यज्ञ और पर्यावरण

अनगिनत अज्ञात सूक्ष्म जीवाणु हमारे चारों तरफ वातावरण में और हमारे रोमकूपों, रक्त और जोड़ों में रहते हैं। हवन द्वारा इन सभी का नाश होता है। तपेदिक, चेचक, मलेरिया आदि का इलाज हवन से संभव है। यज्ञ अथवा अग्निहोत्र आज केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रह गया है। यह शोध का विषय भी बन गया है। ‘अमेरिका’ में यज्ञ पर शोध हुए हैं और प्रायोगिक परीक्षणों से पाया गया है कि वृष्टि, जल एवं वायु की शुद्धि, पर्यावरण संतुलन एवं रोग निवारण में यज्ञ की अहम भूमिका है।पर्यावरण से अभिप्राय हमारे चारों ओर फैले उस वातावरण एवं परिवेश से है, जिससे हम घिरे रहते हैं। प्रकृति में मौजूद समस्त जैविक और अजैविक घटक पर्यावरण की संरचना में सहायक हैं, अर्थात् भूमि, जल, वायु, वनस्पति, जंतु, मानव और सूर्य प्रकाश पर्यावरण के घटक हैं। ब्रह्मांड में संभवतः पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा खगोलीय पिंड है, जहां जीवन के अनुकूल प्राकृतिक दशाएं पाई जाती हैं, इसी कारण यहां जीवों का विकास संभव हो सका है। पृथ्वी पर जीवन की निरंतरता बनी रहे, इसके लिए प्रकृति के घटकों का एक निश्चित अनुपात तथा संतुलित रहना जरूरी है, तभी हमारा वर्तमान और भविष्य सुरक्षित रह सकता है।

प्रकृति और मानव का सृष्टि के आरंभ से ही अन्योन्याश्रित संबंध रहा है और मानव के पृथ्वी पर आभिर्भाव के साथ ही आवश्यकताओं का भी सत्य उदय हुआ। आदि मानव का जीवन पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर था। अतः मानव और प्रकृति में एक सामंजस्य था, किंतु आधुनिक युग में मानव की आवश्यकताएं चरम पर हैं, जिसकी पूर्ति के लिए मानव ने प्रकृति का निर्दयतापूर्वक दोहन शुरू कर दिया। परिणाम आप सबके सामने है- ‘पर्यावरण प्रदूषण’, जो आधुनिकता की देन हैं। प्रदूषण के कारण ही पूरा ब्रह्मांड संकट में है।

हमारी प्राचीन धार्मिक परंपराएं इतनी महत्वपूर्ण हैं कि समूचे जन-जीवन को सुख-समृद्धि प्रदान करने के साथ ही ये विज्ञान सम्मत भी हैं। उदाहरणस्वरूप यज्ञ को ही लें यज्ञ एक ठोस वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। महर्षि दयानंद ने भी कहा था, “यदि पर्यावरण की शुद्धि एवं सुखों की वृद्धि चाहते हो तो नित्य प्रातः सायं प्रत्येक घर में हवन-यज्ञ करो।”

‘यज्ञ’ एक व्यापक शब्द है और इसका रूप भी व्यापक है। श्रीमद्भगद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग समझाते हुए दान, पुण्य, सेवा, उपकार, रक्षा आदि सत्कर्मों को यज्ञ की संज्ञा देते हैं। ‘यज्ञ वै विष्णु’ अर्थात् यज्ञ विष्णु का स्वरूप है और विष्णु व्यापक हैं। ज्ञान, ध्यान, आराधना और चिंतन यज्ञ हैं, सेवा भी यज्ञ है और देश सेवा सबसे बड़ा यज्ञ है।

यज्ञ की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। ऋषि वनों में रहते हुए प्रातः सायं दैनिक यज्ञ किया करते थे। पंच महायज्ञों का प्रचलन था। धार्मिक अनुष्ठान के समय वृक्षों में भगवान का वास मानकर पीपल, बरगद, आम, अशोक, बिल्व, पारिजात, आंवला आदि की पूजा की जाती थी। ऋषि-मुनि, यज्ञ को सफलता और सिद्धिकारक मानते थे और वायुमंडल की शुद्धि का कारक भी मानते थे। यही कारण था कि उस समय लोग निरोग और दीर्घायु होते थे।

मध्यकाल में यज्ञ को विकृत तथा विलुप्त होते देख महर्षि दयानंद ने यज्ञ को ज्ञान, विज्ञान का कारक बनाकर उसे आध्यात्मिक मंच पर पुनः प्रतिष्ठित किया और कहा, “एते पंच महायज्ञा मनुष्यैर्नित्यं कर्त्व्याः।” यज्ञ का संबंध मन से है और शुभ संस्कार मन के साथ रहते हैं। इसीलिए मनु ने भी कहा है, “ऋषि यज्ञं देव यज्ञं भूत यज्ञं च सर्वदा, नृयज्ञं, पितृयज्ञं च यथा शक्ति न हाययेत्।” कहने का तात्पर्य यह कि सभी ने यज्ञ करने पर जोर दिया।

यज्ञ का प्रभाव


यज्ञ से मानव के भौतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, प्राकृतिक एवं व्यक्तिगत उद्देश्य पूर्ण होते हैं। यज्ञ किसी-न-किसी इच्छा की पूर्ति के लिए किया जाता है। ‘स्वर्ग कामोयज्ञेत’ अर्थात स्वर्ग की कामना से यज्ञ करो। यज्ञ से जीवन में सुख, शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया तो चार पुत्रों की प्राप्ति हुई। अतः यज्ञ समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाला है। हमारे पूर्वज भी कहते थे कि बिना यज्ञ-हवन का घर आर्य का घर नहीं होता।

अग्नि अमूल्य है जीवन का संबंध आरोग्यता से है और आरोग्यता का संबंध यज्ञ से। अनगिनत अज्ञात सूक्ष्म जीवाणु हमारे चारों तरफ वातावरण में और हमारे रोमकूपों, रक्त और जोड़ों में रहते हैं। हवन द्वारा इन सभी का नाश होता है। तपेदिक, चेचक, मलेरिया आदि का इलाज हवन से संभव है। जिस घर में प्रतिदिन हवन होता है, वह घर बीमारियों से बचा रहता है। मनु के अनुसार, “यज्ञ-व्रतादि से मानव शरीर व आत्मा को ब्रह्म प्राप्ति के योग् बनाया जाता है। यज्ञ से ही तपने वाला सूर्य कल्याणकारी बनता है और यज्ञ से ही जीवनाधार पर्जन्य (बादल) कल्याणकारी बनकर बरसता है। ‘यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञकर्म समुदभवः’ अतः यज्ञ में प्राणि-मात्र के सुखी होने की कामना निहित है।”

यज्ञ एवं शोध


यज्ञ अथवा अग्निहोत्र आज केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रह गया है। यह शोध का विषय भी बन गया है। ‘अमेरिका’ में यज्ञ पर शोध हुए हैं और प्रायोगिक परीक्षणों से पाया गया है कि वृष्टि, जल एवं वायु की शुद्धि, पर्यावरण संतुलन एवं रोग निवारण में यज्ञ की अहम भूमिका है।

चेचक के टीके के आविष्कारक डॉ. हैफकिन का कथन है ‘घी जलाने से रोग के कीटाणु मर जाते हैं।’ फ्रांस के वैज्ञानिक प्रो. ट्रिलबिर्ट कहते हैं, “जली हुई शक्कर में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति हैं। इससे टी. बी., चेचक, हैजा आदि बीमारियां तुरंत नष्ट हो जाती हैं।” अंग्रेजी शासनकाल में मद्रास के सेनिटरी कमिश्नर डॉ. कर्नल किंग आई.एम.एस. ने कहा, “घी और चावल में केसर मिलाकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।”

आज अत्यधिक धुम्रपान, अंधाधुंद पेट्रोलियम पदार्थों के प्रयोग से बढ़ता प्रदूषण तथा विषैली गैसें चिंता का विषय, जिसका प्रतिकार यज्ञ है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. स्वामी सत्यप्रकाश ने भी कहा है, “यज्ञ में बहुत स्वास्थ्यप्रद उपयोगी ओजोन तथा फारमेल्डिहाइड गैसें भी उत्पन्न होती हैं। ओजोन ऑक्सीजन से भी ज्यादा लाभकारी एवं स्वास्थ्यवर्द्धक है। यह ठोस रूप में प्रायः समुद्र के किनारे पाई जाती है, जिसे हम अपने घर में ही यज्ञ से पा सकते हैं।”

हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने वैज्ञानिक आधार पर शोध करके सामग्री व समिधाओं का चयन किया था। जैसे-बड़, पीपल, आम, बिल्व, पलाश, शमी, गूलर, अशोक, पारिजात, आंवला व मौलश्री वृक्षों के समिधाओं का घी सहित यज्ञ-हवन में विधान किया था, जो आज विज्ञान सम्मत है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य पंचभूतों की शुद्धि है, जो हमारे पर्यावरण का अंग हैं। यज्ञ का वैदिक उद्देश्य भी पर्यावरण शुद्धि एवं संतुलन है। यज्ञ-विज्ञान का नियम है कि जब कोई पदार्थ अग्नि में डाला जाता है तो अग्नि उस पदार्थ के स्थूल रूप को तोड़कर सूक्ष्म बना देती है। इसलिए यजुर्वेद में अग्नि को ‘धूरसि’ कहा जाता है।

महर्षियों ने इसका अर्थ दिया है कि भौतिक अग्नि पदार्थों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर उनकी क्रियाशीलता उतनी ही बढ़ जाती है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। जैसे अणु से सूक्ष्म परमाणु और परमाणु से सूक्ष्म इलेक्ट्रान होता है। अतः ये क्रमानुसार एक-दूसरे से ज्यादा क्रियाशील एवं गतिशील है। यज्ञ में यह सिद्धांत एक साथ काम करते हैं। यज्ञ में डाल गई समिधा अग्नि द्वारा विघटति होकर सूक्ष्म बनती है, वहीं दूसरी तरफ वही सूक्ष्म पदार्थ अधिक क्रियाशील एवं प्रभावी होकर विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।

एक चम्मच घी एक आदमी खाता है तो उसकी लाभ-हानि सिर्फ खाने वाले आदमी तक ही सीमित है, परंतु यज्ञ कुंड में एक चम्मच घी अनेक व्यक्तियों को लाभ पहुंचाता है। जिस घर में हवन होता है, यज्ञाग्नि के प्रभाव से वहां की वायु गर्म होकर हल्की होकर फैलने लगती है और उस खाली स्थान में यज्ञ से उत्पन्न शुद्ध वायु वहां पहुंच जाती है। इसमें विसरणशीलता का वैज्ञानिक नियम काम करता है। इसलिए हम देखते हैं कि किसी पर या कोई स्थान, जहां यज्ञ हुआ रहता है, वहां कई दिनों तक समिधा की खुश्बू विद्यमान रहती है। प्रदूषण आज की विकट समस्या है। इसका कारण एक तो हमारी भोगवती प्रवृत्ति और दूसरा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी है। आज का बढ़ता तापमान, औद्योगीकरण, वृक्षों की कटाई, पॉलीथीन का उपयोग, जल, वायु, मृदा प्रदूषण चरमावस्था में है, जिसके कारण प्राणियों की रक्षा के लिए संरचित हमारे रक्षा कवच, ओजोन परत में छेद होने लगा है।

उद्योगों, कल-कारखानों से गंदगी निकलकर पृथ्वी को दूषित कर रहे हैं बेतरतीब वाहनों से निकलता धुआं, अर्थात कार्बन मोनो-ऑक्साइड गैस से आंखों में जनल, सिर दर्द, अस्थमा, टी.बी. आदि से लोग परेशान हैं। ऐसा लगता है संपूर्ण जैवमंडल विनष्ट हो रहा है। ‘ओ पूर्णतः दः पूर्णमिदं’ को आधुनिक स्वार्थी, भोगलिप्सा में लिप्त मानव अनसुना करके अपने आपकों ही मारने पर तुला है। ओजोन परत में हुए छेद से सूर्य की प्रचंड गर्मी, विध्वंसकारी पराबैंगनी किरणों के रूप में चर्म रोग, कैंसर, आंखों से अंधा होना आदि का संवाहक बन गई है। ऐसे में इस समस्या के समाधान हेतु प्रयासों के साथ क्या हम एक छोटा-सा प्रयास ‘यज्ञ’ के रूप में नहीं कर सकते?

आइए आज से ही हम सब सामूहिक यज्ञ का संकल्प लें।

सहायक प्राध्यापक हिंदी,
एच—2/5, नर्मदा नगर,
विलासपुर (छ.ग.)

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