विस्थापन का रास्ता

12 Aug 2017
0 mins read

भारत-नेपाल की अन्तरराष्ट्रीय सीमा पर बनने वाले पंचेश्वर बाँध से तीस हजार परिवारों का विस्थापन तय है। सरकार को ऐसी योजना बनाने से पहले आबादी का ख्याल रखना चाहिए।

.वहाँ दुनिया का दूसरा सबसे ऊँचा बाँध बनाया जा रहा है। दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ के बीच। नेपाल और भारत की अन्तरराष्ट्रीय सीमा पर बनने वाला यह पहला बाँध है। इसे पंचेश्वर बाँध के नाम से जाना जाएगा। इसे एशिया का सबसे बड़ा बाँध बताया जा रहा है। पश्चिमी नेपाल और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में इसके जल भराव का विस्तार होगा। नेपाल और भारत की सीमा को विभाजित करती महाकाली नदी को जलस्रोत के तौर पर लिया जाएगा। इसके जल संग्रहण की क्षमता टिहरी बाँध से भी तीन गुना ज्यादा होगी। 315 मीटर ऊँचाई वाले इस बाँध में तकरीबन 122 गाँव डूब क्षेत्र से प्रभावित होंगे। इसमें तकरीबन 30 हजार परिवार बसे हुए हैं। यह नेपाल और भारत का एक संयुक्त कार्यक्रम है।

तकरीबन 50 हजार करोड़ रुपये की लागत से बनने वाले इस बाँध से 5000 मेगावॉट बिजली के उत्पादन की उम्मीद की जा रही है। यह सब कुछ विशाल है। प्रचलन में यही विकास है। सबसे बड़े और सबसे पहले का तमगा गौरवान्वित सा करता है। हमारी मानसिकता बना दी गई है कि विशाल ही विकास है। इस गौरवान्वित होने में हम बड़े खतरे की आशंकाओं को भुला देते हैं। फिलहाल इस विशाल योजना को मंजूरी मिल गई है। इस महीने में डूबने वाले गाँवों के जन सुनवाई की प्रक्रिया शुरू होनी है। ऐसे बड़े विकास के लिये बड़े विस्थापन और बड़े बलिदान की जरूरतें होती हैं।

इन बड़ी परियोजनाओं के खतरे भी बड़े हैं। हिमालय के बीच बसा यह इलाका जहाँ परियोजना प्रस्तावित है, चौथे जोन वाले भूकम्प का क्षेत्र है। जबकि उत्तराखंड का अधिकांश इलाका सम्भावित आपदाओं से ग्रसित है। यहाँ के लगभग पहाड़ अलग-अलग भूकम्प जोन में बँटे हैं। ऐसे में इतनी ऊँचाई पर इतने बड़े बाँध को बनाना और भी खतरनाक है। हिमालय अभी अपने बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है और जब भी इसका लैंड सेटलमेंट होगा एक बड़ा भूकम्प आना तय है। लिहाजा हमें ऐसे किसी भी तरह का इतना बड़ा निर्माण नहीं करना चाहिए जो न सिर्फ आस-पास को प्रभावित करे बल्कि अन्य राज्यों में भी तबाही का कारण बने।

पिछले दिनों उत्तराखंड में हुई केदारनाथ आपदा से भी यह सीख लेनी चाहिए जिसमें कई हजार लोगों की जानें गई। भले ही इसे एक प्राकृतिक आपदा कह दिया गया। भले ही प्राकृतिक आपदा कह के लोगों को गुमराह किया गया परन्तु ये मानव जनित आपदाएँ ही रही हैं। उत्तराखंड की गहरी नदियों में जलभराव की स्थिति कभी न बनती अगर कम्पनियों के द्वारा जगह-जगह नदियों को रोका न जाता। इस रुकावट से पेड़ और पत्थर के मलबे जलभराव का कारण बनते हैं और भारी बारिश से नदियाँ उफान पर आ जाती हैं। निश्चय ही जब पंचेश्वर झील जो कि सैकड़ों किमी में पानी का भराव करेगी उसका असर आस-पास के पहाड़ों पर पड़ेगा।

जिसका आकलन पहले से लगाया जाना मुश्किल है। इसलिये बड़ी परियोजना के साथ इसे एक बड़ी आपदा की पूर्व पीठिका के रूप में भी देखा जाना चाहिए। साथ ही यह पश्चिमी नेपाल और पिथौरागढ़ की साझा संस्कृति का इलाका है। जहाँ लोग आपस में रिश्ते-नाते रखते हैं। इतनी बड़ी झील दो देशों के बीच के इस रिश्ते को भी खत्म कर देगी। लोगों को इस झील के लिये अपने गाँव छोड़ने होंगे और विस्थापित होकर दूर बसना होगा। जब भी विस्थापन से प्रभावित लोगों और गाँवों का आकलन किया जाता है उसे बहुत ही सीमित दायरे में देखा जाता है।

जो विस्थापित किये जाते हैं उन्हें ही प्रभावित भी माना जाता है जबकि आस-पास के जो लोग विस्थापित नहीं होते प्रभावित वे भी होते हैं। उनके रिश्ते प्रभावित होते हैं। उनकी सदियों से चली आ रही रोजमर्रा की जिन्दगी से वे लोग और उनके पड़ोसी गाँव अचानक गायब हो जाते हैं। इस तरह के सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रभाव का कोई भी आँकड़ा किसी दस्तावेज में शामिल नहीं किया जाता। इस बाँध का प्रस्ताव 1981 में ही हो गया था। बाद में इससे डूबने वाले गाँवों को चिन्हित कर लिया गया और अब उनके विस्थापन की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। 11 अगस्त को गाँवों की पहली जन सुनवाई होनी है। जन सुनवाई को जिला मुख्यालय पर आयोजित किया गया है।

डूब वाले गाँवों से जिला मुख्यालय पचास से सौ किमी की दूरी पर है और मौसम बारिश का है। पहाड़ के इन दूर गाँवों में आवागमन की सुविधाएँ बहुत कम हैं। साथ ही गाँव के लोगों को ठीक-ठीक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है। सरकारें अपनी मंशा से अपने अनुसार काम करती हैं। सब कुछ तय हो जाने के बाद वे लोगों की राय लेना चाहती हैं। ऐसे में लोगों को पता ही नहीं चल पाता कि उन्हें करना क्या है और जन सुनवाइयाँ पूरी कर दी जाती हैं। अब उनके पास सिर्फ आदेश होते हैं कि उन्हें अपने गाँव कब तक छोड़ देने हैं और उन्हें कहाँ बसना है, इसका जिक्र नहीं होता कि उन्हें किनसे बिछड़ना है और उनका क्या-क्या उजड़ना है।

पिथौरागढ़ एक पिछड़ा इलाका है। जहाँ लोगों को विस्थापन के नियम कानून नहीं पता। पिछड़े इलाके होने के फायदे सरकारों को इसी आधार पर मिलते हैं कि ये इलाके प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर होते हैं। पिछड़े इलाकों का पिछड़ापन सरकारी होता है। वर्षों से लोगों को राज्य मूलभूत सुविधाओं से इतना वन्चित कर देता है कि वे पीड़ित महसूस करने लगते हैं। उनके पास अपार सम्पदाएँ होती हैं पर वे सबसे गरीब होते हैं। ऐसे में वे कुछ भी करने को तैयार होते हैं। विकास के नाम पर बाँध का आना कई बार उनके लिये खुशी की खबर जैसा होता है। उन्हें विस्थापन के दंश का आकलन नहीं होता। वे सरकारी वंचना से इतने पीड़ित होते हैं कि कहीं भी चले जाना चाहते हैं।

ऐसी स्थिति में सरकारों के लिये जन सुनवाई और विस्थापन एक आसान प्रक्रिया बन जाती है। सरकारें उन्हें नौकरी का लालच देती हैं और जो जमीनों के स्वामी होते हैं उनके पूरे परिवार में से कोई एक परियोजना में नौकर बन जाता है। जाहिर है कि उन पिछड़े इलाकों में शिक्षा का वह स्तर नहीं होता कि उन्हें कोई बेहतर ओहदा मिल सके। चौथे दर्जे के कर्मचारी बन जाते हैं।

जहाँ भी इस तरह की परियोजनाएँ बनी हैं विस्थापितों का यही हश्र रहा है। यदि पंचेश्वर बाँध बनाया जाएगा तो वहाँ के लोगों का भी यही होना है, जबकि जो उन्हें खोना है उस गणित का जोड़-घटाव किसी किताब में कभी नहीं होना है।

(लेखक जेएनयू में शोधार्थी हैं)

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading