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अविरल गंगा ‘ना पूरा होने वाला सपना’

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गंगा को होने वाली क्षति को लेकर आजादी से पहले गुलाम भारत में अंग्रेजों नेे भी कोई बाँध तैयार नहीं कराया लेकिन आजाद भारत में साँस ले रही सरकार को गंगा की अधिक फिक्र नहीं रही और छोटे-छोटे स्वार्थ की वजह से हमने गंगाजी को बाँधने की कोशिश की। राजनीतिक इच्छाशक्ति की इसे कमजोरी ही कही जा सकती है जो गंगा को बन्धन मुक्त करने का फैसला नहीं ले पा रही है। अविरल गंगा की जगह दूसरे विकल्पों पर सरकार विचार कर रही है और जनता को समझाने का प्रयास कर रही है कि मान लो कि यही अविरल धारा है।

गंगा को लेकर बार-बार अविरल गंगा शब्द का जिक्र आता है। बिना किसी बाधा के अविरल गंगा का जिक्र। जब उमा भारती ने अपनी एक यात्रा के दौरान वादा किया था और अपनी अलग-अलग सभाओं में अविरल गंगा का संकल्प दोहराया था तो जब गंगा का मंत्रालय उमा भारती को मिला फिर समाज में गंगा को अविरल बहते हुए देखने का विश्वास दृढ़ हुआ था।

समाज नहीं जानता था कि अपने दृढ़ संकल्प के लिये जाने जानी वाली उमा भारती एक बार भाजपा छोड़ने के बाद पार्टी में पुनर्वापसी करके पुरानी उमा भारती नहीं रहीं। अब वे कमजोर पड़ गईं हैं। वर्ना ‘लेकिन’, ‘अगर’ और मगर की भाषा उनकी कभी नहीं रही है।

गंगा की हालत क्या हो गई है, क्या यह किसी से छुपा है। गंगा को पुनर्जीवन देने की जगह अब भी वेंटीलेटर पर जिन्दा रखने पर तमाम विशेषज्ञ सलाह मशवरा कर रहे हैं। क्या यह बात किसी से छुपी है कि गंगा में अब वह पुराना सामर्थ्य नहीं रहा कि वे गंडक, कोसी, घाघरा, सोन जैसी दर्जनों उपनदियों और सहायक नदियों को अपने गोद में समेटे सागर की भाँति आगे बढ़ती चली जाएँ। उनकी साँसे अब अपना बोझ लेकर आगे बढ़ने में ही उखड़ने लगी है। उन्हें माँ कहने वाला समाज ही उनके इस हाल का जिम्मेवार है।

भारतीय राजनीति की सताई गंगाजी अब लाचार और सताई हुई माँ की तरह व्यवहार कर रहीं हैं। बरसात के महीनों को छोड़ दिया जाये तो पूरे साल गंगा के साठ प्रतिशत पानी को टिहरी बाँध नियंत्रित करता है। गंगा के पानी पर टिहरी के नाम पर सरकारी पहरेदारी बैठा दी गई। अविरल गंगा की राह में सबसे बड़ी बाधा बनकर टिहरी खड़ा है। जबकि कायदे से गंगा में गन्दगी, मल-मूत्र ना बहाया जाये इस पर पहरेदारी होनी चाहिए थी लेकिन गंगा में जगह-जगह यह मल और कचरा बिना किसी रोक-टोक के अविरल बह रहा है।

अविरल गंगा में यह क्षमता थी कि वह सारी गन्दगी, मल को भी अपने साथ बहा ले जाती लेकिन उसकी राह में आकर खड़ा होता है फरक्का का बैराज। जो साफ पानी को आगे बह जाने देता है और मल और गन्दगी का गाद इकट्ठा कर लेता है। इसी का परिणाम है कि गंगा की गहराई कई जगह 100 फीट तक कम हो गई। गन्दगी गाद बनकर इकट्ठा होता रहा और गंगाजी की गहराई कम होती रही। बिहार कई सालों से सूखे और बाढ़ दोनों की समस्या से जूझ रहा है।

यह कम ही होता है कि एक ही क्षेत्र सूखे और बाढ़ का शिकार हो। इसके पिछे विद्वान गंगा की राह में अटकाए जाने वाली बाधाओं को ही मानते हैं। गोमुख से निकलने वाली गंगा का पानी जरूरत के समय बाँध से रोक दिया जाता है और जब पानी सरप्लस हो जाता है तो छोड़ दिया जाता है। सूखे में जब बिहार को पानी की जरूरत होती है, वह पानी छोड़ा नहीं जाता और बरसात में जब पानी हर जगह पर्याप्त मात्रा में होता है, बाँध का पानी छोड़ दिया जाता है। इससे बड़ी सामाजिक असंवेनशीलता क्या होगी?

गंगा के किनारे बसे शहर अपनी जरूरत के हिसाब से लगातार वहाँ से पानी निकाल रहे हैं और बिजली बनाने के लिये उनका पानी रोक भी रहे हैं। दिल्ली को प्रतिदिन करोड़ों लीटर पानी चाहिए। दिल्ली का अनियंत्रित विकास किसी भी सरकार के लिये चुनौती से कम नहीं है।

गंगा के किनारे दस लाख से अधिक आबादी वाले 22 शहर हैं, पाँच से दस लाख के बीच की आबादी वाले लगभग पाँच दर्जन शहर हैं एवं एक लाख से कम आबादी वाले तो सैकड़ों छोटे शहर एवं कस्बे हैं। इन सभी शहर और कस्बों से लाखों लीटर गन्दगी गंगाजी में बहाया जाता है। अविरल गंगाजी एक समय इन सारी गन्दगियों को धो पोछकर बहा ले जाती थी। अब उनमें वह सामर्थ्य नहीं बचा।

गंगा को होने वाली क्षति को लेकर आजादी से पहले गुलाम भारत में अंग्रेजों नेे भी कोई बाँध तैयार नहीं कराया लेकिन आजाद भारत में साँस ले रही सरकार को गंगा की अधिक फिक्र नहीं रही और छोटे-छोटे स्वार्थ की वजह से हमने गंगाजी को बाँधने की कोशिश की। राजनीतिक इच्छाशक्ति की इसे कमजोरी ही कही जा सकती है जो गंगा को बन्धन मुक्त करने का फैसला नहीं ले पा रही है। अविरल गंगा की जगह दूसरे विकल्पों पर सरकार विचार कर रही है और जनता को समझाने का प्रयास कर रही है कि मान लो कि यही अविरल धारा है।

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