वनों का प्रबंध

1946 में ईस्टर्न स्टेट्स एजेंसी के वन सलाहकार डॉ. एच मूनी ने लिखा था, “बस्तर का विशाल घना वन बड़ी मात्रा में राजस्व दिलाने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन उसमें ठीक प्रबंध का नितांत अभाव है। इसलिए वन विभाग केवल राजस्व वसूल करने वाली एजेंसी भर बनकर रह गया है।” आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी स्थिति बदली नहीं है। पिछले दशक में बस्तर के जंगलों के राजस्व में 10 गुना वृद्धि हुई- जिले भर का राजस्व समूचे राज्य के कुल राजस्व का 20 प्रतिशत है- लेकिन वहां के लोग हर रोज उखड़ते ही जा रहे हैं।

1962 में बस्तर वनों का जिला बना। वन विभाग ने वनसंपदा के दोहन की पूरी तैयारी कर ली। प्रारंभिक सर्वेक्षण और संभावनाओं के अध्ययन पर दो करोड़ रुपये खर्च किए गए। बस्तर के वन संसाधनों के निवेश-पूर्व सर्वेक्षण (1966-68) के तथ्य इतने लुभावने थे कि स्थानीय, राज्यीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने, जिनमें खाद्य कृषि संगठन, विश्व बैंक और स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी भी शामिल हैं, कई प्रकार की योजनाएं सुझाईं।

बस्तर में लकड़ी आधारित कई उद्योग लगाने की बात आई। जैसे, निर्यात प्रधान रेयान ग्रेड पल्प मिल, सॉ-मिल, पेपर मिल, प्लाईवुड, गत्ता और पार्टिकल बोर्ड फैक्टरियां आदि। वे इन पर 200 करोड़ रुपये या वन आधारित उद्योगों पर राज्य की कुल योजना का आधार लगाने को तैयार थीं। वन प्रबंध की सघन योजनाएं तैयार करनी थीं ताकि उन उद्योगों के लिए प्रर्याप्त कच्चा माल निकाला जा सके। इन सघन वन प्रबंध योजनाओं का उद्देश्य “पेड़ो को काट कर मूल पेंड़ो के जगह साल की पैदावार बढ़ना और 15 लाख हेक्टेयर सेज्यादा क्षेत्र में सागौन और चीड़ के पेड़ लगाना था।” अंतिम लक्ष्य तो वनों की उत्पादकता को, या राजस्व कमाने की क्षमता को बस्तर के दो-तिहाई तक के वनों को बढ़ाने का था। इस प्रक्रिया में प्रकृति बिलकुल ही बदल जाती, जो वहां के निवासियों के लिए हर तरह से प्रतिकूल होती।

1974-75 में जगदलपुर और बरसूर के पास के 515,000 हेक्टेयर जंगलों के लिए कार्य योजना तैयार कर ली गई। बाद में 1978-79 में पश्चिम बस्तर के लिए योजना बनी। लेकिन सघन वन प्रबंध योजना के सुझावों के अनुरूप एक भी उद्योग बस्तर में नहीं लगा। जून 1983 तक जब तक नई कार्ययोजना नहीं बनी, वन विभाग पेड़ों की कटाई में मगन रहा और हर किस्म की लकड़ी की बिक्री करता रहा।

सघन वन प्रबंध योजना का दूसरा पक्ष था वृक्षारोपण कार्यक्रम के द्वारा व्यापारिक महत्व वाले पेड़ उगाना। बस्तर चीड़ रोपण कार्यक्रम के अंतर्गत 40,000 हेक्टेयर घने हरे जंगल, जहां मुख्य पेड़ साल के थे, 1976 में मध्य प्रदेश वन विकास निगम के हवाले कर दिए ताकि पुराने पेड़ों को साफ करके, कागज उद्योग के लिए उष्ण कटिबंधीय चीड़ लगाए जाएं। लेकिन वनवासियों ने और पर्यावरण वालों ने इस योजना का डटकर विरोध किया। बस्तर सोसायटी फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के सदस्यों का कहना ताकि चीड़ लगाने से वहां के निवासियों की सारी सुविधाएं खत्म तो होती ही हैं, साथ में उन वनों में न कोई वनस्पति पनप सकेगी, न कोई वन्य प्राणी रह सकेगा। पेड़ो से गिरने वाली नोकदार पत्तियों में आग लगने की आशंका भी बढ़ जाएगी। उक्त सोसायटी के एक संस्थापक सदस्य और पत्रकार श्री शरद वर्मा ने चेतावनी दी कि “चीड़ से जुड़े कई कृमि-कीट फैलने लगेंगे, उनकी मिटाने के लिए ज्यादा कीड़े मार दवाइयां छिड़कनी पड़ेंगी। और इस तरह हवा, पानी और मिट्टी सब कुछ प्रदूषित होगा।”

इन सब विरोधों के बावजूद जगदलपुर के पास 3100 हेक्टेयर समृद्ध साल वन में विश्व बैंक की लगभग 11 करोड़ रुपये की सहायता से एक परीक्षण परियोजना शुरू की गई। वनवासियों और सोसायटी के सदस्यों ने कई पत्र लिखे, प्रदर्शन किए और आंदोलन भी चलाए। जब कोई उपाय काम न आया तो उन्होंने चीड़ पेड़ो में आग लगा दी। तब कहीं जाकर श्रीमती इंदिरा गांधी ने परियोजना को स्थगित कर देने का आदेश दिया। जितने चीड़ के पेड़ बचे थे, उन्हें 1983 तक फफूंदी का रोग लग गया। उन्हें काटना पड़ा। इस तरह समूची परियोजना छोड़ दी गई।

मिले-जुले पेंड़ो वाले या साल के जंगलों को काटकर उस क्षेत्र को एक किस्मी पेंड़ो वाले जंगल में बदलना राज्य की नीति है। मध्य प्रदेश वन विकास निगम इस नीति के अनुसार हर साल लगभग 12,500 हेक्टेयर जंगल में सागौन के पेड़ लगा रहा है। बस्तर में भी ऐसा ही हुआ है। लेकिन परिणाम मूल अपेक्षा की तुलना में बहुत कम है। इसी प्रकार दक्षिण बस्तर में सफेदे का रोपण भी बिलकुल नाकामयाब रहा है। केवल एक प्रतिशत पेड़ मुश्किल से जिंदा थे। पुराना जंगल गया और नया भी हाथ नहीं आया।

बस्तर में असामाजिक वानिकी


बस्तर में 1976 से सामाजिक वानिकी के कार्यक्रम शुरू किए गए। गांवों के आसपास की परती जमीन को अनेक फलदार तथा आर्थिक महत्व के पेड़ लगाकर आबाद किया जा रहा है। पंचवन योजना के अंतर्गत शुरू-शुरू में इन इलाकों का प्रबंध वन विभाग करता है। बाद में इसे लोगों के हवाले कर देता है। अपेक्षा यह है कि ये क्षेत्र गांवों और आरक्षित वनों के बीच सामंजस्य बैठाने का काम करेंगे।

इस संदर्भ में एक पुरानी योजना उल्लेखनीय है। 1935 में जगदलपुर के पास लगभग 50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र साल लगाने के लिए चुना गया था। उस जमीन को आसपास के 41 गांवों के हवाले किया गया। गौण वन उपज का उपयोग करने की और पेड़ को बचाए रखकर खेत-खलिहानों के लिए उगने वाली लकड़ी काम में लेने की उन्हें पूरी छूट थी। परियोजना बहुत सफल रही। लेकिन फिर कभी दूसरे क्षेत्रों में ऐसी योजना चलाई नहीं गई।

1983 में मध्य प्रदेश के दूसरे इलाकों के साथ-साथ बस्तर में भी सामाजिक वानिकी का नया तरीका लागू किया गया। ‘हितग्राही’ नामक इस योजना में हर गांव के सबसे गरीब 60 परिवार चुन लेते हैं और हर एक को एक हेक्टेयर परती जमीन फलदार पेड़ लगाने के लिए देते हैं। पौधे देना, बाड़ लगाना और दूसरे साधन जुटाना वन विभाग का काम है। हर परिवार को 50 रुपये मासिक मदद देते हैं। परिवार उस जमीन का मालिक नहीं होता, लेकिन वह उसकी उपज को बेच सकता है।

इन परिवारों को 10 साल तक हर साल एक हेक्टेयर जमीन पट्टे पर मिलती जाती है। हर साल 60 नए परिवार जोड़ते जाते हैं। अगर कोई परिवार लापरवाही करता है तो उसका पट्टा खारिज कर देते है। परिवारों का चुनाव गांव वालों के साथ बैठकर किया जाता है।

इस योजना के बारे में अनेक तरह की राय हैं। जगदलपुर के पास के गांव वालों में उत्साह खूब है, लेकिन उन्हें प्रति परिवार 10 हेक्टेयर जमीन ज्यादा लगती है। योजना में शामिल लोगों को 50 रुपया महीने की मदद बहुत कम मालूम देती है और भी डर है कि पेड़ जब फल देने लायक हो जाएंगे, तब कहीं सरकार उन्हें वापस न ले लें।

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