विकास का मतलब

11 Sep 2015
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विकास का मतलब

तीसरी दुनिया में राजनीतिक क्रान्तियों की कोशिश में लगे हुए लोग परिवर्तन की बातें करते ही हैं। वे दावा करते हैं कि जो सुविधाएँ आज सम्पन्न आदमी को उपलब्ध हैं, उन्हें वे सब लोगों तक पहुँचा देंगे। यह एक बड़ी भ्रामक बात है। ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। रूढ़ तरीकों की जगह नए विकल्प सामने रखे जाने पर कभी-कभी ये क्रान्तिकारी उलझन में पड़ जाते हैं। क्या बाँस की खपच्चियों को लादे हुए वियतनाम का साइकिल सवार पैदावार के लिहाज से बहुत उन्नत मशीनरी को पछाड़ नहीं रहा है?

अब यह माँग बढ़ रही है कि ‘अमीर देश’ शस्त्र आदि पर खर्च करना रोककर पिछड़े देशों के विकास पर खर्च करें। यह माँग ठीक नहीं है। लोगों को विदेशी मदद के प्रति सावधान रहना चाहिए। समझना चाहिए कि एक अमेरिकी ट्रक एक अमेरिकी टैंक से ज्यादा नुकसान पहुँचा सकता है।

गरीब माने गए देशों में लोग तो बढ़ते जाते हैं, मगर उनकी आमदनी घटती जाती है और इससे उनकी चीजें खरीदने की शक्ति तथा सम्पन्न औद्योगिक देशों के माल की पिछड़े देशों में होने वाली खपत घट चली है। वे इसलिये वहाँ की गरीबी को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, करेंगे।

अगर एक बार ये देश पश्चिमी देशों के साज-सामान या तकनीकी औजारों का बाजार बन गए तो उन वस्तुओं की माँग और उनकी पूर्ति के बीच का फर्क निरन्तर बढ़ता जाएगा और सम्पन्न देश उससे लाभ उठाएँगे।

दक्षिण अमेरिका में हजारों लोगों में से एक आदमी के पास मोटर गाड़ी खरीदने, दिल का ऑपरेशन करवाने या उच्च शिक्षा पाने योग्य साधन हैं। मगर अभी वहाँ के 999 लोगों को ये ‘सुविधाएँ’ अनिवार्य नहीं लगतीं। वहाँ ज्यादातर लोगों को अभी इतना सम्पन्न होने में पीढि़याँ लग जाएँगी। विकसित देशों ने जिन उपायों से ऐसी सम्पन्नता पाई है, वे उनके मन पर इतने हावी हो गए हैं कि उपायों से होने वाले नुकसान या उनकी निरर्थकता की ओर वे ध्यान ही नहीं दे पाते।

वे मोटरगाड़ी, हवाई-जहाज, स्वास्थ्य के आधुनिक तौर-तरीकों और जटिल शिक्षा पद्धति के अधिकाधिक बढ़ते चले जाने को ऐसी नियामतें समझते हैं कि वे इनकी नित नई बाढ़ कैसे हो, यही सोचते रहते हैं।

ब्राजील में बनाई गई हरेक मोटरगाड़ी पचास लोगों का बस से आना-जाना समाप्त कर देती है। चिली के एक अर्थशास्त्री के मुताबिक दक्षिण अमेरिका में चिकित्सकों और अस्पतालों पर खर्च होने वाला हर डॉलर 100 लोगों की जान जाने के लिये जिम्मेदार होता है। भला कैसे? अगर वही डॉलर पीने का साफ पानी मुहैया करने पर खर्च किया जाये तो ऐसे सौ लोगों की जान बचाई जा सकती है, जो साफ पानी न मिलने के कारण रोगों के शिकार होकर मर जाते हैं।

इसी तरह स्कूल पर खर्च हुए हर डॉलर का मतलब बहुत से लोगों की चिन्ता किये बिना कुछ लोगों को सुविधाएँ देना है। यह शिक्षा-पद्धति बहुत से लोगों में हीनता की भावना भर देती है। जो ज्यादा नहीं पढ़ पाते, वे सोचते हैं कि ज्यादा पढ़-लिख जाने वाले को ही शक्ति, धन और सम्मान पाने का अधिकार प्राप्त होता है।

फैक्टरी, अस्पताल, सरकार, स्कूल, खबरों और मनोरंजन के माध्यम- अखबार, रेडियो, टेलीविजन आदि, बन्धे-बन्धाए ढंग से विभिन्न जरूरतों को पूरा करने के साधन माने जाते हैं; और अमीर देश ऐसे ही उपकरणों के विस्तार को विकास समझते हैं। फिर हम भी इन्हीं बातों को विकास मानने लगते हैं।

हमारे जैसे देशों के लोगों, किसान के मन में लम्बी सड़कों पर बहुत तेज चलने वाली चार एक्सल वाली गाडि़यों को खरीदने का लालच पेश किया जा रहा है। फिर इन आरामदेह गाडि़यों के साल-दर-साल नए मॉडल भी निकाले जाएँगे।

वहाँ के लोगों को इनकी कोई जरूरत नहीं है; मामूली रफ्तार से चलने वाली कम कीमत की औसत गाड़ी उनके लिये काफी है। इसी तरह दक्षिण अमेरिका, एशिया के अधिकांश देशों में ऐसे साधारण डॉक्टरों से काम चल सकता है, जिनके लिये एम.डी. जैसी महंगी पढ़ाई पढ़ना, करना कतई जरूरी नहीं है।

लातीनी अमेरिकी विश्वविद्यालय हर साल ऐसे विशेषज्ञ तैयार करने वाले नए-नए मेडिकल कॉलेज खोलते हैं। इनसे निकलने वाले डॉक्टर या तो लम्बी-लम्बी फीस लेने वाले व्यवसायी बन जाते हैं या फिर किसी बड़े अस्पताल में बड़े से पद, बड़ा-सा वेतन, भारी-भरकम फीस पर चले जाते हैं या फिर अधिक तेज और घातक दवाइयों को खोजने या बेचने वाले बन बैठे हैं; इसके बदले आज ज्यादा जरूरत तो प्रशिक्षित नर्सों और साधारण डॉक्टरों की है।

स्वास्थ्य सम्बन्धी औजारों में निरन्तर तकनीकी सुधार नित नए यंत्रों से अधिक लाभ उपभोक्ता या कहें बीमार के बदले उन्हें बनाने वाले को होता है। इसी तरह खेती को भी देखिए। पैदावार का ढाँचा जितना जटिल हो, बड़े उत्पादक के लिये पुराने उपकरणों की जगह नए उपकरण बाजार में लाना उतना सहज होता है। वे उपभोक्ताओं का ध्यान हर नए मामूली सुधार की ओर खींचते हैं और इन सुधारों के दोष उनके ध्यान में नहीं आने देते।

कोई नहीं सोचता कि इन सुधारों का परिणाम ऊँचे दाम, कम टिकाऊपन, सर्वसाधारण उपयोगिता में कमी, मरम्मत की ऊँची दर आदि होता है। लगता है, दुनिया एक अंधी गली की तरफ बढ़ रही है। हम दो दिशाओं से, दो रास्तों से होकर उस ओर जा रहे हैं। ये दो रास्ते हैं- फाजिल जनसंख्या और फाजिल चीजों की बढ़ोत्तरी। पहली बात का, बढ़ती जनसंख्या का बड़ा शोर मचाया जाता है; लेकिन दूसरी को नजरअन्दाज किया जाता है।

बाजार में एक ही चीज के कई नमूने फेंककर उपभोक्ताओं में स्पर्धा और नकली किस्म का एक सन्तोष पैदा करने की कोशिश की जाती है। जनसंख्या में विस्फोटक बढ़ोत्तरी नए-नए खाद्य-पदार्थों से लेकर गर्भ-निरोध तक के तमाम उपकरणों के लिये उपभोक्ता जुटाती है। हमारी कुंठित कल्पना-शक्ति को आज तैयार-शुदा हलों के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता।

तीसरी दुनिया के अधिकतर देशों में जनसंख्या बढ़ती जाती है। आबादी में मध्यमवर्ग के लोग भी बढ़ते हैं और उनके ख्याल से उनकी सुख-सुविधा की चीजों का उत्पादन भी बढ़ाया जाता है। इस वर्ग के और साधारण जनता के बीच का फर्क भी तेजी से बढ़ता चला जाता है। लेकिन ज्यादातर लोगों के भोजन, चिकित्सा, उपयुक्त काम तथा सुरक्षा आदि की सुविधाएँ पहले से भी कम हो जाती हैं।

यह परिस्थिति कुछ अंशों में उपभोग के ध्रुवीकरण और कुछ हद तक सम्मिलित परिवार और पुरानी संस्कृति के विघटन से हुई है। जो लोग सन् 1969 में भूख, अभाव और बीमारी से मरे, उनकी संख्या गिनती के लिहाज से ही नहीं जनसंख्या के अनुपात के लिहाज से भी दूसरे महायुद्ध के दौरान मरने वालों से ज्यादा रही है। इससे यह साफ हो जाता है कि दुनिया आगे बढ़ रही है कि पीछे जा रही है।

पिछड़ापन आखिर कोई आर्थिक चीज ही तो नहीं है। वह एक मनःस्थिति का पिछड़ापन है, जो सामान्य जरूरतों के तयशुदा हलों को नए ब्रांडों में पेश कर देने से पैदा होता है। चूँकि ये हल बहुसंख्या की पहुँच के हमेशा बाहर रहते हैं; मनःस्थिति का यह पिछड़ापन उन देशों में भी बढ़ रहा है, जहाँ दूसरे मानदंडों से शिक्षा, निवास, भोजन में कैलोरी की मात्रा, कार या अस्पतालों में लगातार वृद्धि हो रही है।

इन देशों में शासन उस उत्पादन को बढ़ाता है, जो सम्पन्न लोगों की जरूरतों के ख्याल से किया जाता है। इस तरह माँग पर एकाधिकार की स्थिति बन जाती है और तब बहुसंख्यकों की जरूरतों को कभी पूरा किया ही नहीं जा सकता।

पिछड़ेपन का मतलब है, पहले से तयशुदा हलों के आगे घुटने टेक देना। सभी कौमों, देशों और विचारधाराओं के लोग आज अपने यहाँ तरह-तरह के कारखाने, अस्पताल और बड़े-बड़े विद्यालय, विश्वविद्यालय स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। यह सब पश्चिमी देशों, विशेषकर उत्तरी अमेरिका का बस एक भद्दा अनुकरण है।

तीसरी दुनिया की आधुनिक समझी जाने वाली संस्थाएँ, समता के उन लक्ष्यों के लिहाज से एकदम निकम्मी हैं, जिन्हें लेकर वे बनी हैं। इन देशों के अधिसंख्यक लोगों का सामाजिक चिन्तन कुंठित हो जाये, इसके पहले अमीर देशों के बदले गरीब देशों में इस प्रकार की संस्थाओं को लेकर कुछ नया कर सकने की अधिक सम्भावना है।

तमाम देशों में संस्थागत यह पिछड़ापन स्थायी होता जा रहा है। इससे पहले कि यह सब जगह स्थायी हो जाये, संस्थाओं को सुधारने का काम, क्रान्ति शुरू की जानी चाहिए। लगातार बढ़ते जा रहे पिछड़ेपन का सही जवाब हो सकता है कि भिन्न पूँजीगत ढाँचे वाले देशों में हम बुनियादी जरूरतें पूरी करने को अपनी योजना का लक्ष्य बनाएँ।

कुछ प्रचलित संस्थाओं, सेवाओं और वस्तुओं के विकल्प आसानी से सुझाए जा सकते हैं। जैसे कारों के विकल्प में ज्यादा बसें बनाई जाएँ। धूल भरी जमीन पर तेज ट्रकों का विकल्प है धीरे चलने वाले वाहन। खर्चीली शल्य-चिकित्सा की जगह साफ पानी और इसी तरह चिकित्सा विशेषज्ञों के बदले सामान्य चिकित्सा और परिचर्या के प्रशिक्षण पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए।

शहरों में हर घर में महंगे दस्तरखाने, कटलरी और दूसरे साज-सामन वाले रसोईघरों के बदले सस्ते सामूहिक भोजन गृहों का निर्माण किया जाये। वाहनों की जगह शहर में पैदल चलना आम हो सके। इस ख्याल से शहरों को बसाया ही इस तरह जाये कि आवागमन ज्यादातर पैदल चलकर आसानी से हो सके।

इमारतों के ख्याल से कम कीमत के पूर्व निर्मित ढाँचों का इस्तेमाल किया जाये। इन ढाँचों से खुद मकान बना लेना साल-भर के प्रशिक्षण के बाद सध सकता है। शिक्षा में इस तरह के विकल्प सुझाना थोड़ा मुश्किल काम है; क्योंकि वर्तमान शिक्षा के तमाम स्रोतों को ही सुखा डाला है। अब तक शिक्षा-संस्था का अर्थ विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में हाजिरी माना जाता है।

साल भर में बच्चे की शाला में 1000 घंटे उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। शिक्षा संस्थाओं के स्वरूप की यह कल्पना बदली जानी चाहिए। बच्चों के साथ प्रौढ़ों को भी शिक्षा की दृष्टि से महत्त्व दिया जाना चाहिए। तीस साल से नीचे के सभी लोगों के लिये साल में एक महीने शिक्षा की जा सकती है।

सभी देशों में अन्तरराष्ट्रीय स्तर के शिक्षा-साधन मुहैया होने चाहिए, क्योंकि शिक्षित होना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। शिक्षा के लिये उपलब्ध सार्वजनिक आर्थिक स्रोतों की एक निश्चित राशि पर स्कूल जाने की उम्र वालेहर बच्चे का अधिकार है। अगर वह किसी कारण से सात या आठ साल की उम्र में शिक्षा-संस्था में नहीं जा पाता तो दस साल का हो जाने पर भी उसे इसकी सुविधा मिल सकनी चाहिए।

समाज में उपयोग किया जाने वाला तैयार माल और रूढ़ तथा जड़ संवेदनहीन बनती, बढ़ती जा रही संस्थाओं केविकल्पों की सम्भावनाओं पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों को एकाग्रता से विचार करने की जरूरत है।

विकल्प की खोज मुश्किल इसलिये होती है कि सोचते समय हमारे दिमाग पर मौजूदा ढाँचा छाया रहता है। हम उसी को सामने रखकर अपनी जरूरतों को समझने की कोशिश करते हैं, ठीक विकल्प की खोज न वे लोगकर सकते हैं जो इन संस्थाओं के अंग हैं और न वह उस पैसे से की जा सकती है, जिसे ये संस्थाएँ मुहैया कराती हैं।

अगर गरीब देशों को जिन्दा रहना है तो उन्हें हर चीज के तयशुदा हलों के बुनियादी विकल्प खोजने के लिये प्रोत्साहित करना होगा और यह भी ध्यान में रखना होगा कि तीसरी दुनिया के पास पूँजी की सख्त कमी है। दिक्कतें स्पष्ट हैं।

विकल्पों की खोज करने वाले व्यक्ति को पहले तो ऐसे हर हल को जाँचना-परखना पड़ेगा, जिसे साधारणतया हमने हल मान लिया है। दूसरे, उसे शक्ति-सम्पन्न लोगों के तात्कालिक स्वार्थों के विरुद्ध फैसला लेने की हिम्मत दिखानी पड़ेगी और सबसे बड़ी बात यह है कि उसे ऐसी दुनिया में अपने आपको टिकाकर भी रखना होगा, जिसे वह बुनियादी तौर पर बदल डालना चाहता है।

तीसरी दुनिया में राजनीतिक क्रान्तियों की कोशिश में लगे हुए लोग परिवर्तन की बातें करते ही हैं। वे दावा करते हैं कि जो सुविधाएँ आज सम्पन्न आदमी को उपलब्ध हैं, उन्हें वे सब लोगों तक पहुँचा देंगे। यह एक बड़ी भ्रामक बात है। ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। रूढ़ तरीकों की जगह नए विकल्प सामने रखे जाने पर कभी-कभी ये क्रान्तिकारी उलझन में पड़ जाते हैं।

क्या बाँस की खपच्चियों को लादे हुए वियतनाम का साइकिल सवार पैदावार के लिहाज से बहुत उन्नत मशीनरी को पछाड़ नहीं रहा है? बढ़ते हुए पिछड़ेपन की संकटपूर्ण दिशा को बदलने का एक ही तरीका हैः हम तयशुदा हलों को हास्यास्पद मानना सीख जायें! तभी हम उन माँगों को, इच्छाओं को ही बदल सकेंगे जो हम पर अनिवार्य कहकर लादी जा रही हैं।

सन् 1975 में दिये गए एक भाषण के अंश
रूपान्तर : बनवारी

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