वर्षाजल संरक्षण और उचित प्रबन्धन ही जल संकट का समाधान

flood due to rainwater
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जब-जब पानी का अत्यधिक दोहन होता है तब ज़मीन के अन्दर के पानी का उत्प्लावन बल कम होने या खत्म होने पर जमीन धँस जाती है और उसमें दरारे पड़ जाती हैं। इसे उसी स्थिति में रोका जा सकता है जबकि भूजल के उत्प्लावन बल को बरकरार रखा जाये। पानी समुचित मात्रा में रिचार्ज होता रहे। यह तभी सम्भव है जबकि ग्रामीण शहरी दोनों जगह पानी का दोहन नियंत्रित हो, संरक्षण, भण्डारण हो ताकि वह ज़मीन के अन्दर प्रवेश कर सके। जल संकट देश ही नहीं, समूचे विश्व की गम्भीर समस्या है। दुनिया के विशेषज्ञों की राय है कि वर्षाजल संरक्षण को बढ़ावा देकर गिरते भूजल स्तर को रोका व उचित जल-प्रबन्धन से सबको शुद्ध पेयजल मुहैया कराया जा सकता है। उनका मानना है कि यही टिकाऊ विकास का आधार हो सकता है। इसमें दो राय नहीं कि जल संकट ही आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती होगी जिस पर गौर करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। वरना स्थिति इतनी भयावह होगी जिसका मुकाबला कर पाना असम्भव होगा। इसलिये तेजी से कम होते भूजल को संरक्षित करने के लिये जल-प्रबन्धन पर ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है।

एक नए अध्ययन में कहा गया है कि पानी की माँग और आपूर्ति में अन्तर के कारण 2025 तक भारत जल संकट वाला देश बन जाएगा। यह सब परिवार की आय बढ़ने तथा सेवा एवं उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्र में पानी की माँग में उल्लेखनीय वृद्धि का नतीजा है। इसमें दो राय नहीं कि भूजल पानी का महत्त्वपूर्ण स्रोेत है और पृथ्वी पर होने वाली जलापूर्ति अधिकतर भूजल पर ही निर्भर है। लेकिन आज वह चाहे सरकारी मशीनरी हो, उद्योग हो, कृषि क्षेत्र हो या आम जन हो, सभी ने इसका इतना दोेहन किया है जिसका नतीजा आज हमारे सामने भूजल के लगातार गिरते स्तर के चलते जल संकट की भीषण समस्या आ खड़ी हुई है बल्कि पारिस्थितिकीय तंत्र के असन्तुलन की भयावह स्थिति पैदा हो गई है।

हालात यहाँ तक खराब हो रहे हैं कि इससे देश में कहीं धरती फट रही है, कहीं जमीन अचानक तप रही है। बीते सालों में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड, अवध व ब्रजक्षेत्र के आगरा की घटनाएँ इसका प्रमाण हैं। ये संकेत देती हैं कि भविष्य में स्थिति कितनी विकराल रूप ले सकती है।

वैज्ञानिकों व भूगर्भ विशेषज्ञों का मानना है कि बुन्देलखण्ड अवध, कानपुर, हमीरपुर व इटावा में यह सब पानी के अत्यधिक दोहन, उसके रिचार्ज न होने के कारण ज़मीन की नमी खत्म होने, उसमें ज्यादा सूखापन आने, कहीं दूर लगातार हो रही भूगर्भीय हलचल की लहरें यहाँ तक आने व आगरा में पानी में जैविक कूड़े से निकली मीथेन व दूसरी गैसों के इकट्ठे होने के कारण ज़मीन की सतह में अचानक गर्मी बढ़ जाने का परिणाम है।

यह भयावह खतरे का संकेत है। क्योंकि जब-जब पानी का अत्यधिक दोहन होता है तब ज़मीन के अन्दर के पानी का उत्प्लावन बल कम होने या खत्म होने पर जमीन धँस जाती है और उसमें दरारे पड़ जाती हैं। इसे उसी स्थिति में रोका जा सकता है जबकि भूजल के उत्प्लावन बल को बरकरार रखा जाये। पानी समुचित मात्रा में रिचार्ज होता रहे। यह तभी सम्भव है जबकि ग्रामीण शहरी दोनों जगह पानी का दोहन नियंत्रित हो, संरक्षण, भण्डारण हो ताकि वह ज़मीन के अन्दर प्रवेश कर सके।

जल के अत्यधिक दोहन के लिये कौन ज़िम्मेवार है, इस बारे में योजना आयोग के अनुसार भूजल का 80 फीसदी अधिकाधिक उपयोग कृषि क्षेत्र द्वारा होता हैै। इसे बढ़ाने में सरकार द्वारा बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी ज़िम्मेवार है। आयोग की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि यह सब्सिडी कम की जाये। वह, इस रूप में दी जाये ताकि किसान भूजल का उचित उपयोग करें।

सब्सिडी के बदले किसान को निश्चित धनराशि नकद दी जाये। इससे भूजल का संरक्षण होगा तथा विद्युत क्षेत्र पर भी आर्थिक बोझ कम होगा। ‘विश्व बैंक की मानें तो भूजल का सर्वाधिक 92 फीसदी उपयोग और सतही जल का 89 फीसदी उपयोग कृषि में होता है। 5 फीसदी भूजल व 2 फीसदी सतही जल उद्योग में, 3 फीसदी भूजल व 9 फीसदी सतही जल घरेलू उपयोग में लाया जाता है।

आजादी के समय देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति पानी की उपयोगिता 5,000 क्यूबिक मीटर थी जबकि उस समय आबादी 400 मिलियन थी। यह उपयोगिता कम होकर वर्ष 2000 में 2000 क्यूबिक मीटर रह गई और आबादी 1000 मिलियन पार कर गई। 2025 में यह घटकर 1500 क्यूबिक मीटर रह जाएगी जबकि आबादी 1390 मिलियन हो जाएगी। यह आँकड़ा 2050 तक 1000 क्यूबिक मीटर हीे रह जाएगा और आबादी 1600 मिलियन पार कर जाएगी।

योजना आयोग के मुताबिक देश का 29 फीसदी इलाका पानी की समस्या से जूझ रहा है। वह भले जल संकट की सारी जिम्मेवारी कृषि क्षेत्र पर डाले लेकिन हक़ीकत यह है कि जल संकट गहराने में उद्योगों की अहम भूमिका है। असल में अधिकाधिक पानी फ़ैक्टरियाँ ही पी रही हैं। विश्व बैंक का मानना है कि कई बार फ़ैक्टरियाँ एक ही बार में उतना पानी ज़मीन से खींच लेती हैं जितना एक गाँव पूरे महीने में भी न खींच पाये।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार कृषि जिस रफ्तार से ज़मीन से पानी लेेेती है, प्रकृति उसकी पूर्ति कर देती है। यह सच है कि पानी ही देश के औद्योगिक प्रतिष्ठानों की रीढ़ है। यदि यह खत्म हो गया तो सारा विकास धरा-का-धरा रह जाएगा। सवाल यह उठता है कि जिस देश में भूतल व सतही विभिन्न साधनों के माध्यम से पानी की उपलब्धता 2300 अरब घनमीटर है और जहाँ नदियों का जाल बिछा हो, सालाना औसत वर्षा 100 सेमी से भी अधिक होती है, जिससे 4000 अरब घनमीटर पानी मिलता हो, वहाँ पानी का अकाल क्यों है?

असलियत यह है कि वर्षा से मिलने वाले जल में से 47 फीसदी यानी 1869 अरब घन मीटर पानी नदियों में चला जाता है। इसमें से 1132 अरब घनमीटर पानी उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन इसमें से भी 37 फीसदी उचित भण्डारण-संरक्षण के अभाव में समुद्र में बेकार चला जाता है जो बचाया जा सकता है। इससे काफी हद तक पानी की समस्या का हल निकाला जा सकता है। ऐसी स्थिति में वर्षाजल संरक्षण और उसका उचित प्रबन्धन ही एकमात्र रास्ता है।

यह तभी सम्भव है जब जोहड़ों, तालाबों के निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया जाये। पुराने तालाबों को पुर्नजीवित किया जाये। खेतों में सिंचाई हेतु पक्की नालियों का निर्माण किया जाये अन्यथा पीवीसी पाइप का उपयोग किया जाये। बहाव क्षेत्र में बाँध बनाकर उसे इकट्ठा किया जाये ताकि वह समुद्र में बेकार न जा सके।

बोरिंग-ट्यूबवेल पर नियंत्रण लगाया जाये, उन पर भारी कर लगाया जाये ताकि पानी की बर्बादी रोकी जा सके। नदीजोड़ के स्थान पर भूजल संरक्षण व नियंत्रण के यथासम्भव उपाय किये जाएँ, तभी पानी की समस्या का कारगर हल निकाल पाने में समर्थ होंगे। जरूरी है पानी की उपलब्धता के गणित को शासन व समाज समझे। यह आम जन की जागरुकता-सहभागिता से ही सम्भव है अन्यथा नहीं। वास्तव में भूजल संरक्षण की खातिर देशव्यापी अभियान चलाया जाना अतिआवश्यक है ताकि भूजल का समुचित विकास व नियमन सुचारू रूप से हो सके।

गौरतलब है कि भूजल का 80 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल तो हम कर हीे चुके हैं और इसके बाद भी उसके दोेहन का काम बराबर जारी है। जिस तेजी से हम भूजल का दोहन और उसकी बर्बादी कर रहे हैं, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। कारण हम उसका मूल्य तो अदा नहीं करते। जब उसका मूल्य अदा करेंगे, तब हमें उसकी अहमियत समझ में आएगी। फिर सरकार भी इस ओर से उदासीन है। अब तो बड़े शहर ही नहीं, छोटे शहरों में भी सबमर्सिबल पम्पों की भरमार है। कारण नगर परिषद जलापूर्ति करने में असमर्थ हैं।

बड़े शहरों में तो पुलिस वाले इन पम्पों को लगाने के एवज में 20 से 30 हजार रुपये बतौर रिश्वत ले जाते हैं। लगवाने वाला इसकी धनराशि निगम में जमा नहीं करवाना चाहता, पुलिस को देकर कम में ही अपना पिण्ड छुड़ा लेता है। यह देश की राजधानी में भी खुलेआम हो रहा है। विडम्बना यह कि केन्द्र व राज्य सरकार सब जानते समझते हुए मौन हैं। दुख इस बात का है कि हम यह नहीं सोचते कि जब यह नहीं मिलेगा, तब क्या होगा? यह भी सच है कि इस चुनौती का सामना अकेले सरकार के बस की बात नहीं है।

यह आम आदमी के सहयोग और जागरुकता से ही होगा। इसलिये हर स्तर पर संरक्षण की महती आवश्यकता है। भारतीय जीवन में जल को जीवन का आधार माना गया है और इसी दृष्टिकोण के तहत इसे हमेशा से सहेजने की परम्परा रही है। विडम्बना यह है कि पानी के मामले में इतने भयावह हालात होने पर भी न हम न हमारी सरकार 1992 में रियो डि जेनेरो में सम्पन्न ‘पृथ्वी दिवस’ पर दी गई चेतावनी कि ‘2025 में समूचे विश्व में पानी के लिये लड़ाईयाँ होंगी’ पर कतई ध्यान नहीं दे रहे हैं और ‘पानी का मसला राज्य का विषय है’ कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।

जबकि राज्यों के नीति-नियन्ता समाज और जीवन के लिये अमृत तुल्य व सबसे बड़े आवश्यक तत्व समझे जाने वालेे पानी की ओर से उदासीन हो राजनीति में उलझे हुए हैं। इन हालात में न तो वर्षाजल संरक्षण और न पीने के पानी की समस्या का निदान सम्भव है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। हमें कोटा के उदाहरण से सबक लेना चाहिए जिसके चलते आज वहाँ के परम्परागत जल स्रोत न केवल पुर्नजीवित हुए बल्कि वहाँ के लोगों के पीने के पानी की समस्या का भी हल सम्भव हो सका। यह सब वहाँ के समाज के जागरण और ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ के जरिये ही सम्भव हो सके। इसलिये रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ आज समय की सबसे बड़ी जरूरत है। इसे हमें जान-समझ लेना चाहिए।

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