वन-खेती

सामाजिक वानिकी का स्वरूप बिगाड़ने का मुख्य कारण है इमारत निर्माण और रेयान और कागज उद्योग के लिए जरूरी लुगदी वाली लकड़ी का शहरी बाजारों में मिलना मुश्किल हो जाना। सरकार ने वन-खेती को जो बढ़ावा दिया और आर्थिक सुविधाओं का जो आश्वासन दिया, उससे बड़े किसानों की पौ बारह हो गई। छोटी अवधि की खेती के बजाय लंबे समय के पेड़ों के खेती करने पर कम मजदूरों से भी काम चल जाता है और इसलिए देखरेख की ज्यादा जरूरत नहीं रहने से ये बड़े किसान शहरों में भी जाकर बस सकते हैं। सफेदा जैसा पेड़ लगा दें, जिसे जानवर भी खा नहीं सकते, तो निगरानी की झंझट भी खत्म हो जाती है।

लेकिन गांव के बेजमीन लोगों के लिए तो यह कहर है। मिसाल के लिए, पंजाब में एक किसान के पास 100 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन थी। उसमें वह कपास बोया करता था। फिर उसने सफेदा लगा दिया। उसके यहां काम करने वाले मजदूरों के सामने जलावन की मुसीबत खड़ी हो गई। पहले उन्हें कपास की डंडियां जलाने के लिए मिल जाती थीं। अब कुछ नहीं मिलता। पांच-सात साल के बाद जब सफेदे के पेड़ कटेंगे तब संभव है ऊपरी बारीक टहनियां मजदूरों को मिल जाएं, बशर्ते वे बिकने से रह जाएं। पूरे पेड़ के मोटे-पतले तने तो शहर में बिकेंगे इसलिए ऐसे सामाजिक वानिकी से एक नई हरित क्रांति तो आ जाएगी और गांवो में लकड़ी की पैदावार भी बढ़ जाएगी लेकिन जलावन की कमी भी उतनी ही ज्यादा हो जाएगी।

विश्व बैंक के शब्दों में वन-खेती को सामाजिक वानिकी में इतना प्रमुख स्थान मिलने का एक कारण योजना का आर्थिक महत्व है। सरकारी भूमि की पट्टियों पर पेड़ लगाने के कार्यक्रम पर 4200 रुपये प्रति हेक्टेयर, तथा गांवों में वन लगाने के काम पर प्रति हेक्टेयर खर्च आता है और इनसे आंतरिक आय 12 से 15 प्रतिशत तक होती है। इसके विपरीत वन खेती पर 1,600 रुपये प्रति हेक्टेयर खर्च आता है और आय 25 से 40 प्रतिशत होती है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का निष्कर्ष है-“तुलनात्मक रूप से वन-खेती बहुत सस्ती है और ज्यादा लाभदायक है, इसीलिए इसे ज्यादा से आगे बढ़ाया जाना चाहिए।”

यानी कुल मिलाकर यह असामाजिक खेल अभी चलने वाला है। इससे ईंधन भी नहीं मिलेगा और चारे की तो बात ही बेकार है। यों देखा जाए तो चारे की समस्या ईंधन से भी बड़ी है। बंजर जमीन में यूं ही उग आने वाली झाड़ियां जलाने के काम भले आ जाएं चारा नहीं बन सकतीं। वे फैलती ही इसलिए हैं कि उन्हें जानवर खाते ही नहीं। विश्व बैंक और वन-विबाग के अधिकारी सफेदे को, जो किसी तरह चारे के काम नहीं आता-फैलाकर खुश हैं। और ऊपर से वे यह कहते थकते नहीं कि यह सामाजिक वानिकी समाज के लिए बड़ी उपयोगी है और बेहद सफल है।

व्यापारिक सामाजिक वानिकी के हिमायती दावा करते हैं कि वन खेती से नुकसान कम और ज्यादा फायदा है। शहरी और औद्योगिक जरूरत की लकड़ी इससे मिल जाती है तो जंगलों पर भार कम होगा। सफेदे के समर्थक अर्थशास्त्रियों का कहना है कि उद्योगों और शहरों की जरूरत एक बार पूरी हो जाए तो फिर लकड़ी का भाव गिरेगा और किसान फिर पेड़ो की किस्में बदल सकेंगे। लेकिन वे इस सवाल का जवाब नहीं देते कि किसान भला उन गरीबों के लिए लकड़ी क्यों पैदा करने लगेंगे जो दाम नहीं चुका सकते?

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading