यह रावत सरकार का स्खलन है

27 Aug 2016
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गंगापथ पर कांवड़ यात्रा एक परम्परा के मजबूत होते जाने की यात्रा है। व्यक्तिगत कांवड़, समूह में बदली फिर उसके संगठन बनने लगे और अब उसमें एनजीओ, कॉरपोरेट से लेकर राजनीति सभी का समावेश हो गया। पिछले दो दशकों में गंगा पथ पर कांवड़ ले जाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। हरिद्वार, ऋषीकेश और गंगोत्री से हजारों लोग जल भरते हैं और अपने क्षेत्र के शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। ज्यादातर कांवड़िए दिल्ली, एनसीआर और हरियाणा के होते हैं।

गंगापथ पर चलने वाली इस बार की कांवड़ों में एक बदलाव सभी का ध्यान खींच रहा था। कांवड़ियों ने भोले के भगवा ध्वज के साथ तिरंगा भी लगा रखा था। हिंदुत्व के साथ राष्ट्रप्रेम का मेल उत्तराखण्ड की कांग्रेस सरकार को नहीं भाया, यह जुगलबंदी उसे हमेशा ही असहज करती रही है। इसीलिए नैनीताल हाईकोर्ट के आदेश का सहारा लेकर सरकार ने फरमान जारी कर दिया कि कोई भी कांवड़ रथ डीजे के साथ गंगोत्री ना जाने पाए, हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए यह निर्णय उचित था, लेकिन पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते सैकड़ों ट्रक अपने बड़े-बड़े स्पीकर लेकर गंगोत्री पहुँच गए, वैसे भी रावत सरकार की परेशानी पर्यावरण को लेकर नहीं बल्कि हिंदुत्व और राष्ट्र के गगनभेदी नारों और गानों से ज्यादा थी।

एक अगस्त को महाशिवरात्री थी इसलिए गंगोत्री से 28 की शाम से अपनी-अपनी दूरी के हिसाब से डाक कांवड़ें निकलने लगी और करीब 50 किलोमीटर नीचे आकर गंगनानी कस्बे के पास भारी भूस्खलन में फँस गई। इसी तरह 29, 30 और 31 को निकलने वाले ट्रक रूपी रथ के पहिए भी यहीं आकर जाम हो गए। राज्य प्रशासन ने लापरवाही का परिचय देते हुए मलवा हटाने के लिये गम्भीर शुरुआती प्रयास नहीं किए और हालात बद से बदतर होते चले गए क्योंकि इन्हीं ट्रकों के बीच कई परिवार भी फँसे हुए थे जिनमें बच्चे और बूढ़े भी शामिल थे। लगातार गिरती बारिश के बीच ये लोग कच्चे पहाड़ों के किनारे 6 रात बिताने पर मजबूर हुए। हरीश रावत ने कहा कि सभी को सुरक्षित बाहर निकालने के लिये हमारी कोशिश जारी है लेकिन सच्चाई ये है कि उन्होंने तब तक तेजी से काम करने को नहीं कहा जब तक कि ये मामला राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बन गया।

पहले पहल सीमा सड़क संगठन या पीडब्ल्यूडी की एकमात्र छोटी मशीन ही मलवा हटाने की कोशिश कर रही थी जबकि ये साफ नजर आ रहा था कि यहाँ मलवा हटाने के लिये बड़े पैमाने पर प्रयासों की जरूरत है। चौतरफा दबाव पड़ने के बाद प्रशासन ने बड़ी मशीने मंगवाई तो ठेकेदार ने मशीनें देने से ही मना कर दिया, कमीशनखोरी के चलते ठेकेदारों को भुगतान समय पर नहीं हो पाता इसीलिए उसने भी ऐनमौके पर मशीन देने से इंकार कर दिया। इसके बाद बड़े अफसरों के हस्तक्षेप के बाद मशीनें आई और मलवा हटाने का काम पूरा हो सका तब तक 5 रातें कांवड़िये और दूसरे श्रद्धालू खुले आसमान के नीचे बिता चुके थे।

कांवड़ियों का आरोप है कि रावत सरकार भगवा और तिरंगे के मेल को अपना दुश्मन समझती है इसीलिए हमारे साथ ऐसा व्यवहार कर रही है, जबकि हमारा राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। वास्तव में कांवड़ियों का तिरंगा लेकर चलना अपनी इमेज बदलने की एक कोशिश भर थी। अक्सर उनपर यातायात बाधित करने और आम लोगों से दुरव्यवहार के आरोप लगते रहे हैं। तिरंगा लेकर कांवड़िए खुद को संजीदा और आस्थावान दिखाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन जो व्यवहार उत्तराखंड की सरकार ने आस्थावानों के साथ दिखाया है उसकी चौतरफा आलोचना हो रही है। केदारनाथ हादसे के बाद वैसे भी उत्तराखंड में तीर्थयात्रियों की आवक बेहद कम हो गई है उसके बावजूद अवैध निर्माण जोर शोर से चालू है। सभी प्रमुख नदियों के पाट के भीतर घुसकर निर्माण किया जा रहा है। दिन-रात बड़ी-बड़ी जेसीबी मशीनें पहाड़ों का सीना चीरकर निर्माणाधीन बाँधों तक पहुँचने का रास्ता बना रही हैं और सरकार का पूरा ध्यान सिर्फ कांवड़ियों के डीजे पर है। गंगा बह रही है लेकिन आशंकित है कि केदारनाथ यदि दोहराया गया तो लोग उसे ही दोष देंगे।
 

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