अमृत का जहर हो जाना

Published on
4 min read

उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में बहने वाली ‘अमि’ (अमृत) नदी में उद्योगों और नजदीकी शहरों ने इतना ‘जहर’ प्रवाहित कर दिया है कि आसपास बसे लोगों का सांस लेना तक दूभर हो गया है। देश में एक के बाद एक नदियां अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। अधिकांश मछुआरे एवं किसान ‘अमि’ से लाभान्वित होते थे। धान इस इलाके की मुख्य फसल है और गेहूं एवं जौ भी यहां बोई जाती है। परंतु प्रदूषण की वजह से उपज एक तिहाई रह गई है। बोई और रोहू जैसी ताजे पानी की मछलियां अब दिखलाई ही नहीं देतीं। कई हजार मछुआरे या तो शहरी क्षेत्रों में दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं या शराब बेच रहे हैं।

इंद्रपाल सिंह भावुक होकर बचपन में ‘अमि’ नदी से मीठा पानी पीने की याद करते हैं। गांव के बुजुर्ग बताते हैं नदी को अपना यह नाम ‘आम’ और अमृत से मिला है। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के अदिलापार गांव के प्रधान पाल सिंह का कहना है कि 136 कि.मी. लंबी यह नदी अब मुसीबत बन गई है। गोरखपुर औद्योगिक विकास क्षेत्र (गिडा) से निकलने वाले अनउपचारित गंदे पानी के एक नाले ने इस नदी को गंदे पानी की एक इकाई में बदलकर रख दिया है। नदी के निचले बहाव की ओर निवास कर रहे 100 से अधिक परिवारों के निवासी अक्सर सर्दी जुकाम, रहस्यमय बुखार, मितली आने और उच्च रक्तचाप की शिकायत करते हैं। रात में गंदे पानी से उठने वाली बदबू से उनका सांस लेना तक दूभर हो गया है। निवासियों का कहना है कि सूर्यास्त के बाद प्रवाह का स्तर आधा मीटर तक बढ़ जाता है। नोएडा की राह पर गिडा की स्थापना 1980 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह द्वारा की गई थी। यहां पर कुल 158 इकाइयां हैं, जिनमें कागज मिल एवं कपड़ा निर्माण इकाइयां शामिल हैं। ये इकाइयां प्रतिदिन 4.5 करोड़ लीटर अनुपचारित गंदा पानी नालियों में छोड़ती हैं। गिडा का गठन इस प्रतिबद्धता के साथ हुआ था कि वह एक साझा प्रवाह उपचार करने वाला संयंत्र सन 1989 तक लगाएगा। लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो पाया है। इस हेतु वर्ष 2009 में एक समिति गठित भी की गई लेकिन उसकी अब तक केवल एक ही बैठक हुई है। जबकि अधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया है कि सुविधा पर काम चल रहा है।

नजदीक के दो नगरों का अनुपचारित गंदा पानी भी इसी नदी में मिलता है। नगर के सीवर का गंदा पानी भी नदी की सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है। गोरखपुर स्थित मदन मोहन इंजीनियरिंग कॉलेज के गोविंद पांडे नदी की बिगड़ती सेहत के लिए उद्योग को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं ‘इन नगरों से 70 लाख लीटर गंदा पानी प्रतिदिन निकलता है और प्रदूषण का यह भार ‘अमि’ के पानी इकट्ठा होने वाले क्षेत्र पर ही पड़ता है। अभियान का जन्म -गिडा के गठन के पूर्व नदी के 552 वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश मछुआरे एवं किसान ‘अमि’ से लाभान्वित होते थे। धान इस इलाके की मुख्य फसल है और गेहूं एवं जौ भी यहां बोई जाती है। परंतु प्रदूषण की वजह से उपज एक तिहाई रह गई है। बोई और रोहू जैसी ताजे पानी की मछलियां अब दिखलाई ही नहीं देतीं। कई हजार मछुआरे या तो शहरी क्षेत्रों में दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं या शराब बेच रहे हैं।

रहवासियों ने 1990 के दशक में पहली बार नदी में आ रहे परिवर्तनों को देखा। वर्ष 1994 के विश्व पर्यावरण दिवस पर निचले क्षेत्र के एक गांव के प्रधान ने सभा का आयोजन किया और ‘अमि’ को बचाने का अभियान प्रारंभ हो गया। पांडे का कहना है ‘मैंने निवासियों से कहा कि गिडा नदी में अनुपचारित सीवेज डाला जा रहा है और वहां शोधन संयंत्र भी नहीं है।’ वर्ष 1994 में ही पांडे ने गिडा के मुख्य कार्यकारी अधिकारी जो कि कॉलेज में उनके वरिष्ठ थे, से क्षेत्र में पर्यावरण प्रभाव आकलन करने और पर्यावरण प्रबंधन योजना बनाने को भी कहा। पांडे का कहना है ‘वे तैयार तो हो गए लेकिन धन की कमी की वजह से योजना कार्यान्वित नहीं हो पाई। अब तो इस बात को 15 वर्ष से अधिक बीत चुके हैं।’ पांडे ने जनवरी 2009 की मकर संक्रांति को आंदोलन को तब नई दिशा दी जब उन्होंने इस दिन नदी में प्रतीक स्वरूप मुट्ठी भर फिटकरी, स्कंदक या जामन एवं ब्लीचिंग पाउडर प्रवाहित किया। कुछ समय पश्चात पूर्व छात्र नेता विश्व विजय सिंह ने आंदोलन की बागडोर संभाली और पूरे नदी क्षेत्र की पदयात्रा भी की। इसके पश्चात तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को यहां की स्थिति से अवगत कराया गया। उन्होंने मुख्यमंत्री मायावती को पत्र लिखा और अप्रैल 2011 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मामले की जांच का आदेश भी दिया।

अमि नदी अमृत से जहर हो गई

बहरहाल नाले के पानी की गुणवत्ता प्रदूषण मापदंडों के अंतर्गत ही पाई गई। इसकी वजह यह है कि जब नमूने एकत्रित किए गए उस दौरान प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग परिचालन ही नहीं कर रहे थे। विजय सिंह का कहना है ‘हमने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कहा था कि वे निरीक्षण के बारे में उद्योगों को न बताएं।’ जिस दौरान निरीक्षण हो रहा था, उस दौरान उद्योगों ने अपनी सुविधानुसार कुछ समय के लिए परिचालन रोक दिया। एक संयंत्र रखरखाव के लिए बंद था, एक विद्युत कनेक्शन के लिए और दो अन्य कच्चे माल की अनुपलब्धता की वजह से बंद थे। इसके बावजूद बोर्ड को कुछ जगह पानी प्रदूषण स्तर से ज्यादा गंदा मिला। क्योंकि कागज मिल हाल ही में बंद हुई थी। इस पर बोर्ड ने उस इकाई को अपनी जमीन के अंदर डली 1400 मीटर की ड्रेनेज लाइन नष्ट करने को कहा है। लेकिन इकाई द्वारा अब तक निर्देशों का पालन नहीं किया गया है। बोर्ड ने गिडा को एक शोधन संयंत्र जिसमें उपचारित करने की यथोचित सुविधाएं हों, की अनुशंसा की है साथ ही शहर को भी अपना सीवेज उपचारित करने वाला संयंत्र स्थापित करने की अनुशंसा की है। गोरखपुर की महापौर अंजु चौधरी का कहना है कि ‘नदी बजाए एक सम्पत्ति के समस्या बन गई है। विकास प्राधिकारी बिना यह सुनिश्चित किए कि उद्योग नियमों का पालन कर रहे हैं या नहीं अनुमति दे देते हैं। उम्मीद की जा रही है कि नए साल की पहली तिमाही में वर्तमान केंद्रीय पर्यावरण मंत्री इस क्षेत्र का दौरा करेंगी। अब सारी उम्मीदें उन्हीं पर टिकी हैं।

लेखक भरतलाल सेठ डाउन टू अर्थ के संवाददाता हैं।

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org