आपका कुछ खो गया है?

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जीवन में जो कुदरती हुआ करता था, वह पीछे छूट चुका है और कृत्रिमता ने उसकी जगह ले ली है। स्वाद, सुख, सेहत और सहजता की दौलत छिन गई है...

आपने पिछली बार कब त्रसरेणु देखे थे? त्रसरेणु प्रकृति में वे सबसे छोटे कण हैं, जिन्हें हम नंगी आंखों से देख पाते हैं। कमरे के भीतर किसी झिर्री से होकर आती सूरज की रोशनी में तैरते छोटे-छोटे ये कण तीन-तीन अणुओं से मिलकर बनते हैं, इसलिए त्रसरेणु कहलाते हैं।

ये अब भी हैं, पर हम में से बहुत-से लोग इनसे वंचित हैं। खपरैल वाली छत से या खिड़की के थोड़े अनगढ़ पल्ले से होकर चुपके से घुस आता था सूर्य का प्रकाश और जगमग करते ये त्रसरेणु एक रोशन नली में तैरते-नाचते नजर आते थे। अब तो पक्के मकानों में, बिना छत और आंगन वाले घरों में सूरज के लिए दरवाजे हमेशा बंद ही रहते हैं। एयरकंडीशनर और चौबीसोंं घंटे कृत्रिम लाइट के चक्कर में प्राकृतिक हवा-प्रकाश के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी भी नहीं जाती।

कितना कुछ छूट गया हमसे, कितना कुछ बदल गया हमारा जीवन। ग्लोबल वार्मिंग ने दुनिया के पर्यावरण को बदल दिया है और ग्लोबलाइजेशन ने हमारे परिवेश को। सूख्म त्रसरेणु की क्या बिसात, जब चांद-तारे भी खो गए हैं। सोचकर बताइए, पिछली दफा कब आपने आसमान की ओर सिर उठाकर चांद और सितारे देखें थें? कभी कूलर और एसी छोड़कर छत पर सोने का ख्याल भी आया था? फिर तारों भरा आसमान कैसे दिखेगा और कैसे नजर आएंगे सप्तर्षि और अन्य तालामंडल, कोई टूटता तारा या फिर उड़ते बगुलों का झुंड। अब तो शहर की भीषण रोशनी से घबराएं तारे नजर भी नहीं आते।

तारों भरे उस आसमान की बात क्या काल्पनिक किस्से-कहानियों तक सीमित नहीं रह गई है, जो हमें इसी जीवन में सुलभ थी, हमारे हाथों न सही, हमारी आंखों की जद में तो थी?

सूची बनाने बैठेंगे, तो बचपन के पिटारे से न जैसे कैसी-कैसी दौलते निकलेंगी। इसमें पहाड़, पगडंडियां, खेत, नदी, तालाब, पेड़, बगीचे हैं, तो कौए और बकरियां भी। अब कहां नजर आते हैं ये सब! बस्ती से सटे पहाड़ समतल होकर कॉलोनियों का रूप धर चुके हैं। ऐसे में कोई दानी-नानी बताए कि वह सरपट दौड़कर टीले पर चढ़ जाती थी, तो नाती-पोतों को भला क्योंकर यकीन हो? जिस तालाब-नदी में नहाने के आनंद के बारे में आप बताएंगे, वह या तो पट चुकी है या गंदे नाले में तब्दील हो गई है। जहां खाली मैदान हुआ करता था, वहां कोई कारखाना है या सर्वसुनिधायुक्त कॉलोनी। बस, वहां निश्चिंत होकर टहलने, मटरगश्ती करने की सुविधा नहीं है। कौए और बकरियां भी मानों रूठ गई हैं।

कुरुप कौए की बोली बड़ी कर्कश माना जाती है, लेकिन बहुत सारे शहरी क्या यहीं कांव-कांव सुनने को तरस नहीं गए हैं?

ठीक है कि सुविधाएं बहुत बढ़ गई है। जीवन में नई-नई चीजें अनवार्य सरीखी हो गई है, लेकिन जो छूट गया है, वह भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं था। घर में बनने वाले पेय पदार्थ, घड़े और सुरही का ठंडा पानी, सुराही की नक्काशी, लोटा, सिल-बट्टा और उस पर पिसी चटनी का स्वाद... लाजवाब न?

रेफ्रिजरेटर और मिक्सी सहुलियत तो देते हैं, परंतु स्वाद और पोषण?

और जीवन का स्वाद याद है? इन्हीं गर्मियों में (और बाकी दिनों मे भी) घर बाहर खेने जाने वाले पचीसा, शतरंज, लूडो, व्यापार, गिल्ली-डंडा, बिल्लस, लंगड़ी, पिट्टुल, कबड्डी जैसे खेल टीवी और इलेक्ट्रॉनिक गेम्स की आंधी में उड़ गए। हमारा देश भले ही कबड्डी में छह-सात बार विश्वविजेता हो, किंतु आपने अपने आसपास कब कबड्डी-कबड्डी सुनी?

तब न सैकड़ों चैनल थे, न ऑन डिमांड फिल्में, न डीवीडी, लेकिन ईमानदारी से बताइए, क्या मनोरंजन में कोई कमी थी?

आम और अमरूद के पेड़ों पर चढ़ना, कच्चे-पक्के आम, बेर और इमलियां तोड़ना अब कैसे संभव है, जब पेड़ ही न हों या हों, तो किसी की निजी संपत्ति जैसे हों, बहुत सारी रस्में या दैनिक क्रियाएं एक बार छूटीं, तो दोबारा उनका ख्याल ही नहीं आया! जैसे इतवार को आंवला, शिकाकाई और रीठे से बाल धोना। तब से सब शैंपू या साबुन में नहीं, हमारे हाथों में होते थे। दातौन। लाल-काला मंजन, जिसमें फलाने-ढिकाने नहीं हुआ करता था, न ही कोई डॉक्टर उसकी सिफारिश करता था। लोगों के दांत तो तब भी मजबूत हुआ करते थे या शायद ज्यादा मजबूत हुआ करते थे। जब हमारे बड़े कुएं से पानी निकालते थे, जब हम हैंडपंप को ‘टेरकर’ पानी की धारा बहाते थे, और जब एक बटन दबाने पर चालू हुए पंप से टंकियां नहीं भरती थीं, तब पानी की किल्लत भी नहीं हुआ करती थी।

तब हम स्कूल-कॉलेज जाने और हवाखोरों के लिए साइकिल चलाया करते थे और अब सेहत बनाने के लिए, मजबूरी में पैडल मारने की रस्म अदायगी करते हैं। न?

कभी सोचने बैठें तो वे किताबें भी याद आएंगी जिन्हें हमने इन्हीं छुट्टियों में चाट डाला था। बड़े भाई-बहनों की पुरानी पुस्तकें, जो नई जिल्द लगने के बाद दोगुनी खुशी देती थीं। रिश्तेदारों के प्रेम से रंगे पुराने कपड़े, दर्जी से ऑल्टर करवाई गई पापा की पैंट, कितनी जल्दी सब बीते जमाने की बातें हो गई। अब तो ‘फ्रेश’ का जमाना है। फ्रिज में पड़ा बासी खाना चलेगा, छह महीने पहले का बोतलबंद पानी और शीतलपेय चलेगा, पर चीजें एकदम फ्रेश होनी चाहिए। लेटेस्ट मॉडल और नए फैशन की। तभी तो कपड़े के झोले और जूट बैग ‘आउट’ हो गए हैं और चमकदार पॉलीथिन ‘इन’ हो चुकी है। बचपन में जितना पढ़ डाला, अब उसका पासंग भी पढ़ने का वक्त नहीं है। कंप्यूटर टाइपिंग के दौर में स्याही वाली निब पेन की तरह सुलेख भी गैरजूरूरी हो गया है।

लेकिन निब को घिसना, बड़े आराम से लिखना, स्लेट पट्टी पर अक्षर और गिनती सीखना, कल को घिसकर नोकदार बनाना याद तो आता होगा?

ये छोटी-छोटी बाते बताती हैं कि हमारा पर्यावरण सचमुच बदल गया है। इन सारी गुमशुदा चीजों पर एक बार फिर सरसरी निगाह दौड़ाएंगे, तो पता चलेगा कि ये सब खालिस कुदरती हैं। पुर्णतः प्राकृतिक। यानी हमारे जीवन से प्रकृति का नाता टूटा और उसकी जगह कृत्रिमता ने ले ली है।

क्या अब भी आप कहेंगे कि पर्यावरण को सुधारना, प्रकृति को सहेजना सिर्फ सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं का ठेका है, हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? क्या आप असल को खोकर इस नकलीपन में खुश हैं?

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