वन्य जीवन व वनस्पतियों पर संकट

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बढ़ती आबादी और विकास की आवश्यकताओं की पूर्ति की खातिर जंगलों के सफाये से जैव विविधता को भंयकर खतरा है। गौरतलब है कि जब-जब कोई भी वनस्पति विलुप्ति के कगार पर पहुंचती है, उस पर भोजन व आश्रय के लिए प्रत्यक्षत: निर्भर रहने वाले जीव-जंतु स्वाभाविक रूप से संकटग्रस्त हो जाते हैं।

वन्य जीवन के लिए चार प्रमुख खतरे हैं- प्रदूषण, वन्य जीवों के प्राकृतिक वास का नष्ट होना, उनका अंधाधुंध शिकार और प्रजातियों का स्थान परिवर्तन। हवा और पानी की प्रदूषण के मामले में अहम भूमिका है क्योंकि इन्हीं के जरिये जमीन और समुद्र में घातक रसायन (जहर) फैलने में मदद मिलती है। चाहे कारखानों से निकला धुआं हो या विषैला रसायन युक्त कचरा, ये दोनों हवा और पानी में मिलकर जीव-जंतुओं को प्रभावित करते हैं। कुछ जहर ऐसे होते हैं जो वर्षों तक नुकसान पहुंचाते रहते हैं। डीडीटी जैसा कीटनाशक 1972 से अमेरिका में प्रतिबंधित है। कारण, इससे वहां के पेरिग्रिन श्रेणी के बाज लगभग खत्म हो गए थे। लेकिन हमारे यहां फसलों पर आज भी डीडीटी का छिड़काव होता है। नतीजन अनेकों पक्षियों और तितलियों की प्रजाति इससे प्रभावित हैं। उनका अस्तित्व खतरे में है। इसका असर यदि एक बार पर्यावरण में हो गया तो यह कई वर्षों तक स्थायी बना रहता है। यह भोजनादि में पहुंचकर तो और भी सांद्रित हो जाता है। इसका इतना ज्यादा असर होता है कि पक्षियों के अंडों की ऊपरी परत पतली हो जाती है और जब वे उन्हें सेतने के लिए उन पर बैठते हैं तो अंडे हल्के से दबाव से टूट जाते हैं।

बढ़ती आबादी और विकास की आवश्यकताओं की पूर्ति की खातिर जंगलों के सफाये से जैव विविधता को भंयकर खतरा है। गौरतलब है कि जब-जब कोई भी वनस्पति विलुप्ति के कगार पर पहुंचती है, उस पर भोजन व आश्रय के लिए प्रत्यक्षत: निर्भर रहने वाले जीव-जंतु स्वाभाविक रूप से संकटग्रस्त हो जाते हैं। नतीजन इन पर निर्भर प्रजातियां भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहतीं। क्योंकि इनका सारा जीवनतंत्र एक दूसरे से जुड़ा होता है, इसलिए इनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है।

इसमें दो राय नहीं है कि मानव अपने शौक, सजने-संवरने, घर की सजावट, फैशन, भोजन व दवाई आदि के लिए जीव-जंतुओं का शिकार करता आया है। वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबंध के बावजूद उनकी खाल, हड्डी आदि के लिए उनका शिकार जारी है। बाघ, गैंडा आदि ऐसे वन्य जीव हैं जिनके अंगों से चीन व कोरिया में पौरुषवर्धक दवाइयां बनती हैं। इसके चलते इनके शिकार में बढ़ोतरी हुई है। यही कारण है कि इन समेत भालू, चीता, व्ल्यू ह्वेल और माउन्टेन गोरिल्ला जैसी जीव प्रजातियां संकट में हैं। जीवों पर संकट के रूप में सबसे बड़ी समस्या प्रजातियों के स्थान परिवर्तन की है। कई प्रजातियों को उनके मूल स्थान से दूसरी जगह ले जाया जाता है तो उन्हें वहां भोजन और आवास जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। साथ ही दूरदेश के माहौल में जब नई प्रजातियों का विकास होता है, तो वहां पहले से रहने-बसने वाली पुरानी और बाहर से आयी नयी प्रजातियों के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। कभी-कभी तो इस प्रक्रिया में कई जंतु विलुप्त हो गए और कई संकट में हैं। यही दुर्दशा वनस्पति की भी हुई।

जहां तक प्रजातियों के विलोपन या विनाश का सवाल है, तो अधिकांशत: यह पर्यावरणीय परिवर्तन के कारण होता है। यह सतत प्रक्रिया है, घटना है। अधिकतर प्रजातियां बदले पर्यावरण के साथ सामंजस्य न बैठा पाने के कारण खुद मिट जाती हैं। कई बार कुछ जीव या वनस्पतियां बदली परिस्थिति, बदले पर्यावरण में सामंजस्य तो बिठा लेती हैं लेकिन इस दौरान नई प्रजाति में विकसित हो जाती हैं। जीवों और जीवाश्मों के विस्तृत अध्ययन में वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि पृथ्वी पर जीवन की कहानी महाविनाश जिसे हम प्रलय भी कह सकते हैं, के द्वारा अनेक बार खंड-खंड हुई लेकिन इसके कारणों पर आज भी संशय बना है।

यह बहस का विषय अवश्य है लेकिन यह सच है कि कभी न कभी किसी छोटे ग्रह का पृथ्वी से टकराव हुआ, तेजी से ज्वालामुखी गतिविधियां घटित हुईं, पर्यावरण परिवर्तन हुआ और वातावरण में अस्थिरता पैदा हुई। नतीजन अभी तक न जाने कितनी प्रजातियों का बहुत बड़ा हिस्सा विलुप्त हो गया है। चूंकि यह एक सतत घटना है, प्रक्रिया है, इसलिए यह स्पष्ट है कि बार-बार हुए महाविनाशों में हर बार बड़े पैमाने पर प्रजातियों का विनाश हुआ है।

जीवाश्मों के अध्ययन, शोध और इनसे सम्बंधित दस्तावेज इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। क्रेटेसश काल का महाविनाश जिसमें डायनासोर सहित बहुत बड़ी मात्रा में समुद्री जीवों के नष्ट होने के प्रमाण मिलते हैं, असलियत में किसी छोटे गृह के पृथ्वी से टकराने का परिणाम माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार लाखों वर्षों के अंतराल पर एक बार ऐसा महाविनाश होता है जिसका आकाशीय पिंड से सम्बंध होता है। शोध, अध्ययन, आंकड़े व तथ्य खुलासा करते हैं कि प्रजातियों पर इस तरह के संकट को नकारा नहीं जा सकता। हिमयुग से शुरू जीव-जंतुओं के सफाये की यह प्रक्रिया आज भी जारी है। लेकिन वर्तमान में मानवीय हस्तक्षेप द्वारा उनके प्राकृतिक आवास नष्ट किये जाने व दूसरी गतिविधियों ने और भी ज्यादा नकारात्मक भूमिका निभायी है।
 

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