जल संकट : कारण और निवारण

आज भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के अनेक देश सूखा और जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। आज मनुष्य मंगल ग्रह पर जल की खोज में लगा हुआ है, लेकिन भारत सहित अनेक विकासशील देशों के अनेक गाँवों में आज भी पीने योग्य शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है।

दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है, परंतु पीने योग्य मीठा जल मात्र 3 प्रतिशत है, शेष भाग खारा जल है। इसमें से भी मात्र एक प्रतिशत मीठे जल का ही वास्तव में हम उपयोग कर पाते हैं। धरती पर उपलब्ध यह संपूर्ण जल निर्दिष्ट जलचक्र में चक्कर लगाता रहता है। सामान्यतः मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों और तालाबों में, 38 प्रतिशत मृदा नाम, 8 प्रतिशत वाष्प, 1 प्रतिशत नदियों और 1 प्रतिशत वनस्पति में निहित है। आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से जल का प्रदूषण और जल की खपत बढ़ने के कारण जलचक्र बिगड़़ता जा रहा है। तीसरी दुनिया के देश इससे ज्यादा पीड़ित हैं। यह सच है कि विश्व में उपलब्ध कुल जल की मात्रा आज भी उतनी है जितनी कि 2000 वर्ष पूर्व थी, बस फर्क इतना है कि उस समय पृथ्वी की जनसंख्या आज की तुलना में मात्र 3 प्रतिशत ही थी।

सूखा अचानक नहीं पड़ता, यह भूकंप के समान अचानक घटित न होकर शनैः शनैः आगे बढ़ता है। जनसंख्या विस्फोट, जल संसाधनों का अति उपयोग/दुरुपयोग, पर्यावरण की क्षति तथा जल प्रबंधन की दुर्व्यवस्था के कारण भारत के कई राज्य जल संकट की त्रासदी भोग रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद 55 वर्षों में देश ने काफी वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति की है। सूचना प्रौद्योगिकी में यह अग्रणी देश बन गया है लेकिन सभी के लिए जल की व्यवस्था करने में काफी पीछे है। आज भी देश में कई बीमारियों का एकमात्र कारण प्रदूषित जल है।सूखा अचानक नहीं पड़ता, यह भूकंप के समान अचानक घटित न होकर शनैः शनैः आगे बढ़ता है। जनसंख्या विस्फोट, जल संसाधनों का अति उपयोग/दुरुपयोग, पर्यावरण की क्षति तथा जल प्रबंधन की दुर्व्यवस्था के कारण भारत के कई राज्य जल संकट की त्रासदी भोग रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद 55 वर्षों में देश ने काफी वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति की है। सूचना प्रौद्योगिकी में यह एक अग्रणी देश बन गया है लेकिन सभी के लिए जल की व्यवस्था करने में काफी पीछे है। आज भी देश में कई बीमारियों का एकमात्र कारण प्रदूषित जल है।

जल संकट का एकमात्र कारण यह नहीं है कि वर्षा की मात्रा निरंतर कम होती जा रही है। इजराइल जैसे देशों में जहाँ वर्षा का औसत 25 से.मी. से भी कम है, वहाँ भी जीवन चल रहा है। वहाँ जल की एक बूँद व्यर्थ नहीं जाती। वहाँ जल प्रबंधन तकनीक अति विकसित होकर जल की कमी का आभास नहीं होने देती। भारत में 15 प्रतिशत जल का उपयोग होता है, शेष जल बहकर समुद्र में चला जाता है। शहरों एवं उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ नदियों के जल को प्रदूषित करके पीने योग्य नहीं रहने देते। जल की माँग निरंतर बढ़ती जा रही है। प्रति व्यक्ति मीठे जल की उपलब्धि जो सन् 1994 में 6000 घन मीटर थी, घटकर सन् 2000 में मात्र 2300 घन मीटर रह गई है। जनसंख्या की वृद्धि दर और जल की बढ़ती खपत को देखते हुए यह आंकड़ा सन् 2025 तक मात्र 1600 घन मीटर हो जाने का अनुमान है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था ने अनुमान लगाया है कि अगले 29 वर्षों में ही भारत में जल की माँग 50 प्रतिशत बढ़ जाएगी।

विभिन्न वर्षों में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में जल की माँग को निम्न तालिका में दर्शाया गया हैः

विभिन्न वर्षों एवं विभिन्न क्षेत्रों में भारत में जल की माँग (बिलियन क्यूबिक मीटर)

क्षेत्र

वर्ष

2000

2025

2050

घरेलू उपयोग

42

73

102

सिंचाई

541

910

1072

उद्योग

08

22

63

ऊर्जा

02

15

130

अन्य

41

72

80

कुल

634

1092

1447

स्रोतः सेंट्रल वाटर कमीशन बेसिन प्लानिंग डारेक्टोरेट, भारत सरकार 1999

 

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में जल की माँग निरंतर बढ़ती जा रही है। आने वाले वर्षों में जल संकट बद से बदतर होने वाला है।

राष्ट्रीय जलनीति 1987 के अनुसार, जल प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। यह मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है और बहुमूल्य संपदा है। प्रकृति ने हवा और जल प्रत्येक जीव के लिए निःशुल्क प्रदान किए हैं। लेकिन आज अमीर व्यक्तियों ने भूजल पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया है। भारत में बढ़ते हुए जल संकट के कुछ मुख्य कारण निम्नानुसार हैं :

1. भारत में कानून के तहत भूमि के मालिक को जल का भी मालिकाना हक दिया जाता है जबकि भूमिगत जल साझा संसाधन है।
2. बोरवेल प्रौ़द्योगिकी से धरती के गर्भ से अंधाधुंध जल खींचा जा रहा है। जितना जल वर्षा से पृथ्वी में समाता है, उससे अधिक हम निकाल रहे हैं।
3. साफ एवं स्वच्छ जल भी प्रदूषित होता जा रहा है।
4. जल संरक्षण, जल का सही ढंग से इस्तेमाल, जल का पुनः इस्तेमाल और भूजल की रिचार्जिंग पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
5. राजनैतिक एवं प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी, गलत प्राथमिकताएँ, जनता की उदासीनता एवं सबसे प्रमुख ऊपर से नीचे तक फैली भ्रष्टाचार की संस्कृति। जल संसाधन वृद्धि योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद समस्याग्रस्त गाँवों की संख्या उतनी की उतनी ही बनी रहती है।

एक आँकड़े के अनुसार यदि हम अपने देश के जमीनी क्षेत्रफल में से मात्र 5 प्रतिशत में ही गिरने वाले वर्षा के जल का संग्रहण कर सके तो एक बिलियन लोगों को 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मिल सकता है।हमारे देश की औसत वर्षा 1170 मि.मी. है जो विश्व के समृद्धशाली भाग पश्चिमी अमेरिका की औसत वर्षा से 6 गुना ज्यादा है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि किसी क्षेत्र की समृद्धि वहाँ की औसत वर्षा की समानुपाती नहीं होती। प्रश्न यह है कि आने वाली वर्षा के कितने भाग का हम प्रयोग करते हैं, और कितने भाग को हम बेकार जाने देते हैं। बारिश के पानी को जितना ज्यादा हम जमीन के भीतर जाने देकर भूजल संग्रहण करेंगे उतना ही हम जल संकट को दूर रखेंगे और मृदा अपरदन रोकते हुए देश को सूखे और अकाल से बचा सकेंगे। अतः आवश्यकता है वर्षा की एक-एक बूँद का भूमिगत संग्रहण करके भविष्य के लिए एक सुरक्षा निधि बनाई जाए। एक आँकड़े के अनुसार यदि हम अपने देश के जमीनी क्षेत्रफल में से मात्र 5 प्रतिशत में ही गिरने वाले वर्षा के जल का संग्रहण कर सके तो एक बिलियन लोगों को 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मिल सकता है।

वर्तमान में वर्षा का 85 प्रतिशत जल बरसाती नदियों के रास्ते समुद्र में बह जाता है। इससे निचले इलाकों में बाढ़ आ जाती है। यदि इस जल को भू-गर्भ की टंकी में डाल दिए जाए तो दो तरफा लाभ होगा। एक तो बाढ़ का समाधान होगा, दूसरी तरफ भूजल स्तर बढ़ेगा। अतः जल संग्रहण के लिए ठोस नीति एंव कदम की आवश्यकता है।

इस संदर्भ में अमेरिका में टैनेसी वैली अथॉरिटी ने ऐसा ही कर दिखाया है। वहाँ बाँध में मिट्टी के भराव की समस्या थी। ऊपर से मिट्टी कटकर आ रही थी। इससे तालाब की क्षमता घट रही थी। इसे रोकने के लिए वहाँ की सरकार ने कानून बनाया कि हर किसान अपने खेत पर अमुक ऊंचाई की मेढ़बंदी करेगा। परिणाम यह हुआ कि वर्षा का जल हर खेत में ठहरने लगा। मिट्टी हर खेत में रुक गई और केवल साफ पानी बाँध में आया। हमारे यहाँ भी इस प्रकार का कानून बनना चाहिए कि हर किसान अमुक ऊंचाई तक मेढ़बंदी करेगा। इसकी ऊंचाई इतनी हो कि फसल को नुकसान न हो। इससे वर्षा का जल अधिक समय तक खेत पर रुकेगा और भूजल स्तर भी बढ़ेगा।

हमारे देश में भी अनेक समाजसेवी सरकारी सहायता की अपेक्षा के बिना ही जल संरक्षण एवं जल संग्रहण जैसे पुनीत कार्य में जुट गए हैं। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) जिले के रालेगाँव सिद्धी के श्री अन्ना हजारे, हिमालय क्षेत्र के श्री सुन्दरलाल बहुगुणा और उनका अभियान तथा रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित तरुण भारत संघ, राजस्थान के श्री राजेन्द्र सिंह आदि के अथक प्रयासों ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि जल संकट के समाधान में पूरे समुदाय की संलग्नता से कोई भी कार्य असंभव नहीं है। श्री राजेन्द्र सिंह और उनके समूह ने 1985 से आज तक 45000 से अधिक जल संरक्षण क्षेत्र बनाए हैं।

पश्चिमी राजस्थान और मिजोरम में अधिकांश घरों में जमीन के भीतर गोल बड़ी-बड़ी टंकियां बनाई जाती हैं। घरों की ढलानदार छतों से वर्षा का पानी पाइपों के द्वारा इन टंकियों में जाता है। पानी ठंडा रखने के लिए इन टंकियों को टाइलों से ढका जाता है। पानी उपलब्ध न होने पर ही इस पानी का उपयोग किया जाता है।

यहाँ पश्चिमी गुजरात का उदाहरण सबसे अनूठा है। बिचियावाड़ा नामक गाँव में लोगों ने मिलकर 12 चैक बाँध बनाए हैं। इन बाँधों पर डेढ़ लाख रुपए की लागत आई। इन बाँधों से वे 3000 एकड़ भूमि की आसानी से सिंचाई कर सकते हैं। इसी तरह भावनगर जिले के खोपाला गाँव के लोगों ने 210 छोटे-छोटे बाँध बनाए हैं। इनके परिणाम भी शीघ्र सामने आ गए हैं। औसत से भी कम वर्षा होने पर भी यहाँ की नहरें वर्ष भर ऊपर तक भरी रहती हैं।

पग-पग रोटी, डग-डग नीर वाला मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र भी जल संकट की त्रासदी से गुजर रहा है। हालांकि शासन के प्रयासों से जनचेतना का श्रीगणेश हुआ है। झाबुआ जिले में 1995 में राज्य शासन ने वर्षा का पानी इकट्ठा करने और जल संरक्षण के लिए एक विशद कार्यक्रम तैयार किया। इससे यहाँ 1000 से अधिक चैक बाँध, 1050 टैंक और 1000 लिफ्ट सिंचाई योजनाएँ चल रही हैं। शासन और जनता के सहयोग से ऐसे प्रयास हर जिले में होने चाहिए।

मध्य प्रदेश में जनभागीदारी से पानी रोको अभियान के तहत जो बहुत से प्रयोग किए गए हैं इनमें उज्जैन जिले में डबरियां बनाकर खेती के पानी की व्यवस्था करने का प्रयोग अनूठा है। खेत का पानी खेत में रोकने की सरंचना का नाम ‘डबरी’ है। सिंचाई को विशाल स्तरीय तथा मध्यम स्तरीय योजनाओं की तुलना में इसे अति लघु योजना कहा जाएगा। इसकी औसत लागत 21 हजार रुपए है और उसका 85 प्रतिशत भाग कृषक स्वयं वहन करता है। शासन को केवल 15 प्रतिशत अंशदान देना है। एक डबरी बनाने में 12 हजार रुपए की कीमत वाली जमीन चाहिए। लगभग 33 फुट चौड़ा, 66 फुट लंबा तथा 5 फुट गहरा गड्डा खोदा जाता है तथा मिट्टी व पत्थर से पीचिंग तैयार की जाती है। कुल 10907 घन फुट क्षेत्र की डबरी तैयार की जाती है। इसमें पानी को एकत्रित कर खेत की जरूरत पूरी हो सकती है। पानी रोकने पर आस-पास का भूजल स्तर भी अपने-आप बढ़ जाता है। जमीन की कीमत के अलावा गड्ढा खोदने व पीचिंग आदि में 7700 रुपए का खर्च अनुमानित है। इसमें से 4700 रुपए किसान तथा 3000 रुपए की कीमत का अनाज शासन देने को तैयार है। यानी 4700 रुपए लगाकर डबरी बनाई जा सकती है। फिलहाल उज्जैन जिलें में ऐसी 50 हजार डबरिया इस वर्ष बनाने का लक्ष्य रखा गया है।

डबरी अभियान इसलिए सराहनीय है कि इसमें किसान को अपनी जमीन पर स्वयं ही डबरी बनाना है। डबरी का प्रबंध तथा उपयोग भी वह स्वयं ही करने वाला है। निजीकरण का यह एक अच्छा उदाहरण है। इसमें आधुनिक यंत्रीकृत तकनीकों का प्रयोग करना भी जरूरी नहीं है। पानी रोको अभियान में जनभागिता का यह श्रेष्ठ उदाहरण है। उज्जैन जिले के इस अभियान का अनुकरण अन्य राज्यों तथा जिलों के कृषकों को भी करना चाहिए।

जल संकट निवारण के लिए कुछ मुख्य सुझाव निम्नानुसार है :

1. जल का संस्कार समाज में हर व्यक्ति को बचपन से ही स्कूलों में दिया जाना चाहिए।
2. जल, जमीन और जंगल तीनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। इन्हें एक साथ देखने, समझने और प्रबंधन करने की आवश्कयता है।
3. जल संवर्धन/संरक्षण कार्य को सामाजिक संस्कारों से जोड़ा जाना चाहिए।
4. जल संवर्धन/संरक्षण के परंपरागत तरीकों की ओर विशेष ध्यानाकर्षण करना।
5. भूजल दोहन अनियंत्रित तरीके से न हो, इसके लिए आवश्यक कानून बनना चाहिए।
6. तालाबों और अन्य जल संसाधनों पर समाज का सामूहिक अधिकार होना चाहिए। अतः इनके निजीकरण पर रोक लगनी चाहिए।
7. मुफ्त बिजली योजना समाप्त की जाए।
8. नदियों और तालाबों को प्रदूषण मुक्त रखा जाए।
9. नदियों और नालों पर चैक डैम बनाए जाए, खेतों में वर्षा पानी को संग्रहीत किया जाए।

आज विश्व में तेल के लिए युद्ध हो रहा है। भविष्य में कहीं ऐसा न हो कि विश्व में जल के लिए युद्ध हो जाए। अतः मनुष्य को अभी से सचेत होना होगा। सोना, चांदी और पेट्रोलियम के बिना जीवन चल सकता है, परंतु बिना पानी के सब कुछ सूना और उजाड़ होगा। अतः हर व्यक्ति को अपनी इस जिम्मेदारी के प्रति सचेत रहना है कि वे ऐसी जीवन शैली तथा प्राथमिकताएं नहीं अपनाएं जिसमें जीवन अमृतरूपी जल का अपव्यय होता हो। भारतीय संस्कृति में जल का वरुण देव के रूप में पूजा-अर्चना की जाती रही है, अतः जल की प्रत्येक बूँद का संरक्षण एवं सदुपयोग करने का कर्तव्य निभाना आवश्यक है।

[लेखक नीमच (म.प्र.) के सीताराम जाजू शासकीय कन्या महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष (अर्थशास्त्र) हैं]

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading