बाढ़ (courtesy - needpix.com)
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बेपानी व्यवस्था के सामने पानी मांगता न्याय

कहते हैं कि पानी की अपनी स्मृति होती है। वो अपने आसपास से स्मृतियों को समेट कर लंबे समय तक अपने पास रखता है। व्यक्ति या व्यवस्था भले ही अपनी सुविधा या हित के लिए भूल जाए मगर पानी याद रखता है कि यहां नदी थी‚ यहां नाला था‚ यहां से होकर वो बरसात में बहता था‚ और गर्मी और सर्दी वो लौट कर वापस कहां रु कता था। इसलिए पानी की स्मृति को अनदेखा कर उसकी राह में बाधा डालने की कवायद एक विलंबित विनाश का निमंत्रण देती है।
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शुक्र है प्रशासन ने पानी के अवैध रूप से बेसमेंट में घुसने को लेकर पानी के ऊपर जुर्माना नहीं लगाया। कोचिंग हादसे के मामले में तीन छात्रों के मरने को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा प्रशासन के ऊपर की गई यह टिप्पणी बेपानी व्यवस्था के सामने न्याय के पानी–पानी होने की कहानी कहती है। पुलिस प्रशासन दिल्ली में कोचिंग सेंटर के बेसमेंट स्थित लाइब्रेरी में पानी भरने का कसूरवार उस एसयूवी चालक को ठहराना चाह रहा था जो उसके सामने से तेजी वाहन चला कर गुजरा। प्रशासन कहना चाह रहा था कि तेज गति वाहन की वजह से उत्पन्न पानी के छपाके से गेट टूट गया और पानी बेसमेंट में भर गया। 

कहते हैं कि पानी की अपनी स्मृति होती है। वो अपने आसपास से स्मृतियों को समेट कर लंबे समय तक अपने पास रखता है। व्यक्ति या व्यवस्था भले ही अपनी सुविधा या हित के लिए भूल जाए मगर पानी याद रखता है कि यहां नदी थी‚ यहां नाला था‚ यहां से होकर वो बरसात में बहता था‚ और गर्मी और सर्दी वो लौट कर वापस कहां रु कता था। इसलिए पानी की स्मृति को अनदेखा कर उसकी राह में बाधा डालने की कवायद एक विलंबित विनाश का निमंत्रण देती है। ओल्ड़ राजेंद्र नगर कोचिंग हादसे में भी लोग भूल गए कि यह पानी के रास्ते में आ रहा है पर पानी नहीं भूला कि यह हमारी जगह है। बकौल एमसीडी ओल्ड़ राजेंद्र नगर निचला इलाका है। इसलिए वहां इस भवन के बेसमेंट में न केवल ओल्ड़ राजेंद्र नगर के पानी‚ बल्कि पूसा रोड की तरफ आने वाले पानी ने भी रु ख किया। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती‚ बल्कि बेसमेंट के पास ही बरसात का एक नाला भी है‚ और वह बंद पड़ा है। यह एमसीडी को खबर नहीं। उसे यह सुध नहीं रही कि बरसात आने से पहले उसे नाले को खुलवाया जाए। यहां सवाल व्यवस्था तंत्र के रवैये का भी है कि क्या एमसीडी को इस बात की सुध थीॽ

ज्यादा शोरगुल किसलिए

कोचिंग हादसे में शोरगुल इसलिए ज्यादा हो रहा है क्योंकि इसमें मरने वाले युवा अपेक्षाकृत प्रभावशाली घरों के थे और वहां पर युवाओं की बड़ी संख्या मौजूद थी जो कानून‚ अधिकार और व्यवस्था तंत्र की बारीकियों से अच्छी तरह से परिचित थी। वरना दिल्ली में जल–भराव वाली जगह की जानकारी हर आम और खास को है। मिंटो ब्रिज के नीचे जल–भराव की वजह से होने वाले हादसे के बाद भी अगले साल दोबारा वहां जल–भराव हुआ क्योंकि बरसाती पानी को निकालने के लिए लगाया गया पंप ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रहा था। दिल्ली में हर साल नालों की गाद निकाल कर उसे उठाने से बचने का खेल चलता है।

कोचिंग हादसे के बाद जिस तरह से छात्रों का प्रदर्शन हुआ‚ छात्र धरना स्थल पर भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए पढ़ते नजर आए‚ उससे एक बात साफ जाहिर होती है कि हमारी प्रशासनिक संरचना के भागीदार नहीं होने से किसी की जिंदगी पर कितना फर्क पड़ता है। प्रभावशाली लोगों को बचाने के लिए प्रशासनिक तंत्र नियम–कानून की व्याख्या किस तरह से करता है‚ यह उच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी से जाहिर है। न्याय सिर्फ कानून के माध्यम से ही नहीं उपलब्ध हो सकता है। अगर न्यायिक व्यवस्था के लोग किसी तकनीकी खामी का इस्तेमाल कर प्रभुत्वशाली लोगों को बचाने और इस सेवा के बदले निजी लाभ लेने की जुगत में रहेंगे तो न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। न्यायालय में जिम्मेदार पदों पर बैठे रहने वाले लोगों को अपने विवेक और सामाजिक यथार्थ का उपयोग लोगों को न्याय दिलाने में करना होगा।

उच्च न्यायालय ने दिल्ली पुलिस और नगर निगम की न केवल कार्यप्रणाली‚ बल्कि उनकी मंशा को लेकर भी टिप्पणी की है। दिल्ली पुलिस से लेकर जांच जिस संस्था को दी जाने की सिफारिश की गई उसकी कार्यक्षमता को लेकर तो सवाल नहीं उठे हैं पर उसकी मंशा को लेकर आम लोगों के जेहन में एक सवाल बना रहता है। आम धारणा है कि सीबीआई अक्सर सत्ताधारी दल की चेरी की तरह काम करती है। सत्ताधारी दल अक्सर इसका इस्तेमाल मामले को ठंडा करके अपना हित साधने के लिए करता रहा है। विश्वास का संकट कितना गहरा है कि जांच को न केवल सीबीआई के अधीन किया गया है‚ बल्कि उसकी निगरानी के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग को जिम्मेदारी दी गई है क्योंकि निचली अदालत का फैसला दिल्ली पुलिस के रवैये की पोल पूरी तरह से खोल चुका था। आम व्यक्ति होता तो जांच किस तरह चलती और कसूर किन लोगों के माथे मढ़ा जाता है‚ यह साफ है। 

इस हादसे ने सवाल सिर्फ व्यवस्था को लेकर नहीं उठाया है‚ बल्कि सवाल सामाजिक स्वरूप और मूल्यों को लेकर भी है। आखिर‚ क्यों युवाओं की इतनी बड़ी आबादी अपना सारा कुछ दांव पर लगा कर प्रशासनिक व्यवस्था में शामिल होना चाहती है जबकि वेतन और सुविधा के मामले में निजी क्षेत्र कहीं आगे है। दूसरी तरफ‚ प्रसिद्ध सफल वकीलों में से बहुत कम न्यायाधीश बनना चाहते हैं। शायद हमारी सामाजिक संरचना न्यायपूर्ण नहीं है। सामाजिक संरचना द्वारा अन्यायपूर्ण स्थिति में रह रहे लोगों के लिए अपनी स्थिति को बदलने के लिए प्रशासनिक तंत्र का अंग होना एकमात्र प्रमुख माध्यम है। यही वजह है कि इसके लिए लोग कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। हमारे समाज में मूल्य प्रणाली भी इतनी कमजोर है कि वह न्याय के लिए अपनी सामाजिक हैसियत में बदलाव लाकर असुविधा उठाने के लिए तैयार नहीं है।

स्रोत - सहारा समय : बे-पानी तंत्र और पानी-पानी न्याय, शीर्षक से प्रकाशित, 10 Aug 2024


 

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