कुआँ
कुआँ

आदिवासियों ने खुद खोजा अपना पानी

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जल दिवस की सार्थकता इसी में निहित है कि हम अपने पारम्परिक जल संसाधनों को सहेज सकें तथा प्रकृति की अनमोल नेमत बारिश के पानी को धरती की कोख तक पहुँचाने के लिये प्रयास कर सकें। अपढ़ और कम समझ की माने जाने वाले आमली फलिया के आदिवासियों ने इस बार जल दिवस पर पूरे समाज को यह सन्देश दिया है कि बातों को जब जमीनी हकीकत में अमल किया जाता है तो हालात बदले जा सकते हैं। आमला फलिया ने तो अपना खोया हुआ कुआँ और पानी दोनों ही फिर से ढूँढ लिया है लेकिन देश के हजारों गाँवों में रहने वाले लोगों को अभी अपना पानी ढूँढना होगा।

'बीते दस सालों से गाँव के लोग पीने के पानी को लेकर खासे परेशान थे। यहाँ से तीन किमी दूर नदी की रेत में से झिरी खोदकर घंटो की मशक्कत के बाद घड़े-दो घड़े पानी मिल जाता तो किस्मत। पशुओं को भी इसी से पानी पिलाया जाता। हमारे बच्चे भूखे-प्यासे पानी के इन्तजार में वहीं बैठे रहते। औरतों को मजदूरी करने से पहले पानी की चिन्ता रहती। बरसात में तो जैसे-तैसे पानी मिल जाता लेकिन बाकी के आठ महीने बूँद-बूँद को मोहताज रहते। ज्यादातर लोग पलायन करते तो जो यहाँ रह जाते, उनके लिये पीने के पानी की बड़ी दिक्कत होती।'
कुपोषण की बात कैसे करें, यहाँ तो लोगों को पीने का साफ पानी तक नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में कुपोषण की बात करना तो बेमानी है।
उन्हें खुद इसकी कल्पना नहीं थी कि इतनी जल्दी कारगर तरीके से हमारे जल संकट का स्थायी समाधान हो सकेगा। यहाँ लोगों ने कभी इस तरह सोचा ही नहीं। अब हम गाँव के लोग कुएँ और पानी का मोल समझ चुके हैं। अब हम अपने कुएँ को कभी खोने नहीं देंगे।
'बड़वानी जिले के दूरस्थ इलाके में फिलहाल हमने पन्द्रह गाँवों को चयनित किया है, जहाँ कुपोषण की दर सबसे ज्यादा है। कुपोषण को तब तक खत्म नहीं किया जा सकता, जब तक कि लोगों को पीने के लिये साफ पानी नहीं मिल सके। प्रदूषित पानी पीने से लोग बीमार होते हैं तथा उनकी सेहत को नुकसान होता है। हमारी कोशिश है कि इलाके में विभिन्न तरह की जल संरचनाएँ विकसित कर पारम्परिक जल संसाधनों का उपयोग करें और इलाके की भौगोलिक परिस्थितियों के कारण बहकर निकल जाने वाले बारिश के पानी को किसी तरह यहाँ रोक सकें। यदि बारिश का पानी रुकने लगे तो पलायन भी रुक सकता है।'
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