भविष्य की आपदा : जल संकट

भविष्य की आपदा : जल संकट

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बेहिसाब जल दोहन से भविष्य में जल संकट एक आपदा के रूप में सामने आएगा। जिस प्रकार से इस्तेमाल से अधिक जल का दुरुपयोग किया जा रहा है, एक समय आएगा जब जरूरत के पानी के लिए भी मारामारी करनी पड़ेगी। लोगों की लापरवाही के साथ ही राज्य व केन्द्र सरकारें भी जल संरक्षण के लिये पर्याप्त योजनाएँ नहीं बनाए जाने की दोषी हैं। जल को संरक्षित किए जाने के लिए यदि समय पर गम्भीर विचार नहीं किए जाएँगे तो भविष्य की आपदा से बच पाना लगभग असम्भव है। अभी भी देश के लगभग आधे से अधिक भाग में अप्रैल से लेकर जून तक यानी बारिश से पूर्व तक जल संकट प्रति वर्ष गहराता है।

देश के 32 प्रमुख व बड़े शहरों में से 22 वर्तमान में भी भारी जल संकट से जूझते हुए नजर आ रहे हैं। सर्वे के मुताबिक,चार हजार से अधिक भूमिगत जल स्रोतों का जलस्तर लगातार घटता जा रहा है। देश की एक अरब बीस करोड़ की आबादी में लगभग एक अरब लोगों को गुणवत्तापरक पेयजल नहीं उपलब्ध हो रहा है।

विशेष रूप से उत्तर भारत की धरती का जलस्तर लगातार गिर रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में अकेले 415.8 करोड़ लीटर पानी की खपत बताई जा रही है, जिसमें केवल 315.6 करोड़ लीटर पानी की आपूर्ति हो रही है। इसी प्रकार फरीदाबाद, मेरठ, कानपुर, आसनसोल, मुदरै, हैदराबाद जैसे शहरों में तीस फीसदी कम जल की आपूर्ति की जा रही है।

खेती के लिए अकेले 60 फीसदी जल का प्रयोग किया जा रहा है। देश में आज भी इस वैज्ञानिक युग में पुराने ढर्रे की सिंचाई परियोजनाएँ अपनाई जा रही हैं। जबकि अभी अधिकतर कृषि योग्य भूमि असिंचित ही हैं, जबकि सिंचित क्षेत्र बढ़ाए जाने की कवायदें की जा रही हैं। जैसे ही सिंचित क्षेत्र का दायरा बढ़ेगा, जल संकट और तेजी से अवश्य बढ़ता जाएगा। दूसरे विकसित देशों में नहरीय सिंचाई लगभग बंद कर दी गई है और दूसरी सिंचाई की पद्धतियों को प्रयोग में लाया जा रहा है। नहर से सिंचाई किए जाने पर लगभग साठ से सत्तर फीसदी जल बेकार हो जाता है, जिसका पौधे किसी प्रकार से कोई प्रयोग नहीं कर पाते हैं। किसान भी नहर के पानी को लापरवाही पूर्ण तरीके से प्रयोग भी करते हैं।

खेत की सिंचाई हो जाने के बावजूद अपनी सुविधा के मुताबिक खेत में आ रहे जल को बंद करते हैं। सिंचाई के लिए जिस पौधे को पानी की जरूरत हो उसी को पानी दिए जाने की तकनीक को अपनाया जाना चाहिए। हालाँकि इसके लिए टपक सिंचाई को सरकारें बढ़ावा दे रही हैं, जिसके लिए किसानों को लगभग 70 फीसदी तक अनुदान भी दिया जा रहा है।

टपक सिंचाई के द्वारा खेत में उसी पौधे को जल उपलब्ध कराया जाता है, जिसे पानी की आवश्यकता है, शेष क्षेत्र में जो बेकार पानी भर दिया जाता है उसे बचाया जा सकता है। टपक सिंचाई के साथ ही जब तक किसानों को जल संरक्षण के महत्व को नहीं बताया जाएगा, तब तक यह परियोजना व्यापक स्तर पर परवान नहीं चढ़ पाएगी।

इसी प्रकार मल्चिंग खेती करके पानी की बचत काफी हद तक की जा सकती है। इस विधि के लिए भी सरकारें काफी प्रोत्साहन राशि अनुदान के रूप में किसानों को प्रदान कर रही हैं। फिर भी जागरूकता के अभाव में उक्त योजनाएँ मूर्तरूप धारण नहीं कर पा रही हैं। इसके अतिरिक्त कई विभाग जल संरक्षित करने के उद्देश्य से स्थापित किए गए हैं, जिनका कार्य ही जल संरक्षण करना अथवा जल संरक्षण की तकनीकी को बढ़ावा देना है। लेकिन इन विभागों की सुसुप्तावस्था के कारण किसानों के बीच में जल संरक्षण व पानी की महत्ता की बात समुचित रूप से नहीं पहुँच पा रही है।

इसी का नतीजा है कि कभी नदियों में पानी की अधिकता के कारण सारी फसल चौपट हो जाती है। लेकिन गर्मी के सीजन में वहीं नदी गड्ढे की भाँति नजर आने लगती है। कई छोटी नदियों में तो पानी का बहाव भी बंद हो जाता है। इसे जल संरक्षण नीति की कमजोरी ही कहा जा सकता है। क्योंकि जब पानी अधिक रहा तो सम्भाला नहीं गया और अब पानी के लिए लाले पड़ गए। कुल मिलाकर जल संरक्षण के बारे में यदि गम्भीरता से विचार नहीं किया गया तो भविष्य में हम सबको जल की त्रासदी झेलने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

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