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बीस साल बाद भी नहीं होती है खनन की भरपाई

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शहरीकरण के कारण हमारी ज़मीन कम होती जा रही है। अगर हमारी स्थिति यूँ ही विकट होती रही तो आने वाली आबादी को हम क्या खिलाएँगे। हमें इस पर सोचना होगा। यहीं पर हमें बॉयोटेक्नोलॉजी की तरफ हमें देखना होगा। हमें देखना होगा कि जब से बॉयोटेक्नोलॉजी बोर्ड की स्थापना हुई। रिसर्च होने लगे, उन उपलब्धियों को हमें आत्मसात करना होगा। तापमान बढ़ने की वजह से बर्फ पिघल रहा है। शहरीकरण की प्रवृत्ति के द्वारा हम जंगलों को काट रहे हैं। खनन के लिये पेड़ काटे जा रहे हैं। अगर हम खनन करते हैं तो खनन क्षेत्र के दो सौ से तीन सौ ज्यादा गुणा ज्यादा बड़े क्षेत्र को नुकसान पहुॅंचाते हैं और इस नुकसान की भरपाई 20 साल बाद भी नहीं हो पाती। यह बातें फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट देहरादून की वैज्ञानिक डॉ. वीणा चन्द्रा ने टीएनबी कॉलेज के वनस्पति व जन्तु विज्ञान विभाग के प्लेटिनम जुबली समारोह के अवसर पर तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय समारोह के मौके पर कही।

उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि हम उस स्थानों पर पेड़ लगा देते हैं। क्या इससे क्षतिपूर्ति हो जाती है। क्या उस तरह की मिट्टी बन जाती है? दो तीन हजार वर्ष लगते हैं ऊपर की मिट्टी बनने में। विकास जरूरी है, लेकिन प्रजातियों को बचाना बहुत ही जरूरी है। हम विकास तो करें लेकिन हम अपनी प्रजातियों को बचाते हुए ही करें। पचास प्रजातियाँ हर वर्ष विलुप्त हो रही हैं। हमने सिर्फ बीस प्रतिशत प्रजातियों को ही चिन्हित किया है। 80 प्रतिशत प्रजातियाँ ऐसी हैं, जिन्हें हम पहचान तक नहीं पाये हैं। उन्हें पहचानना है, दुनियाँ के सामने लाना है, नाम देना है।

तीन दिवसीय सेमिनार का उद्घाटन तिलकामाझी भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रमा शंकर दुबे ने किया। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि विश्व की आबादी के हम 17 प्रतिशत आबादी वाले देश हैं। लेकिन हमारी जमीन दुनियाँ की मात्र तीन प्रतिशत ही है और जल संसाधन मात्र पाँच प्रतिशत ही है। 17 प्रतिशत आबादी, वह भी इतनी तेजी से बढ़ रही है, बेलगाम है।

शहरीकरण के कारण हमारी ज़मीन कम होती जा रही है। अगर हमारी स्थिति यूँ ही विकट होती रही तो आने वाली आबादी को हम क्या खिलाएँगे। हमें इस पर सोचना होगा। यहीं पर हमें बॉयोटेक्नोलॉजी की तरफ हमें देखना होगा। हमें देखना होगा कि जब से बॉयोटेक्नोलॉजी बोर्ड की स्थापना हुई। रिसर्च होने लगे, उन उपलब्धियों को हमें आत्मसात करना होगा।

उन्होंने कहा कि तापमान बढ़ने की वजह से बर्फ पिघल रहा है। शहरीकरण की प्रवृत्ति के द्वारा हम जंगलों को काट रहे हैं। इस तरह से ग्लोबल वार्मिंग की समस्या है, उसमें हमारी बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं।

तिलकामांझी​ विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. एके राय ने कहा कि विज्ञान जब-जब विकास करता है तो उसका उद्देश्य होता है कि मनुष्य का कल्याण हो। हमारी जनसंख्या 130 करोड़ हो चुकी है, विज्ञान भी आगे बढ़ता चला जा रहा है। बायोटेक्नोलॉजी अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहा है। कोई भी क्षेत्र हो, हमें देखना पड़ेगा कि यह हमारे लिये कितना फायदेमन्द है।

हम अपनी आबादी के बावजूद भी खाद्य पदार्थों के लिये किसी पर आश्रित नहीं हैं। ऐसा इसलिये सम्भव हुआ क्योंकि विज्ञान ने चमत्कार किया। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महाराष्ट्र में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। इस पर वैज्ञानिकों को सोचने की जरूरत है। उन्होंने वैज्ञानिकों से सवाल किया कि क्या उनके पास कोई जवाब है? विज्ञान के माध्यम से हम माता-पिता को चिन्हित कर सकते हैं। अनुसन्धान की उपयोगिता है समाज में। लेकिन किसानों के लिये हम कैसी टेक्नोलॉजी दें?

सेमिनार की शुरुआत कुलगीत से हुई। मौके पर गुरू वन्दना व स्वागत गान की प्रस्तुति की गई।

दूसरे दिन फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट देहरादून की वैज्ञानिक डॉ. वीणा चन्द्रा ने माइंस की भरपाई के लिये मुसला जड़ और सघन जड़ वाले पौधे के सम्बन्ध में विस्तार से बताया। उन्होंने भविष्य में आने वाली चुनौतियों से सामना करने के लिये कई महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी दी। उन्होंने औषधीय पौधे लगाने की दिशा में बल दिया।

मखाना के विभिन्न पहलुओं पर शोध करने वाले विद्वान दरभंगा के डॉ. विद्यानाथ झा ने मखाना के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि पोषक तत्वों से भरपूर जलीय उत्पाद मखाना में 9.7 प्रतिशत आसानी से पचने वाला प्रोटीन, 76 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट, 12.8 प्रतिशत नमी, 0.1 प्रतिशत वसा, 0.5 प्रतिशत खनिज लवण, 0.9 प्रतिशत फास्फोरस एवं प्रति सौ ग्राम 1.4 मिलीग्राम लौह पदार्थ मौजूद होता है। इसमें औषधीय गुण भी होता है। दलदली क्षेत्र में उगने वाला यह पोषक भोज्य उत्पाद के विकास एवं अनुसन्धान की प्रबल सम्भावनाएँ हैं।

मरीन बॉयोटेक्नोलॉजी भावनगर गुजरात के प्रोफेसर भवनाथ झा ने बताया कि किस प्रकार मराइंस प्लांटस के जिनामिक्स का अन्य पौधों में ट्रांसमिट किया जाए। उन्होंने इससे होने वाले फायदे पर विस्तार से चर्चा की। वक्ताओं ने एग्रोफोरेटी, एक्वाकल्चर को विकसित करने की दिशा में बल दिया।

टीएनबी कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. फारूक अली ने दो टूक शब्दों में कहा कि हम गरीबों के भोजन को नजरअन्दाज कर स्वस्थ्य नहीं रह सकते। उन्होंने मजदूरों के समझे जाने वाले भोजन में फायदों को बतया। कहा कि इसमें फाइबर्स है, रिफाइन भोजन से अब काम नहीं चलने वाला। उन्होंने कहा कि आज लोग मिक्स आटा पसन्द क्यों कर रहे हैं? हमारे बुजुर्ग जौ का सत्तू क्यों खाते थे? उन्होंने कहा कि गेहूँ और चावल से हम आने वाली पीढ़ी का पेट नहीं भर सकते। खेरी, मड़या आदि का औषधीय मूल्य है।

सेमिनार में छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तराखण्ड, नेपाल, मेघालय एवं झारखण्ड के प्रतिनिधि शामिल हुए। अवसर पर सात ​तकनीकी सत्र आयोजित हुए। जिसमें करीब एक सौ शोध पत्र पढ़े गए। विशेष व्याख्यान आरएन शरण नेहू, आरके मिश्रा बीएचयू, एन के शाहा टीएनबीयू, डॉ. वीणा चंद्रा देहरादून, प्रो फारूक अली टीएनबीयू, प्रो. जेएन सिंह टीएनबीयू, प्रो बी झा भावनगर, प्रो आइएस ठाकुर जेएनयू, डॉ. प्रेम प्रकाश छत्तीसगढ़ एवं विष्णुदेव प्रसाद बिएयू सबौर, डॉ. केसी मिश्रा आदि शामिल थे।

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