यह कैसा पुनर्वास?

पचनौर, चन्दौली, मधकौल, सोनाखान, अखता आदि गाँवों के खेतों में पड़ा बालू और उसके फलस्वरूप उजड़े हुए लोग कब तक दिल्ली या पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात तथा हरियाणा के अपेक्षाकृत समृद्ध शहरों के फुटपाथों पर सोने के लिए अभिशप्त होंगे? इन सवालों का उत्तर आज नहीं तो कल खोजना ही होगा। इसका भी उत्तर खोजना होगा कि कुसहा से बनी पुनर्वास नीति भविष्य की सभी बाढ़ों में कितनी दूर तक लागू की जायेगी?

बिहार में तटबंधों के निर्माण के फलस्वरूप लोगों का जो विस्थापन हुआ और जिनका तथाकथित रूप से जैसा भी पुनर्वास किया गया उसके पीछे कुछ निश्चित मान्यताएं काम कर रही थीं। पहली मान्यता तो यह थी कि नदी के जिस स्वरूप या धारा को ध्यान में रखकर तटबंधों का निर्माण किया जा रहा है, उसमें भविष्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा। इसलिए जब यह प्रस्ताव किया गया कि लोग तटबंधों के बाहर पुनर्वास में रहेंगे और खेती तटबंधों के बीच जाकर अपनी पुश्तैनी जमीन पर करेंगे तब यह मान लिया गया था कि खेती की जमीन में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आयेगा। दूसरी मान्यता थी कि तटबंधों के अंदर की जमीन पर केवल नदी की उर्वरक गाद ही फैलेगी और उन खेतों की उत्पादकता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। तीसरी मान्यता थी कि तटबंध कभी टूटेंगे नहीं और इसलिए तटबंधों के बाहर की कन्ट्रीसाइड, पुनर्वास समेत, हमेशा नदी के थपेड़ों से सुरक्षित रहेगी। यह तीनों मान्यताएँ गलत थीं और इंजिनियरों को सच्चाई भी मालुम थी कि तटबंधों के अंदर खेतों में बालू जमा होगा और वह खेती लायक नहीं बचेंगे तथा उनकी उत्पादकता पर नकारात्मक असर पड़ेगा। उन्हें यह भी मालुम था कि तटबंध चाहे कितना भी मजबूत बनाया जायेगा, कभी न कभी यह टूटेगा और प्रलय मचायेगा। फिर भी, बागमती परियोजना का प्रारूप और डिजाइन तैयार करते समय इन तीनों बातों की अनदेखी की गयी और यह एक यक्ष-प्रश्न है कि तकनीक की इन सीमाओं के बारे में इंजीनियरों ने उन राजनीतिज्ञों को बताया या नहीं जिनके हाथों में परियोजना पर निर्णय लेने की अंतिम क्षमता थी। यही बात उन राजनीतिज्ञों पर भी लागू होती है कि क्या उन्होंने इंजीनियरों से योजना के इन विवादित पहलुओं पर जानकारी हासिल करने की कोई कोशिश की कि इनके उत्तर उनके योजना-प्रस्ताव में निहित है या नहीं?

योजना का प्रस्ताव करने वाले इंजीनियरों और उन पर निर्णय लेने वाले राजनीतिज्ञों के पास कोसी परियोजना में पैदा हुई इन समस्याओं का बड़ा अनुभव था और यह सब जानने के लिए उनमें से किसी को अब चीन की ह्नांग हो या अमेरिका की मिसिसिपी नदी की समस्याओं का अध्ययन करने की जरूरत नहीं थी। कोसी की पुनर्वास-समस्या को लेकर बिहार विधान सभा और विधान परिषद् में सरकार कठघरे में खड़ी होती थी जबकि 1963 में डलवा में तथा 1968 में जमालपुर में कोसी अपने तटबंधों को तोड़कर भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं के बारे में संकेत दे चुकी थी। 1966 में कुनौली में भी यही सब होने वाला था मगर नदी ने कन्ट्रीसाईड में बसे लोगों के साथ-साथ योजना में लगे इंजीनियरों को बख्श दिया था। इस तरह से तटबंधों के अंदर की जमीन, पुनर्वास की स्थिति और तथाकथित रूप से बाढ़ से सुरक्षित कन्ट्रीसाइड में रह रहे लोगों की स्थिति-इन सभी से संबद्ध पक्ष वाकिफ थे। भविष्य में होने वाली घटनाओं या परिस्थितियों के प्रति अनजान लोगों को तो शायद समाज और भुक्त-भोगी माफ भी कर दें मगर जान-बूझ कर समाज को विकट परिस्थितियों में ढकेल देने वाले लोगों के साथ क्या व्यवहार होना चाहिये, यह समाज को तय कर लेना चाहिये। इससे इन घटनाओं की पुनरावृत्ति में थोड़ी कमी आयेगी।

नदी के टूटते तटबंधों ने बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को दो हिस्सों में बांटा है। इनमें से एक तो वह लोग हैं जो तटबंधों के निर्माण के कारण विस्थापित होकर पुनर्वास में आये और उसी जगह वह लोग भी थे जिनके गाँव घर पहले से ही उस जगह थे जो पुनर्वास के बगल में पड़ते थे जिनके लिए पुनर्वासित लोग बिन बुलाये मेहमान थे। तटबंध टूटने पर नदी इन्हीं दो तरह के लोगों पर चोट करती है। कोसी तटबंध में 2008 में कुसहा में जो दरार पड़ी उसने इन दोनों तरह के लोगों को छोड़ कर तीसरे तरह के लोगों को अपना शिकार बनाया जिनका पिछले पचास वर्षों से कोसी की बाढ़ से कोई वास्ता ही नहीं पड़ा था। ऐसे लोगों के लिए बिहार सरकार ने एक नई पुनर्वास नीति बनाई जो निश्चित रूप से सरकार का एक स्वागत योग्य कदम था। इस पुनर्वास नीति को कुसहा दुर्घटना के पीड़ित लोगों के विकास के एक अवसर के रूप में रखा गया। नीति के क्रियान्वयन की भी व्याख्या की गयी। इस बात से भी किसी को मतभेद नहीं हो सकता। लेकिन सवाल है कि क्या इस नीति को अमली जामा पहनाया जाएगा? सरकार के पिछले अनुभव से यह संदिग्ध लगता है।

प्रश्न फिर भी रह जाता है कि क्या रामपुर कंठ या उस तरह के दूसरे गांवों के विस्थापित बिहार सरकार की इस सदश्यता के अधिकारी नहीं थे? क्या उनके साथ या 1987 से लेकर 2009 के बीच बिहार की अन्य नदियों के तटबंधों में पड़ी 370 दरारों के सामने पड़े लोग किसी दूसरी दुनियाँ के थे जिन्हें किसी मदद की जरूरत नहीं थी? हम 370 दरारों की बात केवल इसलिए कर रहे हैं कि यह सरकार के तेइस वर्षों की उपलब्धि और स्वीकारोक्ति है। तटबंधों में 104 दरारें तो अकेले 1987 में पड़ी थीं। कभी भविष्य में, ईश्वर न करे, कुसहा जैसी त्रासदी की पुनरावृत्ति हो जाए तो क्या उस समय की सरकार उन लोगों की मदद करने में उसी तरह से टाल-मटोल करेगी जैसा कि वह रामपुर कंठ के बाढ़ पीड़ितों के साथ कर रही है और वह शायद इसलिए कि उनका एक बार कभी पुनर्वास किया जा चुका है? क्या रक्सिया या तिलक ताजपुर के बाढ़ पीड़ितों की सरकार से कोई अपेक्षा सिर्फ इसलिए नहीं होनी चाहिये कि यह गाँव उत्तर में, तटबंधों में पड़ी दरार को हर साल भोगते हैं और उनको यह त्रासदी भोगने की अब तक आदत पड़ जानी चाहिये थी? पचनौर, चन्दौली, मधकौल, सोनाखान, अखता आदि गाँवों के खेतों में पड़ा बालू और उसके फलस्वरूप उजड़े हुए लोग कब तक दिल्ली या पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात तथा हरियाणा के अपेक्षाकृत समृद्ध शहरों के फुटपाथों पर सोने के लिए अभिशप्त होंगे? इन सवालों का उत्तर आज नहीं तो कल खोजना ही होगा। इसका भी उत्तर खोजना होगा कि कुसहा से बनी पुनर्वास नीति भविष्य की सभी बाढ़ों में कितनी दूर तक लागू की जायेगी?

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