस्तार करने के कार्यक्रम चल रहे हैं। इसके लिये वित्तीय संस्थानों की स्थापना औद्योगिक क्षेत्र की ही तरह जोड़ पकड़ने लगी है। एक ओर तो कृषि क्षेत्र उद्योगों के लिये कच्चा माल उपलब्ध कर रहा है तो दूसरी ओर उद्योग में से आगम प्राप्त कर रहा है।

स्वाधीनता प्राप्ति के पहले भारत में केवल 9 कृषि अनुसंधान संस्थान थे, जिनकी संख्या आज 45 है, 68 अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाएँ हैं सरकार ने 30 कृषि विश्वविद्यालय भी स्थापित किए हैं। इसके फलस्वरूप ही कृषि अनुसंधान शिक्षा और विकास की प्रभावोत्पादक संरचना काम कर रही है, जो कृषि को सार्थक औद्योगिक स्वरूप देती जा रही है। यूँ तो इस दिशा में बहुत से कार्य हुए हैं किन्तु उनमें उल्लेखनीय इस प्रकार हैं:-

कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा


वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद की विभिन्न प्रयोगशालाओं में कृषि विकास को ध्यान में रखते हुए अनेक अनुसंधान हुए हैं। धान्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान, मैसूर में परीक्षण करके ज्वार के भ्रूणपोष से एक प्रति कवक प्रोटीन पहचानी और शोधित की है। भूरे चावल से अच्छी गुणवत्ता का चावल प्राप्त करने के लिये एक उन्नत चावल मिल का ढाँचा विकसित किया गया है। इसी प्रयोगशाला में 50-50 कि.ग्रा. प्रति घंटे की दर से 400 रुपये की लागत पर दाल का छिलका उतारने की हस्तचालित मशीन तैयार की गई है।

तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन के तहत वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद की केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, मैसूर की इकाई ने सूरजमुखी के बीजों के संसाधन के लिये एक पायलट संयंत्र विकसित किया है। तीव्र गंध वाले सरसों के तेल के उत्पादन के लिये बिजली से चलने वाले धानी का निर्माण किया गया है। संस्थान ने 10 टिन तेल-पेरने की क्षमता का एक आधुनिक तेल-पेरक विकसित किया है।

इसी प्रकार खाद्य और अखाद्य कार्यों के लिये तिलहनों की पेराई ग्राम तेल उद्योग में की जाती है तेल धानी उद्योग से लगभग एक लाख टन तेल प्राप्त होता है। अनाजों और दलहनों के संसाधन-प्रसंस्करण उद्योग में लगभग एक लाख लोग लगे हुए हैं। कपास चलने वाले केवल खादी उद्योग से लगभग 400 करोड़ मीटर वस्त्र का निर्माण होता है। इसमें ऊनी और सिल्क वस्त्र शामिल है।

देश में गन्ने पर आधारित चीनी उद्योग काफी विकसित दशा में है 1989-90 में 100 लाख टन से अधिक चीनी का उत्पादन करके भारत चीनी उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान पर आ गया है। गन्ने की वैज्ञानिक खेती की सफलता से न केवल चीनी उद्योग बल्कि गुड़ व खांडसारी उद्योग का तेजी से विकास हुआ है। इस उद्योग में लगभग 300 टन गुड़ तथा खांडसारी का उत्पादन होता है। इस उद्योग में लगभग 31 लाख लोगों को मौसमी रोजगार मिला हुआ है।

कृृषि व्यर्थ और छीजन का सदुपयोग


इतना ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधानों की बदौलत कृषि व्यर्थ और छीजन का सदुपयोग औद्योगिक कार्यों के लिये किया जा रहा है। नारियल छिलका, मूंगफली छिलका, जूट चट्टी अलसी भूसी, इमली बीज, खोई, धान की भूसी से सक्रिय कार्बन निर्माण की प्रक्रियाएँ व्यावसायिक उपयोग में आ रही हैं। अलसी के तने, ज्वारों के तने, अरंडी के तेल, चावल और गेहूँ की भूसी औद्योगिक कार्यों में प्रयोग में लाए जा रहे हैं। चावल की भूसी से सीमेंट बनाया जा सकता है। चावल की भूसी से डिटरजेंट, साबुन, ग्लासफोम के निर्माण में काम आने वाले पदार्थ सोडियम सिलिकेट का निर्माण किया जा रहा है।

प्रयोगों से पता चलता है कि धान की पुआल को एकत्र करके छोटी या मध्यम दर्जे की थर्मल यूनिटों के जरिए ऊर्जा उत्पादन के काम में लाया जा सकता है। एक अध्ययन में पाया गया है कि ऊर्जा उत्पादन के लिये ईंधन के रूप में धान के पुआल कोयले की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से कहीं सस्ती पड़ती है।

इस प्रकार कृषि क्षेत्र के उद्योगीकरण से कृषि प्रगति दर में तेजी अनेक रूपों में हो रही है। कृषि को यांत्रिक और औद्योगिक स्वरूप देने में नए और बेहतर आदानों तथा उत्पादक वस्तुओं का निर्माण हो रहा है, जो प्रत्यक्ष रूप से कृषि उत्पादिता में वृद्धि करती हैं। कृषि के उद्योगीकरण से ही कृषि पदार्थों के बाजार बाजार में विस्तार हो रहा है। नकदी फसलों के अधिक विशिष्ट और दक्ष आधार पर उत्पादन को प्रोत्साहन मिल रहा है। कृषि परिसंस्करण संसाधन उद्योगों का विकास हो रहा है और ग्रामीण तथा नगरीय अर्थव्यवस्था के एकीकरण की दिशा में कदम बढ़ने लगे हैं।

जाहिर है कि वैज्ञानिक कृषि के औद्योगिकीकरण से नवीन कौशल, पूँजी निर्माण तथा तकनीकी नव क्रियाओं का प्रसार हुआ है। विज्ञान जहाँ कृषि के औद्योगीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वहाँ कृषि की भी औद्योगिक क्रांति में कम सहभागिता नहीं है।

डा. राधा मोहन श्रीवास्तव
अध्यक्ष, कृषि अर्थशास्त्र विभाग, नेशनल पोस्ट ग्रेजुएट काॅलेज, बड़हलगंज, गोरखपुर

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