विकृतता और मौतें: एक नई सामान्यता

पशुओं को जीएम चारा खिलाने से उनमें विकृतता और असामान्यता बढ़ती जा रही है। इसी के साथ उनकी मृत्युदर भी बढ़ रही है। लेकिन हमारे वैज्ञानिकों का एक वर्ग इसे एक नई सामान्यता की निगाह से देखता है। जीएम चारे पर निर्भर पशुओं के माध्यम से निर्मित मानव भोजन पदार्थ भी स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक हैं। लेकिन इन महाकाय बीज कंपनियों के आगे तो जैसे सारी मानवता ही लाचार है। पहली निगाह में लगेगा कि ये पारंपरिक रूप से कटा-छटा मांस है, लेकिन हॉलैंड के सुअर फार्म किसान इब पेडेरसन जब फ्रीजर से उसे निकालते हैं तो जाहिर होता है कि यह तो पूरे के पूरे साबुत सुअर हैं। इनमें से कुछ बुरी तरह से विकृत हैं या उनमें कई तरह की असामान्यताएं दिखाई पड़ती हैं। पेडरसन का दावा है कि यह जानवरों के भोजन में दिए गए जीनांतरित (जीएम) खाद्यान्नों का परिणाम है। अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि यह सब कुछ जीएम सोया और विवादास्पद खरपतवारनाशक ग्लायफॉसेट के छिड़काव का परिणाम है। वह प्रतिवर्ष 13000 सुअर का उत्पादन कर उन्हें यूरोप में बेचते हैं लेकिन जानवरों में विकृतता, बीमारी, मृत्यु और निम्न उत्पादकता के बढ़ते स्तर को लेकर वह चिंतित हैं। अतएव उन्होंने पशुओं के भोजन को जीएम से गैर जीएम किए जाने का प्रयोग आरंभ कर दिया है।

उनका कहना है कि इसके जबर्दस्त परिणाम सामने आए हैं। वे कहते हैं, “जब मैं जीएम चारा इस्तेमाल करता था तो मुझे पशुओं में सूजन, पेट में छाले, दस्त की अत्यधिक दर और बढ़ी मात्रा में विकृतता लिए सुअरों के जन्म के लक्षण दिखाई देते थे। लेकिन जब से मैंने गैर जीएम चारा इस्तेमाल करना आरंभ किया तो कुछ ही दिनों में मुझे इन समस्याओं से निजात मिल गई। इतना ही नहीं इसमें जानवरों के स्वास्थ्य में सुधार होने के साथ ही मेरे लाभ में भी वृद्धि हुई। इसकी वजह थी दवाइयों का कम इस्तेमाल और अधिक उत्पादकता। इतना ही नहीं गर्भपात के मामलों में कमी आई, एक बार में अधिक बच्चों का जन्म हुआ तथा पैदा हुए जानवरों की उम्र लंबी हुई। इससे मानव श्रम घंटों में भी कमी आई, क्योंकि कम सफाई करना पड़ती थी और बीमारियों में भी कमी आई।

पेडरेसन का विश्वास है कि विकृतता और अन्य समस्याओं का आंशिक कारण जीनांतरित (जीएम) सुअर चारे में खरपतवारनाशक ग्लायफोसेट की उपस्थिति ही है। गौरतलब है कि पारंपरिक फसलों की अपेक्षा जीएम फसलों में इनका अत्यधिक प्रयोग होता है। इस तरह के खरपतवारनाशकों को यूरोपीय संघ ने सन् 1996 में स्वीकृति दी थी। लेकिन आयातित चारे में इनकी मात्रा तयशुदा से 200 गुना तक अधिक रहती है। इस प्रकार से यह जानवरों एवं मनुष्यों दोनों के लिए घातक हो जाती है। वे यह भी मानते हैं कि उनका कार्य किसी वैज्ञानिक आधार पर आधारित नहीं बल्कि प्रायोगिक है, लेकिन लोगों को अब सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि अधिकांश लोगों को इस प्रकार की कोई जानकारी ही नहीं है।

विकृतता और मौतें, “नई सामान्यता”


पेडरसन के इस प्रयोग से हॉलैंड के कृषि जगत में हंगामा खड़ा हो गया। इससे यह बात उभरकर आई कि पूर्ववर्ती प्रतिबंधित (कृषि में) कीटनाशक डीडीटी के छिड़काव की बनिस्बत वर्तमान में होने वाली मौतें व विकृतता कहीं अधिक हैं। आलोचकों ने उनके इस प्रयास को अवैधानिक बताते हुए कहा है कि यदि यह सच होता तो अन्य हजारों किसान/पशुपालक चुप क्यों बैठे रहते? लेकिन इसके बावजूद हॉलैंड सुअर शोध केंद्र ने तत्परता से जांच प्रारंभ कर दी है। हालांकि इसके परिणामों का प्रकाशन अभी नहीं हुआ है। जीएम के खिलाफ अभियान चलाने वाले इस खोज के बारे में दावा कर रहे हैं कि तथ्यों की स्थापना बजाए प्रयोगशाला के वास्तविक खेत/फार्म पर हुई है। वैसे इस दावे का समर्थन वहां के पशु विशेषज्ञों ने भी किया है। लीइप्झ विश्वविद्यालय का कहना है कि इस बात के प्रमाण मिले हैं कि जीएम खाद्यान्न मनुष्य एवं पशुओं दोनों के लिए ही खतरनाक हैं।

शोध बताता है कि इस तरह का खाद्यान्न डेरी के पशुओं को जहर परोसता है और इससे पशुओं में सड़ी सब्जियों से प्राप्त होने वाले विष से सड़ा हुआ मांस जैसा आभास मिलता है। अतएव इससे “निजात“ पाना आवश्यक है। इससे पहले जीएम खाद्यान्न से चूहों की मौत का मामला भी सामने आ चुका है। इस बीच जीएम खाद्यान्न को लेकर हुए अनेक विश्वसनीय अध्ययनों को जीएम बीज उत्पादक कंपनियां नकार चुकी हैं।

जीएम “किसानों पर थोपा गया”


यूरोप में प्रतिवर्ष सुअरों, मुर्गियों, गायों, डेरी पशुओं और इसी के साथ मछलियों (खेती की गई) के भोजन हेतु तीन लाख करोड़ टन जीएम पशु चारे का आयात किया जाता है। ब्रिटेन अनुमानतः प्रतिवर्ष 1,40,000 टन जीएम सोया और 3,00,000 टन तक जीएम मक्का का आयात पशु चारा हेतु है। अभियानकर्ताओं का कहना है कि इसका अर्थ हुआ बाजार में बिकने वाले मांस एवं डेरी उत्पादों में से अधिकांश जीएम चारा खाने वाले पशुओं के माध्यम से ही उत्पादित होता है। प्रयोग में लाई गई अधिकांश सोया एवं मक्का दक्षिण अमेरिकी देशों ब्राजील अर्जेंटीना और पेराग्वे में उत्पादित होती है।

वहीं ब्रिटेन में मानव भोज्य पदार्थ में मौजूद जी.एम. पदार्थ को चिन्हित किया जाना आवश्यक है। जबकि जीएम चारा खाए पशुओं से प्राप्त मानव भोजन जैसे मांस, मछली दूध, एवं डेयरी उत्पाद को चिन्हित करने की आवश्यकता नहीं है। इसी गफलत का फायदा उठाकर उपभोक्ताओं को परोक्ष रूप से जीएम खाद्यान्न खिलाया जा रहा है। दि सॉइल एसोसिएशन का कहना है कि इस प्रकार के आयातित खाद्यान्नों के बारे में 67 प्रतिशत उपभोक्ताओं का मत है कि जीएम चारे से निर्मित पदार्थों को चिन्हित करना आवश्यक है।

वहीं फ्रांस के विशाल खुदरा श्रृंखला केरीफोर ने सन् 2010 में खाद्य पदार्थों को चिन्हित करने की योजना प्रारंभ की जिसके अंतर्गत ग्राहकों को जानकारी दी गई थी कि भोज्य पदार्थ उत्पादित करने में प्रयोग में आए पशुओं को जीएम चारे से पषित नहीं किया गया है। इस तरह के 300 उत्पाद अब इस सुपर बाजार में उपलब्ध हैं। साथ ही यह भी पाया गया है कि 60 प्रतिशत ग्राहक यह पाए जाने पर कि पशुओं को जीएम चारा खिलाया गया है, ऐसे उत्पादों को खरीदना बंद कर देते हैं। इसी तरह की योजनाएं अन्य बड़ी यूरोपीय खुदरा श्रृंखलाओं ने भी अपना ली है।

टेस्को, सेंसबरी, दि को. ऑप. एवं मार्क एवं स्पेंसर द्वारा यह घोषणा किए जाने से कि वे इस बात की गारंटी नहीं दे सकते कि उनके द्वारा बेचे जाने वाले उत्पाद जीएम मुक्त हैं, ब्रिटेन में तनाव बढ़ गया है। इन खुदरा व्यापारियों का कहना है कि इससे उनके आपूर्तिकर्ताओं के सामने संकट खड़ा हो जाएगा। वैसे भी जीएम मुक्त उत्पाद अब दिवास्वप्न की तरह हैं।

ब्रिटेन के खाद्य व्यापारियों ने दि इकोलाजिस्ट से कहा कि जीएम को अब सफलतापूर्व किसानों पर थोप दिया गया है और अब किसानों के पास कोई विकल्प नहीं बचा है। इतना ही नहीं यदि आयातक को जीएम चारे से दिक्कत नहीं है तो हमें परेशान होने की क्या आवश्यकता है। वैसे भी जीएम चारा काफी सस्ता पड़ता है। उधर दूसरी ओर सहकारिता समूहों का कहना है कि हम सन् 2003 से इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि गैर जीएम उत्पादों की उपलब्धता में वृद्धि की जाए। लेकिन यह दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है। इसकी वजह है कि गैर जीएम खाद्य पदार्थों का उत्पादन दिनों दिन घटता जा रहा है। इससे साफ जाहिर है कि साफ व स्वच्छ खाद्य पदार्थ मिलने की संभावनाएं भी कम हो रही हैं।

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