बांध की ऊंचाई नर्मदा घाटी को डुबाने का फैसला
मोदी सरकार से सरदार सरोवर नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने को मंजूरी मिलते ही नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने का काम शुरू हो गया। कंक्रीट से बने नर्मदा बांध की करीब 122 मीटर ऊंचाई तक का निर्माण का काम पूरा हो गया है। इस पर 16 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाकर इसकी ऊंचाई 138 मीटर करना है।
दूसरी ओर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाना गैरकानूनी बताते हुए मोदी सरकार के इस फैसले को नर्मदा घाटी को डूबोने वाला फैसला करार दिया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के अनुसार केंद्र सरकार पुनर्वास और पर्यावरणीय शर्तों का उल्लंघन कर रही है।
माकपा के पोलित ब्यूरो ने 13 जून को बयान जारी करके नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने के फैसले को अवैध और अनैतिक करार दिया है। नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने का जो फैसला मोदी सरकार ने लिया है वह उच्चतम न्यायालय के वर्ष 2000 के फैसले की भावना के खिलाफ जाता है, जिसमें ऐसे किसी भी कदम के लिए यह शर्त लगाई गई थी कि पहले ऐसे कदम से प्रभावित होने वाले के लिए राहत एवं पुनर्वास के कदम उठाए जाएं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के अनुसार डूब क्षेत्र में 2.5 लाख जनसंख्या, हजारों आदिवासी, किसानों मजदूरों, मछुआरों को वैकल्पिक जमीन, आजीविका, पुनर्वास, बसावटों में भूखंड अभी प्राप्त होना बाकी है।
3,000 फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच, 88 बसाहटों के निर्माण कार्यों में गुणवत्ताहीनता, भूमिहीनों के साथ धोखाधड़ी की जांच पांच सालों से चल रही है। शिकायत निवारण प्राधिकरण के सैकड़ों आदेशों का अमल होना बाकी है।
पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति कार्य बहुत बड़े पैमाने पर अधूरा होते हुए, पुनर्वास उपदल, पर्यावरण उपदल एवं नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा बांध की ऊंचाई बढ़ाने का निर्णय लेना कानूनी अपराध है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन का कहना है कि सत्ता में आने के एक महीने के भीतर ही केंद्र सरकार ने गुजरात हित के बहाने नर्मदा घाटी की आहुति देने का निर्णय लिया है।
आठ सालों से पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति, पुनर्वास के अभाव और भ्रष्टाचार के जांच के कारण रूका हुआ सरदार सरोवर बांध को पूर्ण जलाशय स्तर (138.68) तक ले जाने का निर्णय घोर अन्याय है। यह निर्णय राजनीतिक उद्देश्यों के आधार पर लिया गया है।
नर्मदा बांध की ऊंचाई करीब 17 मीटर बढ़ाने के नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनसीए) के फैसले के खिलाफ कानूनी और जमीनी लड़ाई के आगाज का ऐलान करते हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख नेता मेधा पाटकर ने कहा है कि नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला जल्दबाजी भरा है और यह कानूनी सोच के बगैर लिया गया है।
यह फैसला सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता को भी दर्शाता है। हम इस फैसले के खिलाफ कानूनी व मैदानी लड़ाई लड़ेंगे और सरदार सरोवर बांध परियोजना की सच्चाई उजागर करेंगे। 59 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के मसले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इस मसले में मोदी भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री के रूप में पेश आए हैं।
मेधा ने दावा किया है कि मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के करीब 48,000 बांध प्रभावित परिवारों के ढाई लाख लोगों की अनुमानित आबादी को बसाया जाना फिलहाल बाकी है। बांध के निर्माण से जुड़ी पर्यावरण की सभी शर्तें भी अब तक पूरी नहीं की गई हैं। बावजूद इसके एनसीए ने गुजरात सरकार के सरदार सरोवर नर्मदा निगम को बांध की ऊंचाई को 121.92 मीटर के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 138.72 मीटर करने को मंजूरी दे दी है।
मेधा ने यह आरोप भी लगाया है कि शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई वाली मध्य प्रदेश सरकार ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के मसले में अपनी जिम्मेदारी उचित तरीके से नहीं निभायी। उन्होंने दावा किया है कि मध्य प्रदेश को सरदार सरोवर बांध से ‘न्यूनतम लाभ’ मिल रहा है, जबकि सूबे की बड़ी आबादी को इस परियोजना के कारण विस्थापन की त्रासदी झेलनी पड़ी है।
बांध परियोजना के पुनर्वास स्थलों पर बसने वाले परिवारों को लम्बा वक्त गुजरने के बावजूद उचित सुविधाएं भी नहीं मिलती हैं।
गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने प्रधानमंत्री मोदी का आभार जताते हुए फेसबुक पर लिखा कि वर्षो से नर्मदा बांध का मुद्दा था, जिसका त्वरित निपटारा हुआ, अच्छे दिन आ गए। राजनीतिक गलियारों में भी माना जा रहा है कि इसके जरिए मोदी ने गुजरातवासियों से किया अपना एक वादा निभा दिया है।
मोदी सरकार का यह फैसला कार्यपालिका का न्यायपालिका के साथ टकराव पैदा करने वाला है। यह बात किसी की भी समझ में आने वाली नहीं है कि जिस विवाद को ढाई दशक तक देश की न्यायपालिका नहीं सुलझा पाई है, उसे मोदी सरकार द्वारा एक ही बैठक में कैसे सुलझा लिया गया है?
यह फैसला उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के भी खिलाफ है कि विस्थापन से पहले पुनर्वास को उचित व्यवस्था होनी चाहिए। मोदी सरकार के इस निर्णय ने नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण की भी अनदेखी की है।
विस्थापितों के लिए निर्मित 88 बसाहटों का निर्माण घटिया साबित हो चुका है। तीन हजार से ज्यादा रजिस्ट्रियां फर्जी पायी गई हैं। हजारों किसानों, खेत मजूदरों, मछुआरों को न तो वैकल्पिक रोजगार मिला है, न भूखंड प्राप्त हुए हैं। इसके बाद भी यह दावा करना कि यह निर्णय प्रदेश सरकार के हित में हैं, कहां तक तर्क संगत है?
विस्थापन का सवाल एक प्रमुख सवाल है, तीसरी दुनिया के देशों की नदियों और प्राकृतिक संपदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करने का प्रस्ताव करने वाला विश्व बैंक भी सरदार सरोवर के विस्थापितों के पुनर्वास पर बार-बार चिंता जाहिर कर चुका है।लेकिन केंद्र सरकार के इस मामले पर खुशी जताने से पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी कुछ सवालों के जवाब देने होंगे। बांध की ऊंचाई बढ़ाने का विरोध तो 90 के दशक से ही शुरू हो गया था। मार्च, 1994 में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर बांध का काम रोकने का अनुरोध किया था। उस पत्र में दिग्विजय सिंह ने प्रधानमंत्री को लिखा था कि इस बांध से जितनी बड़ी संख्या में लोग विस्थापित होने वाले हैं, उनके पुनर्वास की व्यवस्था करने के लिए राज्य सरकार के पास संसाधन मौजूद नहीं हैं।
विस्थापन का सवाल एक प्रमुख सवाल है, तीसरी दुनिया के देशों की नदियों और प्राकृतिक संपदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करने का प्रस्ताव करने वाला विश्व बैंक भी सरदार सरोवर के विस्थापितों के पुनर्वास पर बार-बार चिंता जाहिर कर चुका है।
अब जब प्रदेश के मुख्यमंत्री ऊंचाई बढ़ाए जाने पर खुशी जाहिर कर रहे हैं, तब उन्हें यह बताना होगा कि क्या विस्थापितों के पुनर्वास की समुचित व्यवस्था हो गई है। यदि ऐसा नहीं है, तो क्या यह सिर्फ ढाई लाख लोगों या 42 हजार परिवारों को बेघर कर अपने राजनीतिक तंबू को तूफान से बचाने की कोशिश नहीं है?
वैसे बात सिर्फ शिवराज की नहीं है। यह मामला तो जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत है। जल संसाधन मंत्रालय उमा भारती के पास है, जो न केवल मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं हैं, बल्कि शिवराज गुट के साथ 36 के आंकड़े के कारण प्रदेश से विस्थापित कर दी गई हैं। प्रदेश में जड़ें जमाने का वे कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देती हैं। मगर प्रदेश के साथ हो रही इस नाइंसाफी के बाद भी वह चुप हैं।
मध्य प्रदेश की 29 संसदीय सीटों में से 27 को जनता ने भाजपा की झोली में डाला है। क्या इन सांसदों की जिम्मेदारी प्रदेश के हक में जुबान खोलना नहीं है? चिंता की बात यह है कि एक झूठ को सौ बार दोहरा कर उसे सच साबित करने की कोशिश हो रही है। इसलिए प्रदेश सरकार भी चुप है और भाजपा के सांसद भी। उसके साथ ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा के इस दावे की भी पोल खुल गई है कि पूर्व की केंद्र सरकार प्रदेश के साथ भेदभाव करती थी।
मुख्यमंत्री ने दावा किया था कि मोदी सरकार आने के बाद प्रदेश को उसका पूरा हक मिलेगा। क्या यही हक है? इस बांध की ऊंचाई से मध्य प्रदेश डूबने वाला है। मगर इस बांध की सिंचाई का पानी गुजरात और राजस्थान को मिलेगा, मध्य प्रदेश को नहीं।
हकीकत यह है कि केंद्र सरकार और भाजपा संगठन पर मोदी का शत-प्रतिशत नियंत्रण हो जाने के बाद शिवराज सिंह चौहान स्वयं को असहाय महसूस कर रहे हैं। मोदी को प्रधानमंत्री घोषित करने से पहले तक उनकी आडवाणी से नजदीकियां आज भी मोदी को एखर रही होंगी। इसलिए, शिवराज जानते हैं कि इस समय मोदी-विरोधी उनके राजनीति की ऐसी अंधेरी गुफाओं में ले जाएगा, जहां से निकलना आसान नहीं है। इसी असहायता से ही उन्होंने बांध की ऊंचाई बढ़ाने के निर्णय का स्वागत किया है।
माकपा के पोलित ब्यूरो ने 13 जून को बयान जारी करके नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने के फैसले को अवैध और अनैतिक करार दिया है। बयान में कहा गया है कि नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने का जो फैसला मोदी सरकार ने लिया है वह उच्चतम न्यायालय के वर्ष 2000 के फैसले की भावना के खिलाफ जाता है, जिसमें ऐसे किसी भी कदम के लिए यह शर्त लगाई गई थी कि पहले ऐसे कदम से प्रभावित होने वाले के लिए राहत एवं पुनर्वास के कदम उठाए जाएं। इस कदम से प्रभावित होने वाले अनुमानतः ढाई लाख लोगों की, जिनमें बड़ी संख्या में मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र के आदिवासी शामिल हैं, कोई सुनवाई किए बिना ही मोदी सरकार ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने की इजाजत दे दी है। यह अवैध है और अनैतिक भी।
और अंत में
इतना अकेला कि वे जब जो जी में आए कर लें
और हम चूं तक न कर सकें
वे जब हमारी गरदन मरोड़ें
तब उफ तक न करें
बल्कि उनके इस कारनामें पर ताली बजाएं और हंसे।