विकास का पर्यावरणीय आकलन

असल में विकसित और अधिकांश विकासशील देशों के विकास का ढांचा ही असंतुलित है जिसे पृथ्वी बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। इसका नतीजा हाल ही के वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देखने को मिला है। मनुष्य यह भूल गया है कि पृथ्वी, पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं का भी घर है, केवल उसी की बपौती नहीं। इसलिए विकास के साथ पर्यावरण पर भी ध्यान रहे।

पिछले दिनों पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने दावा किया कि यदि आर्थिक विकास पर पारिस्थितिकीय प्रभाव का अध्ययन किया जाए तो देश की विकास दर 9 प्रतिशत के बजाय 6 प्रतिशत रह जाएगी। उनके मत में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर में से 3 प्रतिशत की प्राकृतिक संसाधनों की हानि, जैविक विभिन्नता का क्षरण और पारिस्थितिकीय अवनति को कम किया जाना चाहिए। मौसम परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन के अनुसार हरित सकल घरेलू उत्पाद पर इस प्रकार की क्षति के संबंध में किया गया अध्ययन प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग एवं उनके प्रभावों को जानने में मददगार होगा। दूसरे शब्दों में राष्ट्रीय आय में से प्रदूषित संसाधनों या क्षतिग्रस्त पर्यावरण और जैविक विभिन्नता में हुए नुकसान की पुनः प्राप्ति की लागत घटा दी जानी चाहिए।

यद्यपि बात अजीब-सी लगती है लेकिन सच है कि यदि कोई नदी में प्लास्टिक बैग फेंक रहा है अथवा किसी वृक्ष या उसकी डाली काट रहा है तो वास्तव में वह देश का सकल घरेलू उत्पाद कम कर रहा है। चीन, अमेरिका, यूरोप और भारत समेत अनेक देशों में अब यह अवधारणा जड़ जमा चुकी है कि शुद्ध राष्ट्रीय आय प्राप्त करने के लिए सकल आय में जंगल, भूगर्भ का जल स्तर गिरने, भूमि क्षरण आदि की वजह से हुई क्षति को घटा दिया जाना चाहिए ताकि मुल्क की वास्तविक आमदनी का पता लग सके।

वर्ष भर में हुए प्राकृतिक संपदा के क्षय की क्षतिपूर्ति करने की लागत सकल राष्ट्रीय आय में से घटाने के बाद यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन तथा पूंजीगत संपदा हस्तांतरित हो सके ताकि वह टिकाऊ हो। अनेक यूरोपीय देशों ने प्राकृतिक संसाधनों का सांख्यिकी आधार तैयार कर लिया है लेकिन भारत में इसकी शुरुआत 2003 में ही की गई और आठ अग्रिम परियोजनाओं को हाथ में लिया गया लेकिन पर्यावरणीय ऑडिट का काम गंभीरता से नहीं लिया गया।

असल में विकसित और अधिकांश विकासशील देशों के विकास का ढांचा ही असंतुलित है जिसे पृथ्वी बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। इसका नतीजा हाल ही के वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देखने को मिला है। मनुष्य यह भूल गया है कि पृथ्वी, पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं का भी घर है, केवल उसी की बपौती नहीं। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज (आरपीसीसी) द्वारा कुछ दिन पूर्व ग्लोबल वार्मिंग के संदर्भ में जो रिपोर्ट जारी की गई उसके आधार पर भारत में ग्लेशियर के तेजी से पिघलने, समुद्र तल की ऊंचाई बढ़ने, अतिवृष्टि आदि जलवायु परिवर्तन के रूप में परिलक्षित हो रहे हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि धरती तपने (ग्लोबल वार्मिंग) का यह क्रम नहीं रुक पाया तो 21वीं सदी के अंत तक समुद्र तल की ऊंचाई बढ़ेगी और भारत के पूर्वी तट में स्थित सुंदरवन उसकी चपेट में आ सकता है। रिपोर्ट ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से पड़ने वाले प्रभावों से अवगत नहीं करा रही है बल्कि यह भी संकेत दे रही है कि इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं।

पिछले दिनों चीन के प्रधानमंत्री वेन जिया बाओ ने बीजिंग में नेशनल पीपुल्स कांग्रेस को संबोधित करते हुए तेजी से हो रहे विकास के कारण पर्यावरण पर पड़ रहे घातक प्रभावों की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने नीतिगत घोषणा करते हुए कहा कि अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले और ऊर्जा का ज्यादा उपयोग करने वाले उद्योगों को दिए जा रहे कर्ज को कड़ाई से सीमित किया जाएगा। उनके अनुसार चीन में 10 प्रतिशत नदियां विषैले पदार्थों से पट गई हैं। करीब 30 करोड़ आदमियों के लिए शुद्ध पेय जल उपलब्ध नहीं है।

विकास की दर तेजी से बढ़ाना तो आसान है लेकिन उसकी पर्यावरणीय कीमत क्या होगी यह मुख्य मुद्दा है। इन संदर्भों में चीन में हरित सकल घरेलू उत्पाद (ग्रीन हाउस जीडीपी) की बात शुरू हो गई है। जर्मनी में तो पर्यावरण के संरक्षण के लिए ग्रीन पार्टी कार्यरत है जिसका मुख्य तर्क है कि सकल घरेलू उत्पाद में से पर्यावरण को हुए नुकसान को घटाकर वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद निकाली जानी चाहिए। यूरोपीय संघ के 13 देशों में पर्यावरणीय संरक्षण की दिशा में जैविक ईंधन के विकास और उपयोग की होड़ लगी हुई है। उत्पादन के महत्वाकांक्षी लक्ष्य पाने के लिए सब्सिडी भी दी जा रही है। यद्यपि अमेरिका शुरू से ही धरती के तपने और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने के प्रति उदासीन रहा है लेकिन अब वह भी जैविक ऊर्जा के उत्पादन और उपयोग के प्रति गंभीर है। कुछ दिन पूर्व डेमोक्रेटिक पार्टी के कुछ सांसदों ने 15 अरब डॉलर की ऊर्जा योजना प्रस्तुत की जिसके अनुसार देश भर में शक्कर, अनाज, पाम ऑयल, लकड़ी के टुकड़ों, घास-फूस आदि से तैयार किए गए जैविक ऊर्जा के माध्यम से इथेनॉल के सर्विस स्टेशन कायम किए जाएंगे।

दरअसल, मुख्य समस्या यह है कि सकल घरेलू उत्पाद में से पर्यावरण के नुकसान को घटाने के मानक कैसे तैयार किए जाएं। उत्पादन प्रक्रिया में न सिर्फ मानव श्रम और पूंजी का ह्रास होता है बल्कि पर्यावरण में ह्रास, जैव-तंत्रों का असंतुलन तथा प्राकृतिक संसाधनों का क्षय भी होता है। इसलिए यह जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों के संदर्भ में आय की समयोचित अवधारणा विकसित की जाए। राष्ट्रीय आय के लेखे-जोखे का ऐसा ढांचा विकसित करने का प्रयास किया जाए, जिसमें उत्पादन प्रक्रिया और प्राकृतिक संसाधनों की खपत के बीच सह-संबंध स्थापित हो सके।

इस प्रकार के सही आकलन के लिए दो प्रकार की पूर्व तैयारियाँ जरूरी हैं। पहली, राष्ट्रीय संसाधनों का सूचना आधार (डाटा बेस) तैयार करना होगा। दूसरी, प्रदूषित प्राकृतिक संपदा के स्वच्छीकरण की लागत का आकलन करना होगा। भारत में यह अभ्यास इसलिए भी जरूरी है कि प्राकृतिक संसाधनों का भंडार सलामत रहे और भावी आमदनी पर प्रतिकूल असर न पड़े। क्षय की भरपाई के उक्त क्रियाकलापों पर हुआ खर्च पूंजीगत खपत में जोड़ा जा सकता है और प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री से हुई आमदनी में से निकाला जा सकता है। इस प्रकार उक्त संसाधनों पर हुआ मूल्य परिवर्धन मूल्य ह्रास का भी आकलन कर सकेगा लेकिन इस अभ्यास की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे करने में कौन-सा तरीका अपनाया जाता है। अब आवश्यकता इस बात की है कि केवल विकास दर पर चर्चा नहीं करते हुए इसे पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों और इनके प्रति जागरूकता संबंधी अभियान के विषय में राष्ट्रीय स्तर पर कोई कार्य योजना तैयार की जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसका खामियाजा अंततः हमें ही भुगतना होगा, इसलिए यह जल्दी किया जाना जरूरी है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)

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