बांध विजय गाथा एक-बदला इतिहास, भाग -1

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देश भर के बांध प्रभावित लोग हर कदम पर सामना करने को तैयार हैं। आप अब कुछ भी करके साफ निकल जाए ऐसी स्थिति नहीं है। अब सरकारों, बांध कंपनियों, पैसा लगाने वाली संस्थाओं आदि को पुनर्वास-पर्यावरण संबंधी नीतियाँ बनानी पड़ी है। सरकार को नए नियम कानून बनाने पड़े हैं। नए विभाग खोलने पड़े हैं। बांध से पहले बांध प्रयोक्ता को कई तरह की स्वीकृतियां जैसे पर्यावरण और वन स्वीकृतियां आदि विभिन्न मंत्रालयों/विभागों से लेनी पड़ती है। ‘‘भाखड़ा नांगल’’ बांध से देश का विकास होगा पर हम जिन्होंने इस बांध में अपना सब कुछ लूटा दिया कृपा करके उनके पुनर्वास की व्यवस्था आप करें।’’ ये कुछ लब्बों-लुआब था। भाखड़ा बांध से विस्थापितों की चिट्ठियों का जो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नेहरू को सन् 60 के करीब लिखी थी। कहीं मांग जैसा शब्द नहीं था। ज़मीन नहीं मिली, जलाशय को भर दिया गया और लोगों को घरों से नावों से निकाला गया। बरसों बाद किसी तरह से कुछ लोगो को ज़मीन मिली, तो भाखड़ा गांव तक को 1962 में बिजली मिल पाई।

पर अब 53 साल में स्थिति बहुत बदल गई है। केन्द्र व राज्य सरकारें और बांध कंपनियां अपनी मनमर्जी से आगे नहीं बढ़ पाती। बड़े बांधों के दावे-वादे खुलकर सामने आए हैं। जुलाई 2012 में फिर 2013 में पुनर्वास ना होने के कारण मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर बने बांध ओंकारेश्वर बांध व इंदिरा सागर बांध से प्रभावितों ने जल सत्याग्रह शुरू किया। क्योंकि बांध कंपनियों ने जलाशय में बिना लोगों का पुनर्वास किए पानी भर दिया था। सरकार को कई मांगों पर बात माननी पड़ी। महाराष्ट्र में वांग नदी पर बने बांध से प्रभावितों ने भी जल सत्याग्रह किया, महाराष्ट्र सरकार को वांग बांध के 2 दरवाज़े खोलने पड़े। 2013 में पुनर्वास की मांग को लेकर आंदोलन की नेत्री सुनीति सु. र. प्रभावितों के साथ भूख हड़ताल पर बैठीं। सरकार को उनकी माँगे माननी पड़ी।

नर्मदा नदी पर निमार्णाधीन सरदार सरोवर पर आज भी 17 मीटर ऊॅंचे गेट नहीं लग पाए हैं। चूंकि पुनर्वास व पर्यावरण की शर्तें पूरी नहीं हो पाई है। नर्मदा नदी पर ही बने ओंकारेश्वर, नर्मदा सागर बांधों के जलाशय सरकार को खाली करने पड़े। 2006 में बांध का उद्घाटन होने के बाद भी भागीरथी गंगा पर बने टिहरी बांध के जलाशय में पूरा पानी नहीं भरा जा सका है। सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है कि जब तक पुनर्वास नहीं होगा तब तक टिहरी बांध का जलाशय नहीं भरा जा सकता। बावजूद इसके की बांध कंपनी टिहरी हाईड्रो डेवलपमेंट कारपोरेशन ने कई बार कोशिश की, अदालत में भ्रम से भरे शपथ पत्र दिए।

देश भर के बांध प्रभावित लोग हर कदम पर सामना करने को तैयार हैं। आप अब कुछ भी करके साफ निकल जाए ऐसी स्थिति नहीं है। अब सरकारों, बांध कंपनियों, पैसा लगाने वाली संस्थाओं आदि को पुनर्वास-पर्यावरण संबंधी नीतियाँ बनानी पड़ी है। सरकार को नए नियम कानून बनाने पड़े हैं। नए विभाग खोलने पड़े हैं। बांध से पहले बांध प्रयोक्ता को कई तरह की स्वीकृतियां जैसे पर्यावरण और वन स्वीकृतियां आदि विभिन्न मंत्रालयों/विभागों से लेनी पड़ती है। 15 सितंबर, 2006 की पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना के अंतर्गत बांध के पर्यावरणीय प्रभावों व उनके निवारण के लिए अध्ययन करना, अध्ययन को प्रभावितों के सामने रखना, जनसुनवाई करना अब आवश्यक हो गया है। जब लोगों ने सरकारी अध्ययनों की पोल खोलनी शुरू की। सरकार ने जनसुनवाई प्रक्रिया को ही कमजोर करना शुरू किया तो लोग यह समझ गए की जनसुनवाई महज खानापूर्ति है। अब जनसुनवाई को रोकना सही कदम माना जा रहा है। सरकारों को बांध से संबंधित लगभग सभी कागजातों को सामने लाने पड़ रहे हैं। मात्र ‘बांध विकास है’ कह कर बात खतम नहीं की जा सकती है। प्रश्न ही नहीं उठ रहे हैं वरन् तथ्यपूर्ण आलोचना हो रही है। जिसका जवाब सरकारों व बांध कंपनियों के पास नहीं है।

देश में 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने पर्यावरण की गंभीर समस्याओं को देखते हुए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्थापना की। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह पर्यावरण जागरण का समय था। किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जनआंदोलनों के कारण उत्तराखंड में प्रस्तावित टिहरी बांध, महाराष्ट्र के लालपुर बांध और केरल में ‘‘साईलैंट वैली’’ पर पर्यावरण आकलन समितियां बनानी पड़ी। परिणामतः ‘‘साईलैंट वैली’’ को प्रभावित करने वाली परियोजना को रोकना पड़ा और टिहरी बांध के पर्यावरणीय पक्ष का अध्ययन करने वाली समिति ने ऐसे तथ्यों को उजागर किया जिससे बांध विरोध के कारण मजबूत हुए।

जहां पहले लोग निवेदन किया करते थे अब वहां राज्य व केन्द्र स्तर पर मंत्रियों तक का घेराव हुआ है। उन्हें न केवल लोगों की सुननी पड़ी है बल्कि मांगों को मंजूर भी करना पड़ा है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा पर्यावरण एवं वन दोनों तरह की स्वीकृतियों का प्रावधान आवश्यक कर दिया गया है। इन स्वीकृतियों को भी जनांदोलन चुनौतियां दे रहे हैं। कितनी ही बांध परियोजनाओं की पर्यावरण व वन स्वीकृतियां रद्द हुई हैं। अदालतों को भी बांधों पर गंभीर होना पड़ा है और उसने पर्यावरण और पुनर्वास के सवालों पर बांध कंपनियों की मनमानी रोकी है। आज शायद ही कोई बांध परियोजना होगी जिसे जमीन से लेकर हर स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय तक में चुनौती न मिली हो। देश में आज अगर ‘‘राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण’’, जहां खास करके हर पर्यावरणीय समस्या पर दावा किया जा सकता है तो उसके बनने का कारण भी लोहारीनाग-पाला बांध की पर्यावरणीय स्वीकृति को माटू जनसंगठन द्वारा चुनौति देना है।

विदेशों में बांध के सहयोगियों तक को, चाहे वो वित्तीय सहायता देने वाला बैंक हो; बांध उपकरण बनाने वाली कंपनी हो या उस कंपनी को गारंटी देने वाली सरकार हो, सभी को आंदोलनों का विरोध झेलना पड़ा है। 1992 में सरदार सरोवर बांध से विश्व बैंक को वापिस होना पड़ा। नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन महेश्वर बांध में ‘हर्मिज गांरटी’ देने पर जर्मन सरकार को इतने विरोध का सामना करना पड़ा की उसे बांध विरोध के प्रश्नों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पैनल गठित करना पड़ा और अंततः 1999 में अपनी गांरटी से पीछे हटना पड़ा। 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति का आगमन भारत में हुआ। उनके साथ 100 से ज्यादा अमेरिकी कंपनियां अपने व्यापार के लिए भारत आई थी। नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में सैकड़ों महेश्वर बांध प्रभावितों ने अमेरिकी दूतावास पर प्रर्दशन किया। दरवाज़े के अंदर तक लोगों ने जाम लगाया। पैकजैन, ओकडेन सहित तीन अमेरिकी कंपनियों को परियोजना से वापिस होना पड़ा। कितने ही बैंको को भी विरोध झेलना पड़ा और उन्होंने भी महेश्वर परियोजना से अपना हाथ खींचा।

स्थिति आज ये है कि बांध विरोधी सोच भी बनी है। विकास के मंदिरों की दुर्दशा और उसमें बैठे हुए देवता की असलियत सभी को दिख रही है। एक बड़ा वर्ग जो बांध का समर्थन करता था आज बांधों के विरोध में अपनी आवाज़ उठा रहा है।

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