विकास के नाम पर पिंडरगंगा घाटी की लूट

10 Aug 2012
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विकास के नाम पर भारत में हर जगह सरकारी जोर जबरदस्ती जारी है। पतित पावनी गंगा को मारने में कोई कसर नहीं छोड़ा जा रहा है। कहीं बांध बनाकर तो कहीं सीवर का गंदा पानी डालकर। इसी कड़ी में गंगा की सहायक नदी पिंडरगंगा भी है। पिंडरगंगा पर बांध बगैर पर्यावरणीय जनसुनवाई के ही बनाया जा रहा है। एक तरफ जल, जंगल और जमीन की हालत दिनों-दिन बद से बदतर हो रही है, वहीं दूसरी तरफ उत्तराखंड में पिंडरगंगा घाटी में देवसारी जल विद्युत परियोजना के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है। भागीरथी की तरह पिंडरगंगा का अस्तित्व भी खतरे में है। पिंडरगंगा पर बन रहे बांध का जायजा ले रहे हैं शशि शेखर।

उत्तराखंड में एक के बाद एक बन रहे बांधों की वजह से हालत यह है कि राज्य में आपदा प्रभावितों को बसाने के लिए भूमि नहीं है। टिहरी बांध से हो रहे नए विस्थापन के लिए भूमि का सवाल सामने खड़ा है। राज्य में खेती की मात्र 13 प्रतिशत भूमि बच रही है। स्थानीय आवश्यकताओं के लिए वन कटान पर पाबंदी है, मगर दूसरी तरफ बांधों में हजारों हेक्टेयर भूमि दी जा रही है।

पिंडरगंगा घाटी, जिला चमोली, उत्तराखंड में प्रस्तावित देवसारी जल विद्युत परियोजना के विरोध में वहां की जनता का आंदोलन जारी है। गंगा की सहायक नदी पिंडरगंगा पर बांध बनाकर उसे खतरे में डालने की कोशिशों का विरोध जारी है। इस परियोजना की पर्यावरणीय जन सुनवाई में भी प्रभावित लोगों को बोलने का मौका नहीं मिला। आंदोलनकारी इस परियोजना में प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की भूमिका पर भी सवाल उठा रहे हैं। प्रभावित लोगों ने 3 अप्रैल, 2011 को बांध के विरोध में अपनी एकजुटता दिखाई। जब उन्होंने 2011 में सुरंग टेस्टिंग का काम रोका तो पुलिस के बल पर काम कराने की कोशिश की गई। बांध बनाने वाली कंपनी और सरकार यह काम किसी भी तरह जारी रखना चाहती है। भले ही इसके लिए कोई भी कदम क्यों न उठाना पड़े। नतीजतन, सरकार अब भूमि अधिग्रहण का सहारा ले रही है, जिसका पूरी घाटी में जबरदस्त विरोध है। वहां के लोगों ने इस कदम का विरोध करने का फैसला कर लिया है।

22 मई को बांध के प्रस्तावित डूब क्षेत्र देवाल में रैली और पुतला दहन इसी कड़ी का एक प्रारंभिक कार्यक्रम था। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ गांव-गांव में सत्याग्रह की शुरुआत हो चुकी है। विकास के नाम पर सरकारी जोर-जबरदस्ती का खेल देश के हर हिस्से में जारी है, महाराष्ट्र से लेकर असम और तमिलनाडु से लेकर उत्तराखंड तक। विकास के नाम पर एक तरफ आम आदमी तो दूसरी तरफ जल, जंगल और जमीन की हालत दिनोंदिन बदहाल हो रही है। उत्तराखंड में पिंडरगंगा घाटी में देवसारी जल विद्युत परियोजना के लिए जहां जबरन भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है, वहीं भागीरथी की तरह पिंडरगंगा का अस्तित्व भी खतरे में है। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ सत्याग्रह के अंतर्गत 14 जून को सैकड़ों की संख्या में लोगों ने विभिन्न गांवों से कूच कर तहसील थराली का घेराव किया, जहां भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया के लिए भू-अध्यापति अधिकारी आए थे। डटे रहेंगे, नहीं हटेंगे-नहीं हटेंगे, नहीं हटेंगे, बांध कंपनी वापस जाओ, भू-अध्यापति अधिकारी वापस जाओ, केंद्र सरकार होश में आओ, राज्य सरकार होश में आओ आदि नारों के साथ पिंडरगंगा घाटी के गांवों से मजदूर, किसान, महिलाएं, पुजारी एवं व्यापारी थराली पुल से तहसील पहुंचे। उनके बैनर पर लिखा था, पिंडर को अविरल बहने दो-हमें सुरक्षित रहने दो।

आंदोलनकारियों का कहना है कि वे उनकी धरती छीनने की कोशिशें नाकाम कर देंगे। सरकार विकास के नाम पर उनकी घाटी को बर्बाद नहीं कर सकती। बाद में उन्होंने भू-अध्यापति अधिकारी के प्रतिनिधि को एक ज्ञापन भी दिया, जिसमें मुख्य रूप से कहा गया है कि भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा 17 के अंतर्गत उनकी भूमि का अधिग्रहण होना गैर वाजिब है। देवसारी जल विद्युत परियोजना 252 मेगावाट को लोकहित का प्रयोजन बताना गैर कानूनी है। इस परियोजना से लोक अहित होगा। पिंडर गंगा, जिसकी माता के रूप में पूजा होती है, उसे बहती नदी के स्थान पर बहाव रहित तालाबों एवं सुरंगों में बदला जा रहा है। इससे गंगा के पवित्र जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाएगी और यह उनकी आस्था पर हमला भी है। आंदोलनकारियों का मानना है कि इस परियोजना से स्थानीय समाज पर तमाम विपरीत आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय प्रभाव पड़ेंगे।

मसलन, तापमान में कमी से रोग बढ़ना, भूमि के धसान से मकानों का क्षतिग्रस्त होना, दलदल में मवेशियों का फंसना, जंगल की डूब भूमि से मिलने वाले ईंधन, चरान, चुगान आदि से वंचित होना, खेती एवं पशुपालन से वंचित होकर असहाय जीवन जीने के लिए मजबूर होना और बालू एवं मछली व्यवसायियों का बेरोजगार होना आदि। माटु जन संगठन इस परियोजना के विरोध में चल रहे आंदोलन की अगुवाई कर रहा है। इस संगठन के मुताबिक, उत्तराखंड का स्थायी विकास स्थानीय स्तर पर विद्युत उत्पादन और जन आधारित स्थानीय पर्यटन के आधार पर ही संभव है। आज उत्तराखंड की हालत यह है कि राज्य में आपदा प्रभावितों को बसाने के लिए भूमि नहीं है।

टिहरी बांध से हो रहे नए विस्थापन के लिए भूमि का सवाल सामने खड़ा है। राज्य में खेती की मात्र 13 प्रतिशत भूमि बच रही है। स्थानीय आवश्यकताओं के लिए वन कटान पर पाबंदी है, मगर दूसरी तरफ बांधों में हजारों हेक्टेयर भूमि दी जा रही है। संगठन का कहना है कि वह जल विद्युत परियोजनाओं, बड़े बांधों, ऊर्जा प्रदेश या पर्यटन प्रदेश के विरोध में नहीं है, लेकिन वह चाहता है कि सरकार आज तक के बांधों पर श्वेत पत्र जारी करे, ताकि पर्यावरण नुकसान एवं विस्थापन का सही आंकलन हो, सही लागत एवं बांधों की समस्याएं झेलने वालों की स्थिति का अंदाजा लग सके। इसके अलावा बांधों की पर्यावरण एवं वन स्वीकृतियों का कितना पालन हुआ, कितनी कृषि एवं वन भूमि का स्थायी नुकसान हुआ और बांध से उत्तराखंड की जल समस्या का कितना समाधान हुआ, यह सब भी इस श्वेत पत्र में होना चाहिए।

आंदोलनकारियों की मांगे


• स्थानीय ग्राम स्तर पर युवाओं को तकनीकी रूप से प्रशिक्षित किया जाए, ताकि वे सौर, जल, पवन और जैविक संसाधनों के आधार पर ऊर्जा का निर्माण कर सकें। गांव में बिजली की खपत गांव के उत्पादन से पूरी हो सकती है।
• इन सब कार्यों के लिए विशेष हरित कोष बनाया जाए, जिसमें केंद्र एवं राज्य सरकार सहयोग करें।
• इसके लिए विशेष प्रशिक्षण केंद्र, ब्लॉक खोले जाएं।
• ग्राम समिति द्वारा इसका संचालन हो।
• जो लघु जल विद्युत परियोजनाएं राज्य में बंद पड़ी हैं, वे शीघ्र शुरू की जाएं।

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