यमुना

पुनिसिय राम लखन कर जोरी, जमुनहिं कीन्ह प्रणाम वहोरी,
चले ससीय मुदीत दोउ भाई, रवि तनुजा कइ करत बड़ाई।
(रा.च.मा.) अयोध्या काण्ड, दो 111/1

उक्त चौपाइयाँ रामचरितमानस में यमुना के बारे में उद्धृत की गई हैं।

तरणि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

यमुना नदी का अपभ्रंश नाम जमुना भी है इसे कालिंदी और कई नामों से जाना जाता है।

मध्यप्रदेश की उत्तरी सीमा पर यमुना नदी स्थित है। यहाँ एक त्रिभुजाकार आकृति का पठार है। विन्ध्याचल, भाण्डेर और कैमूर पर्वत श्रेणियाँ यहीं स्थित हैं। इससे बेतवा, केन, और चम्बल नदियाँ निकलती हैं जो उत्तर दिशा में प्रवाहित होकर यमुना में विसर्जित हो जाती हैं। बुन्देलखण्ड में यमुना, केन और चन्द्रावल नदियों के बीच का पठारी असमतल भाग ‘तिरहार क्षेत्र’ कहलाता है। उत्तर से यमुना नदी एवं दक्षिण में तीव्र प्रपाती कगार, मध्य उच्च प्रदेश की सीमा बनाते हैं। इस प्रदेश की ऊँचाई पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ती जाती है।

यमुना नदी बाँदा जिले के राजापुर से प्रवाहित होती है। उत्तर की ओर चलने पर बुन्देलखण्ड का पठार यमुना के मैदान में विलीन हो जाता है। चम्बल, यमुना तथा इसकी सहायक नदियों ने अवनालिका अपरदन द्वारा बीहड़ खड्डों का निर्माण कर यहाँ की भूमि को बंजर कर दिया है।

दक्षिण प्रायद्वीप के उत्तरी भाग का ढाल उत्तर की ओर है। इसलिए विन्ध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों में निःसृत होने वाली निर्झरणी उत्तर की ओर प्रवाहित होती है। और गंगा तथा यमुना में मिल जाती हैं। भूगर्भ शास्त्रियों के विचार से पहाड़ी नदियाँ मध्य जीव महाकल्प में टैवियस सागर में बहुत सी तलछट जमा करती थीं। बाद में उत्तर भारत का निर्माण होने पर इनका सम्पर्क गंगा, यमुना नदियों से हो गया।

कालपी


जालौन जिले का कालपी नगर यमुना नदी के किनारे बसा है। इसे गुप्तकालीन कन्नौज राजा वसुदेव ने बसाया था। इस पर मौर्य, शुंग, कृष्णा, वर्द्धन, गुर्जर, प्रतिहार आदि राजवंशों ने शासन किया। कालपी बुन्देलखण्ड का प्रवेश द्वार है, जो कानपुर से 100 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। महाराजा छत्रसाल का कब्जा औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम दिनों में कालपी पर हो गया था। अतः बुन्देलखण्ड की सीमाएँ यहाँ तक थीं। हालाकिं छत्रसाल ने इसे पेशवाओं को दे दिया था। यहाँ यमुना नदी पर जल क्रीड़ाएँ देखते ही बनती हैं। यहाँ यमुना प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की साक्षी रही है। साम्ब, वाराहमिहिर, भवभूति, श्रीपत, अब्दुल रहीम खानकाना, बीरबल, रोपन गुरू, हजरत तिरमिनी, मदार साहब, दीवान औलिया, सुआ बाबा, रसिकेन्द्र, कृष्ण बल्देव वर्मा, बृजमोहन वर्मा और भूषण मालवीय आदि के सान्निध्य ने इस नगरी को गौरवान्वित किया।

कालपी महर्षि पारासर की तपोभूमि, वेदव्यास की जन्मभूमि है। ऐसा कहा जाता है कि महर्षि पारासर के पुत्र वेद व्यास को यमुना- जौ धार के संगम तट पर मत्स्यगंधापुर में केवट पुत्री सत्यवती ने जन्म दिया था। इसी स्थान पर बाल व्यास मंदिर और व्यास मठ हैं। यहाँ के अन्य उल्लेखनीय स्थल हैं- पुराणकालीन सूर्य मंदिर के भग्नावशेष, कटहा ग्राम में कर्दम ऋषि का आश्रम, कर्दम ऋषि का मंदिर, इटौरा (अकबरपुर) में रोपन गुरू की समाधि (जिसका निर्माण स्वयं अकबर ने यहाँ आकर करवाया था), कालपी का किला (1857 की क्रांति का मंत्रणा केंद्र), बीरबल का रंगमहल, लंका मीनार (उत्तर भारत में रावण का स्मारक), जालौन में मराठाकालीन महल, बावड़ियाँ, ताई-बाई महल, बाराखम्भा भवन (कोंच), रामलला मंदिर, (कोंच, लक्ष्मीबाई ने 1857 में इस मंदिर में विश्राम किया था) माहिल तालाब (उरई), माहिल महल के ध्वंसावशेष, चौड़िया ताल, उरई के ठडेश्वरी मंदिर, रामपुरा का भैरव मंदिर, खेड़ा मंदिर, शारदा देवी मंदिर, पार्श्वनाथ जैन मंदिर, (रूरामती), कालपी का पाहूलाल मंदिर, ढोहेश्वर मंदिर, बड़ा गणेश मंदिर, कोंच में तकिया हजरत खुर्रमशाह, तकिया कलंदर शाह और जामा मस्जिद।

जालौन जिले के उत्तरी सीमा पर जगम्मनपुर के पास पंचनदा स्थल पर चंबल, कुँआरी, सिन्ध तथा पहुँज आदि पाँच नदियों का संगम है जिसे भारत का मिनी संगम कहा जाता है। इसके पास चार शताब्दी पुराने संत मुकुंदमन की समाधि स्थित है। जहाँ पंचनद के उत्तर में यमुना नदी बहती है। यहीं इसी नदी के किनारे महाभारत काल में युधिष्ठिर ने जयंती माता की स्थापना की थी।

तत् सर्वम् रक्षय में देवी जयंती पापनाशनी।

कहते हैं कि स्वयं वेद व्यास के द्वारा युधिष्ठिर ने माँ जयंती की विधिवत प्राण प्रतिष्ठा कराई थी। और उन्होंने माँ से वरदान माँगा था कि जो यहाँ आए उनके मनोरथ पूर्ण होवें। इसके साथ ही सात देवियों कुम्भेर की माता, नावली की माता आदि की भी स्थापना हुई थी जिन्हें जयंती की सहोदरी कहते हैं। माँ जयंती पाताल लोक से पुनः प्रकट हुई थी और पाण्डवों को निष्पाप किया था।

कल्प वृक्ष


हमीरपुर में यमुना नदी के तट पर सीधी कगार पर विशाल कल्प वृक्ष खड़ा है जिसका वानस्पतिक नाम ‘एडमोनिया डिजीडेटा’ है। तट पर स्थित होने के कारण भू-क्षरण आदि से इसके नष्ट होने की सम्भावना है। अतः इसे संरक्षित किया जाना अत्यंत आवश्यक है। कल्प वृक्ष पीपल और वट वृक्षों की ही तरह विशाल होते हैं। जो प्रायः दक्षिणी भारत में प्रचुरता से मिलते हैं। इसे स्थानीय भाषा में गोरख इमली कहते हैं। इनका तना मोटा होता है। फूल सफेद, लौकी के समान फल लगते हैं। जिनका स्वाद खट्टा होता है। इसकी पत्तियाँ अँगुलियों जैसी होती है। जिनसे गुर्दे के रोगों का शमन होता है। धार्मिक महत्व के कारण इसकी परिक्रमा एवं पूजा भी की जाती है। ताकि मनोकामनाओं की पूर्ति हो सके। इसका विस्तृत उल्लेख महाभारत में है। इसके अंग-प्रत्यंग में देवता निवास करते हैं। ऐसी मान्यता है कि देवासुर संग्राम के समय समुद्र मंथन के 14 रत्नों में कल्प वृक्ष भी उनमें से एक था।

सरस्वती बनाम् यमुना-नदियों के मार्ग परिवर्तनशील रहे हैं। क्योंकि वैदिक काल की कुछ नदियाँ अब अस्तित्व में नहीं हैं। जैसे सरस्वती नदी। लेकिन डीएन वाडिया की किताब ‘जियोलॉजी ऑफ इण्डिया’ में उल्लेख है कि आजकल की यमुना नदी ही उस नदी का नाम है। जिसे वैदिक काल में सरस्वती कहते थे। वही सरस्वती अपना मार्ग बदल लेने पर जमुना कहलाई। परन्तु जमुना नदी का नाम ऋग्वेद की उन कथाओं में आया है जो दसवें मंडल की कथाओं में बहुत प्राचीन मानी गई हैं। पाँचवें मण्डल के 92 सूक्त की 17वीं ऋचा में जमुना के पास ढेरों घोड़ों का पाया जाना कहा गया है। वैदिक काल की एक शाखा का नाम तृत्सु था। तृत्सु लोगों का नेता सुदास था। महर्षि वशिष्ठ इसी वंश के थे। ऋग्वेद के सातवें मण्डल के 18 वें सूक्त 19 वीं ऋचा में लिखा है कि ‘जमुना नदी और तृत्सु लोगों ने इन्द्र की सहायता की और इन्द्र ने मेद नामक अनार्य से उनका सब धन छुड़ा लिया।’ इस कथा से ज्ञात होता है कि जमुना के तट पर आर्यों की एक शाखा ने अनार्यों की एक शाखा को हरा कर उनका सर्वस्व छीन लिया था। ऋग्वेद में यह लिखा है कि वशिष्ठ वंश को लोगों ने जमुना को पार करके मेद अनार्य को मार डाला। ऋग्वेद में जमुना और सरस्वती का नाम लिया गया है। और दोनों की प्रार्थना की गई है।

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