अध्यात्म की कर्मवीरता

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यह दुर्भाग्य ही रहा कि सम्पूर्ण दुनिया मृत्यु से इतनी घबराई हुई है कि मृत्यु का परिचय पाने के लिए या उसका रहस्य सुलझाने के लिए जितना चिन्तन-मनन आवश्यक है- मनुष्य जाति ने उतना कभी किया ही नहीं। चिन्तन-मनन का भय और आकर्षण, दोनों आसान तो हैं, पर मृत्यु के निकल जाने के बाद ही मनुष्य इस चिन्तन के योग्य होता है।

यथाकर्म यथाश्रुतम, यथाप्रज्ञा-
‘विभव तृष्णा’
नाभिनन्देत मरणम् नाभिनन्देत जीवितम्

हम इस दुनिया में आए, क्या यह गलती हुई है? पर, क्या सिर्फ भागने से मुक्ति मिल सकती है? हमारा बन्धन जितना बाह्य है, उतना आन्तरिक भी है। इसलिए जीवन का विस्तार छोड़कर वासना पर विजय पाने की ही कोशिश करनी चाहिए। अलिप्त जीवन ही उत्तम जीवन है।

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