विकास के नाम पर पर्यावरण का बंटाधार

यहां हमें स्पष्ट समझना चाहिए कि लोकतंत्र और दक्षता की इस लड़ाई में दक्षता ही विजयी होगी। सैन्य बल लगाए जा सकते हैं, प्रक्रियाओं पर मिट्टी डाली जा सकती है। लेकिन तब देश नहीं होगा, भ्रष्टाचार का बोलबाला होगा। मान जाइए, लोकतंत्र को एक मौका तो दीजिए।खबर है कि उद्योगपति रतन टाटा ने बड़ी परियोजनाओं के लिए प्रधानमंत्री को लिखा है। सरकार के पूंजी निवेश कमिशन के अध्यक्ष के नाते, उनका आकलन है कि भूमि व अन्य संसाधनों के आवंटन में हो रही देरी के कारण लगभग 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का निवेश अटका पड़ा है। अटके निवेश की इस सूची में दक्षिण कोरियाई कम्पनी पॉस्को, यूनाइटेड किंग्डम के लक्ष्मी मित्तल और भारत के एस्सार, रिलायन्स और जिंदल जैसी बड़ी कंपनियों की बड़ी-बड़ी स्टील, थर्मल, ऊर्जा, खनन और अल्यूमिनियम परियोजनाएं शामिल हैं। जाहिर है, इसी सूची में खुद टाटा भी शामिल हैं।

अब यहां प्रश्न यह है कि प्रधानमंत्री और कर क्या सकते हैं? पिछले कुछ वर्षों में, लगभग सभी सरकारों ने रतन टाटा की सूची में शामिल परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने का काम किया है। रुकावट समझे जा रहे क़ानूनों (जैसे पर्यावरण संबंधी) की हवा निकाली है। करों में छूट मुहैया कराई है और औने-पौने दाम पर भूमि व अन्य संसाधनों पर मालिकाना हक सौंपा है। यही नहीं, सारी राजनीतिक-प्रशासनिक ताकत इस तरक्की के पीछे लगा दी है। परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की प्रक्रिया को ‘चाक-चौबंद’ बनाने के लिए सरकारों ने काफी मेहनत की है।

आजकल प्रयुक्त हो रहे जुमलों में बात करें तो सरकार उद्योग जगत की ‘श्रेष्ठता’ के आगे नतमस्तक है। परियोजना रिपोर्टों के निर्माण का एक महत्वपूर्ण चरण होता है सरकार द्वारा जन-सुनवाई का आयोजन। यानी प्रभावित समुदाय के विचारों-समस्याओं को सुनने-समझने और उनके समाधान की कोशिश। ये प्रक्रिया तो पहले से ही कमजोर थी, क्योंकि यहां लोगों को सिर्फ सुना जाता है। जन-सुनवाई में निकली बातों पर किसी ने कभी कान भी नहीं धरा है, इसलिए जरूरत इस बात की थी कि इसकी प्रक्रिया और भी सक्षम बनाई जाए जिससे लोगों के केवल विचार ही न जानें जाएं, बल्कि उन पर आवश्यक कार्यवाही भी हो। लेकिन ऐसा किया नहीं गया। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने नियम-क़ायदे ही बदल डाले। बदलाव मनचाहे लोगों के भाग लेने का मार्ग प्रशस्त करने की नियत से किया गया। लोगों के हक की लड़ाई वाले ‘उपद्रवियों’, जो जन समुदाय को बड़ी परियोजनाओं का विरोध करने के लिए भड़काते हैं, को इनमें लेने के अयोग्य ठहरा दिया गया।

एस्सार स्टील प्रोजेक्ट का मामला ही लेते हैं। गरीब जंगलवासी उस बहुमूल्य खनिज का उपभोग करते हैं, जिसे एस्सार कंपनी चाहती है। जन-सुनवाई यहां भी लगी। ‘डाउन-टू-अर्थ’ की संवाददाता भी यहां गई थीं। भारी पुलिस-बंदोबस्त था जिसका कारण ये बताया गया कि ये पूरा क्षेत्र नक्सल प्रभावित है। लेकिन इसी बहाने ग्रामीण नेताओं को जेल में डालने का अवसर भी सरकार को मिला। हमारी सहयोगी को ‘बाहरी’ करार देकर इसमें भाग लेने से रोक दिया गया। लेकिन छत्तीसगढ़ में एस्सार के डायरेक्टर एचएस सेठी मीटिंग में शामिल थे। जन-सुनवाई से बाहर आते आदीवासियों ने आरोप लगाया कि परियोजना के लिए सहमति के क़ागज़ात पर उनसे जबरन दस्तख़त कराए गए हैं। परियोजना-दर-परियोजना दिखाए गए सपनों पर से स्थानीय लोगों का यकीन उठता जा रहा है। लौह अयस्क, बॉक्साइट और इनसे संबंधित स्टील और अल्युमिनियम की खान परियोजनाओं के लिए मंजूरी की प्रक्रिया सरकार ने तेज कर दी है, लेकिन लोग संतुष्ट नहीं है। और उन्हें होना भी क्यों चाहिए? भारत के निर्धनतम लोग इस भू-संपदा के आस-पास रहते हैं। उन्हें चिंता है कि इन संसाधनों का दोहन, उन्हें और निर्धन बनाएगा क्योंकि इससे उनकी जल-जंगल-ज़मीन छिन जाएगी और पर्यावरण का बंटाधार होगा, सो अलग। आखिर यही तो उनकी उत्तरजीविता का आधार है।

इन परियोजनाओं को पारित करते वक्त उनकी दुश्चिंताओं पर ध्यान भी दिया जाता है, उन्हें यकीन नहीं। चूंकि वे आश्वस्त नहीं हैं, इसीलिए रुकावट डालते हैं, बात अदालत तक ले जाते हैं, या फिर विरोध-प्रदर्शनों पर उतर आते हैं। यही कारण है कि परियोजनाओं पास भले हो जाए, उनके पूरे होने में विलंब हो जाता है।

विश्वास के इस संकट के दरम्यान सरकार को क्या करना चाहिए? आप यही तो कहेंगे कि नियम-कायदों को और दुरुस्त करना चाहिए, ताकि विश्वसनीयता बहाल हो। सरकार ने किया ठीक उल्टा है। पर्यावरण संबंधी अनुमति की प्रक्रिया में एक बड़ी खामी है। परियोजना-रिपोर्ट तैयार करने के लिए सलाहकार, परियोजना के पैरो-कार नियुक्त करते हैं। इसे बदलने के बजाए, सरकार ने बस इतना ही किया है कि उसने इन सलाहकारों को स्वैच्छिक पंजीकरण की सलाहभर दी है। और इस पंजीकरण के काम को भी उद्योग जगत की एक संस्था को सौंप दिया है। यहीं पर खड़ी होती है, परस्पर विरोधी हित-चिंता की बात।

हमें आश्चर्य हुआ जब पांडिचेरी के निकट बंदरगाह के निर्माण की परियोजना रिपोर्ट में ‘डीटीई’ ने गड़बड़ी ढूंढ निकाली। इसके लिए एक ग्लोबल सलाहकार कंपनी द्वारा किए गए आकलन में तमाम बातों पर पर्दा डाल दिया गया है। अन्य बातों के साथ, कटाव और प्रदूषण में वृद्धि के कारण पांडिचेरी नगर के वास्तविक ख़तरों को भी छिपा दिया गया है। अपने जांच निष्कर्षों साथ हमने इस सलाहकार संस्था से सम्पर्क किया। जवाब यह मिला कि बंदरगाह के प्रमोटरों द्वारा तय किए निचारणीय विषयों के अनुसार उन्होंने काम किया है। प्रमोटर कंपनी सुभाष प्रोजेक्ट्स एंड मार्केटिंग लिमिटेड से संपर्क करने पर बताया गया कि परियोजना रिपोर्ट वास्तव में एक तात्कालिक आकलनभर है, विस्तृत आकलन जल्द शुरू किया जा रहा है। अब यहां ये अलग विषय है कि बगैर व्यापक आकलन के किस प्रकार, करीब एक करोड़ रुपए की इस परियोजना को अनुमोदित कर दिया गया।

इन परिस्थितियों में, इस परियोजना को बचाने के लिए प्रधानमंत्री क्या करेंगे? क्या पूरी आकलन प्रक्रिया की समाप्ति के लिए कहेंगे? या फिर ये जानना चाहेंगे कि प्रक्रिया की अनदेखी पर परियोजना का अनुमोदन कैसे किया गया और नियामक संस्थाओं की मज़बूती के लिए काम करेंगे? क्या वे मांग करेंगे कि ऐसे आकलनों के लिए परियोजना के पक्षधरों के स्थान पर एक वैधानिक संस्था पैसे खर्च करे? ऐसे प्रत्येक आकलन के लिए उद्योग जगत से एक तरह का कर वसूला जाए, तभी इनकी विश्वसनीयता बढ़ेगी। आशा है कि वे ये कहेंगे कि इस प्रक्रिया को बेहतर बनाना उद्योग जगत के व्यापक हित में है। यहां हमें स्पष्ट समझना चाहिए कि लोकतंत्र और दक्षता की इस लड़ाई में दक्षता ही विजयी होगी। सैन्य बल लगाए जा सकते हैं, प्रक्रियाओं पर मिट्टी डाली जा सकती है। लेकिन तब देश नहीं होगा, भ्रष्टाचार का बोलबाला होगा। मान जाइए, लोकतंत्र को एक मौका तो दीजिए।

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