विकास, प्रगति और उत्तराखंड की त्रासदी

पश्चिम का विज्ञान अधूरा है और अब तो वह पूंजीवाद का नौकर हो कर रह गया है। साथ ही यह साधारण मनुष्य को भयंकर रूप से अहंकारी, आस्थावान और भ्रम में रखता है। ईश्वर और अपने धर्म में आस्था को पदच्युत करके वेद वाक्य की जगह ‘विज्ञान-वाक्य’ में आस्था को प्रतिष्ठित करता है। इसके विरुद्ध कुछ भी कहने में डर लगने लगता है। पूंजीवाद इसी डर का सहारा लेकर विज्ञान और विकास का नारा दे कर अपना काम करते रहता है और दुनिया की सरकारों को चलाने वाले अपनी जेबे भरते रहते हैं। एक अजीब उलझन में हम फंस गए हैं जिसमें शोषित वर्ग विकास के नाम पर अपना शोषण करवाने को उतावला रहने लगा है। पहाड़ों में, खासकर उत्तराखंड में, जून के तीसरे सप्ताह में हुई त्रासदी ने देश को हिला दिया और अगर हम अब भी नहीं चेते तो फिर यह उम्मीद छोड़ ही देनी पड़ेगी। इतने बड़े स्तर पर तबाही शायद ही पहले कभी हुई हो। सरकारी आंकड़ों पर अब आम आदमी का विश्वास नहीं के बराबर रह गया है। आम अनुमान के अनुसार करीब चालीस हजार से अधिक, लोगों की जान गई है। हजारों की संख्या में नेपाली मजदूर, साधारण पैदल चलने वाले घुमक्कड़ साधु और करीब दस प्रतिशत सच्चे तीर्थ यात्री भी, इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। इनकी लाशें यदि नहीं मिलती तो ये लापता के आंकड़े में भी नहीं आएंगे। इनकी खोज करने वाला कोई नहीं। सैकड़ों की संख्या में गांव उजड़ गए हैं और यह माजरा सिर्फ केदार घाटी तक सीमित नहीं है।

उत्तराखंड जब नहीं बना था, उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और यहां जब पृथक प्रदेश बनाने के लिए आंदोलन चल रहा था, उस समय जो तर्क और स्वर सबसे जोर से सुनाई देता था- कि उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थिति एवं संस्कृति मैदानी इलाकों से अलग होने की वजह से यहां का विकास अलग प्रकार से होना चाहिए- अब सुनाई नहीं पड़ता। उत्तराखंड का विकास तीव्र गति से और उसी तर्ज पर करने को भाजपा से लेकर कांग्रेस तक सभी पिले हुए हैं। इस विकास में बड़ी योजनाएं बनती हैं, जनता को भरमाया भी जा सकता है और ऊपर ही ऊपर मलाई भी आसानी से साफ की जा सकती है- सब विकास के नाम पर। एक तीन से कई निशान होते हैं। कौन बेवकूफ उत्तराखंड के लिए, हिमालय के लिए सही विकास, उत्तराखंड को ध्यान में रख कर विकास, की सोचेगा? वैसे सोचने में पहले तो मौलिक रूप से सोचना पड़ेगा जो अपने आप में मुश्किल काम है, फिर भोली भाली ‘विकास’ के नाम से चौंधियाई जनता को समझाना पड़ेगा और फिर बड़ी परियोजनाएं नहीं बन पाएंगी तो मलाई भी हाथ नहीं लगेगी। ऐसा तो कोई सिरफिरा ही सोच सकता है और हमारे योजनाकार और राजनीतिज्ञ कोई सिरफिरे थोड़े ही हैं।

यह समझने के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं कि जहां-जहां बांध बन रहे हैं, दुनिया के सबसे बड़े पर उम्र में सबसे छोटे, हिमालय को काट कर और विस्फोटों से उड़ा कर सुरंगे बनाई गई हैं, तथा अनाप-शनाप गति से बढ़ते पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सड़कें चौड़ी की जा रही हैं, वहां तबाही कई गुना ज्यादा हुई है। गनीमत है कि इस कहर की मार भागीरथी की जगह मंदाकिनी घाटी पर ज्यादा पड़ी। यदि यही मार भागीरथी ने दी होती तो टिहरी बांध का क्या हाल हुआ होता सोच कर दिल दहल जाता है। विकास का मलबा – बांधों, सुरंगों और सड़कों से निकला मलबा – इस कहर को कई गुना खौफनाक बना गया।

बारिश की सीरत भी इसी बदलाव के चलते बदली है, पर उसके लिए उत्तराखंड के विकास को गुनहगार नहीं ठहराया जा सकता। थोड़े समय में हद से ज्यादा बारिश – इसके लिए तो समस्त तथाकथित विकसित दुनिया जिम्मेदार है। धरती और आसमान के तापमान का बेइंतिहां बढ़ने में अभी तक उत्तराखंड का हाथ नहीं। हां, उसी घिसी-पिटी दिशा में तेजी से बढ़ने की ललक यहां भी है। मानव की बेपरवाही की वजह से धरती और आसमान का तापमान तो बढ़ ही गया है और फलतः मौसम का मिजाज भी बदल गया है पर इस बदलते हालात में हमारी दिशा क्या हो, सवाल यह है। प्रकृति तो हम जैसा व्यवहार उसके साथ करेंगे उस मुताबिक वह अपने को बदलती रहेगी। पर उत्तराखंड की विकास नीति तो हमारी सरकारों और नीति निर्णायकों के हाथ है और समय आ गया है कि सीधे-सीधे यह स्वीकार किया जाए कि इन नीतियों की वजह से ही इतनी बड़ी त्रासदी घटी है। यह प्रकृति का प्रकोप नहीं, मनुष्य के अंहकार, लोभ और छोटी दृष्टि की वजह से ऐसा हुआ है। इस नरसंहार का जिम्मेदार प्रकृति नहीं हमारी नीतियां और उसको बनाने वाले हैं। पर विडंबना यह है कि किसी को न्यायालय के कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। यह हमारी व्यवस्थागत मजबूरियां, सीमाएं और आधुनिकता के विरोधाभास हैं।

इस विकास के खिलाफ किसी भी राजनैतिक धड़े से कोई आवाज नहीं उठी है। कांग्रेस और भाजपा से तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती, न ही वामपंथियों से। वामपंथी तो वैसे भी किसी भी धार्मिक, विशेषकर अगर वह हिंदू आस्थाओं से जुड़ा मामला हो, से अपने को दूर ही रखते हैं। बंगाल के कोई बलात्कार हो जाए या एस एफ आई का कोई विद्यार्थी मार दिया तो इनकी बोलती जरूर निकलती है पर आस्थावादी हिंदू यदि हजारों या लाखों की संख्या में मर जाए तो इनकी बला से। ये न इनके वोट बैंक हैं और न ही इनसे इनकी किसी प्रकार की हमदर्दी। ये तो “सांस्कृतिक क्रांति” में विश्वास रखने वाले लोग हैं जिन्हें धार्मिक आस्था रखने वालों से चिढ़ है और वैज्ञानिक आस्थावानों से प्रेम। हम दिमाग और दिल से छोटे जो हो गए हैं।

उत्तराखंड और हिमालय के विकास को लेकर कहीं से थोड़ी बहुत आवाज उठी है तो वह आंदोलनकारियों एवं स्वयंसेवी संगठनों के छोटे से तबके से। पर यह नाकाफी है और इनमें से भी अधिकतर बकौल स्वर्गीय किशन पटनायक के, “(इनकी) इस जागृति का प्रेरणा-स्रोत भारतीय अनुभव नहीं है, बल्कि यूरोप का पर्यावरण आंदोलन है”। ये भी पश्चिम के आधुनिक विज्ञान के मोह पाश से अपने को उबार नहीं पाए हैं। इसलिए इन्हें कभी “भारतीय अनुभव” हो भी पाएगा, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।

पिछले 30-35 वर्षों में एक ऐसे राजनैतिक, जो ईमानदार ही नहीं, बिना पूर्वाग्रहों के एक मौलिक बौद्धिक थे, किशन पटनायक, कहते थे, “जो लोग लंबे समय तक गुलाम बने रहते हैं, उनके स्वभाव में कुछ परिवर्तन आ जाता है। अल्पकालीन गुलामी में सिर्फ राजनैतिक गुलामी होती है, जबकि दीर्घकालीन गुलामी में मानसिक गुलामी आ जाती है। इसलिए गुलामी के अभयस्थ समूहों में गुलामी के प्रति आक्रोश शिथिल होता है। तर्क और निर्णय दोनों स्तरों पर गुलाम का दिमाग कमजोर होता है।”

“आजादी आंदोलन का हरेक नेता और कार्यकर्ता राजनैतिक दासता के प्रति सचेत था। पर बौद्धिक और आर्थिक दासता के प्रति उसकी समझ गहरी नहीं थी। वह सोचता था कि जो भी बौद्धिक और आर्थिक दासता है वह राजनैतिक दासता का ही प्रतिफलन है। इसलिए राजनैतिक दासता से मुक्त होना ही पर्याप्त है। यह एक लापरवाही भारी गलत सोच भी थो जवाहरलाल नेहरू से लेकर सरदार पटेल तक व्याप्त थी। सिर्फ मोहनदास करमचंद गांधी इसके विपरीत सोचता था।

“इसके ज्यादा विडंबना की बात क्या हो सकती है कि जिस विकास-पद्धति ने एशिया-अफ्रिका का इतना विनाश किया है उसके विकल्प ढूँढना भारत के बुद्धिजीवियों ने तब तक शुरू नहीं किया जब तक यूरोप में उसका उद्गम और प्रसार नहीं हो गया। आधुनिक विकास के विकल्प के बारे में यूरोपीय व्यक्ति भी सोच रहे हैं लेकिन यह कोई धारा या आंदोलन नहीं। पर्यावरण आंदोलन के साथ उनके अनुभव में उपभोक्तावाद से टकराव नहीं है।

“आधुनिक विकास पद्धति का विकल्प गैर आधुनिक ही होगा। गैर आधुनिक का मतलब है पीछे चलना। गुलामी से अभ्यस्त दिमाग को गैर आधुनिक होने की बात से डर लगता है। उसे घबराहट होती है कि कोई कह देगा कि तुम देश को पीछे ले जाना चाहते हो। यह आरोप सुन कर बड़े से बड़े गांधीवादी और भारतीयतावादी अपनी बात कहते-कहते थोड़ी देर रुक जाते हैं। गांधी के “हिंद स्वराज” की खूबी यह थी कि उसमें झिझक या हिचक नहीं थी। “हिंद स्वराज” भारत को अठारहवीं सदी में जाने का एक आह्वान्न था, गुलामी से पहले वाली स्थिति में खड़े हो कर हम अपनी यात्रा शुरू करें। पीछे ले जाने का आरोप लगाने वाले वाकई महामूर्ख होते हैं, क्योंकि समय के बारे में उनका जो अपना दर्शन है (सरल रैखिक समय) उसमें पीछे जाना कभी होता ही नहीं। सच यह है कि युद्ध को छोड़ कर कहीं पीछे हटना अपमानजनक नहीं होता और युद्ध में भी सम्मानजनक पीछे हटने की अनुमति रहती है”।

किशन जी में साहस और मौलिक रूप से सोचने की ताकत दोनों थी, इसलिए वे ऐसा कह पाए। आज किसी में न यह सोच है न साहस। इक्का दुक्के अनुपम मिश्र जैसों को छोड़ दें तो विरले ही मिलेंगे। बौद्धिक जगत पर पश्चिम की वैज्ञानिक सोच का आतंक छाया हुआ है। इसलिए उसके विरुद्ध यदि किसी बुद्धिजीवी को लगता भी है, तो जाने की हिम्मत प्रायः नगण्य है। पश्चिम का विज्ञान अधूरा है और अब तो वह पूंजीवाद का नौकर हो कर रह गया है। साथ ही यह साधारण मनुष्य को भयंकर रूप से अहंकारी, आस्थावान और भ्रम में रखता है। ईश्वर और अपने धर्म में आस्था को पदच्युत करके वेद वाक्य की जगह ‘विज्ञान-वाक्य’ में आस्था को प्रतिष्ठित करता है। इसके विरुद्ध कुछ भी कहने में डर लगने लगता है। पूंजीवाद इसी डर का सहारा लेकर विज्ञान और विकास का नारा दे कर अपना काम करते रहता है और दुनिया की सरकारों को चलाने वाले अपनी जेबे भरते रहते हैं। एक अजीब उलझन में हम फंस गए हैं जिसमें शोषित वर्ग विकास के नाम पर अपना शोषण करवाने को उतावला रहने लगा है। उत्तराखंड में अब तक विकास के नाम पर जो कुछ हुआ है उसमें कितने स्थानीय लोगों का भला हुआ है इसका लेखा जोखा देने को कोई तैयार नहीं। देश में 1991 के बाद, जबसे हमने अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ दिया, बड़ी प्रगति हुई है, ऐसा कहा जाता है। औद्योगिकरण और बड़ी परियोजनाओं से रोजगार बढ़ता है यह भी हमें समझाया जाता है। 1991 के बाद इन दोनों क्षेत्रों में इजाफा हुआ है, यह भी बताया जाता है। पर आंकड़े बताते हैं इन सब से देश में रोजगार में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। आशीष कोठारी और असीम श्रीवास्तव की एक जोरदार रिपोर्ट के मुताबिक 1991 से लेकर 2011 तक उद्योग और सरकार में नौकरी करने वालों की संख्या तीन करोड़ से कम ही है। 20 वर्षों में इनमें कोई इजाफा नहीं हुआ है, बावजूद जो भी ‘विकास’ और ‘तरक्की’ हमने इन बीस वर्षों में किया होगा। फिर भी भ्रम बरकरार है कि उद्योग लगेंगे, बांध बनेंगे, बिजली की परियोजनाएं बनेगी, पर्यटन बढ़ेगा तो नौकरियां बढ़ेंगी।

‘विकास’ का आधुनिक मिथक जबरदस्त है। देहरादून की सड़कों पर, चौरस्तों पर गाड़ियों को आने, न जाने का इशारा करती चुस्त पतलून पहने, धूप में खड़ी महिलाओं को देख कर हमारे जैसों को रोना आता है और हमारे कई आधुनिकता की चकाचौंध से झुलसे महिला और पुरुष मित्रों को इसमें विकास दिखता है। यह मजबूत गढ़वाली औरतें शायद इससे पहले खुली प्रकृति में रहने और घाघरा या साड़ी पहने की अभ्यस्त हों। देहरादून की धुएं भरे चौरस्तों पर धूप में खड़ा होना इन्हें शायद ही अच्छा लगता हो, पर साथ ही इनके पतियों और बच्चों की नजर में इनकी इज्जत भी बढ़ी हो। इनमें से कइयों के घर उसी केदार घाटी में शायद हो जहां आज सन्नाटा छाया है। वे कौन से कारण हैं जिन्होंने इन्हें वहां से निकलने को मजबूर या प्रेरित किया? हमें आदत हो गई है सभी कारणों में उन पहलुओं पर ध्यान देने की जिनकी आज के विकास से युग में तूती बोलती है – मसलन आर्थिक पहलू, पुरुष महिला भेद-भाव, इत्यादि इत्यादि। पर आंशिक सच्चाई, आंशिक सत्य और झूठ के बीच साम्य होता है। बहुदा आंशिक सच्चाई और आंशिक सत्य झूठ के ज्यादा नजदीक और वास्तविक सत्य से बहुत दूर होता है। समाज में व्याप्त मिथक व्यवहार को संचालित करते हैं। आज का मिथक ‘विकास’ और प्रगति है। इसी से जुड़ा अंधविश्वास विज्ञान के सर्व-शक्तिमान होने से है और मजा यह है कि जिसे विज्ञान नहीं समझता, उसके होने को भी वह नकारता है।

हमें अपने में विनम्रता लाने की जरूरत है। मानने की जरूरत है कि हम बहुत कुछ नहीं जानते इसलिए प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ बंद करे। बड़ी परियोजनाएं बड़ी छेड़छाड़ करती हैं। विज्ञान और तकनीक के अहंकार से बचे और और उत्तराखंड आंदोलन के समय जो तर्क दिया जाता था उसे याद करके उसी दिशा में बढ़े।

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