एक अनोखी आर्द्रभूमि बचाने को आतुर इकलौता आदमी
यह स्टोरी ‘द गार्जियन’ में जब छपी थी, तब ध्रुवज्योति घोष जीवित थे। उनका निधन 16 फरवरी 2018 को हार्ट अटैक से हो गया। ध्रुवज्योति घोष ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स के गार्जियन की तरह थे। उन्होंने लम्बे समय तक न केवल इसकी देखभाल की बल्कि दुनिया को यह भी बताया कि किस तरह इस आर्द्रभूमि में लाखों लीटर गन्दा पानी प्राकृतिक तरीके से साफ हो जाता है। यह स्टोरी आर्द्रभूमि को बचाने के लिये ध्रुवज्योति घोष के संघर्ष को भी दर्शाती है। गमले में रखे परित्यक्त पौधे की तरह ही जनवरी में कोलकाता की सड़कों पर लगे पेड़ धूल से सने होते हैं। ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ियाँ रुकती हैं, तो हॉकर धूल झाड़ने वाला डस्टर लेकर कार ड्राइवरों के पास दौड़ पड़ते हैं।
शहर के फ्लाईओवरों के बीच की जगह में पौधे लगाए गए हैं और इनके आसपास क्लीन व ग्रीन शहर के पोस्टर चस्पां कर दिये गए हैं। शहर में जितने पोस्टर ‘क्लीन व ग्रीन शहर’ के दिखते हैं, उससे कहीं ज्यादा पोस्टर निवेशकों से यहाँ निवेश करने की अपील वाले हैं।
सुसंस्कृत शहर के रूप में मशहूर कोलकाता की आबादी करीब 14.5 मिलियन है और ब्रिटिश हुकूमत के वक्त यह लंदन के बाद दूसरा सबसे बड़ा शहर था जहाँ अंग्रेजों का शासन चलता था। अब यह शहर दिल्ली, मुंबई, चेन्नई व बंगलुरु जैसा बन जाने को उतावला है।
कोलकाता शहर समुद्र की सतह से महज 5 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और पानी से घिरा हुआ है। इस शहर के पूर्वी हिस्से में वृहत आकार की एक अनोखी आर्द्रभूमि है। ठीक ऐसे समय में जब कोलकाता को इस आर्द्रभूमि की सख्त जरूरत है, इस पर रीयल एस्टेट डेवलपरों की गिद्ध दृष्टि पड़ गई है।
जिन क्षेत्रों में कानूनन कंस्ट्रक्शन करने की इजाजत नहीं है, वहाँ भी सैकड़ों रिहायशी इमारतें, स्कूल-कॉलेज व छोटे मकान बन रहे हैं।
समुद्र के जलस्तर में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी व जलवायु परिवर्तन के असर के मद्देनजर विश्व बैंक ने एक स्टडी की थी जिसमें कहा गया था कि इसके असर से मियामी, न्यूयॉर्क, न्यू ऑर्लींस व मुम्बई को सबसे ज्यादा नुकसान हो सकता है। स्टडी में बाढ़ से प्राकृतिक व कृत्रिम तरीके से बचाव के उपायों पर विचार करने का मशविरा दिया गया था।
विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2050 तक समुद्र के जलस्तर में 20 सेंटीमीटर तक की बढ़ोत्तरी होने पर कोलकाता विश्व का तीसरा शहर होगा, जो जोखिम के दायरे में आएगा।
विश्व बैंक के इस पूर्वानुमान से भले ही यह महसूस हो रहा हो कि वर्ष 2050 के आने में देर है, लेकिन इसके जो प्राथमिक संकेत दिख रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि वो घड़ी करीब है।
पिछले साल नवम्बर में चेन्नई में आई बाढ़ ने 18 लाख लोगों को बेघर कर दिया था। बाढ़ की बात हो रही है तो यह भी सनद रहे कि 20 साल पहले चेन्नई शहर के आसपास 650 आर्द्रभूमि थी। अभी इनकी संख्या महज 27 रह गई है।
चेन्नई में सुपर-पावर विकास आर्द्रभूमि की कीमत पर आया है। वही आर्द्रभूमि जो बाढ़ से बचाव का सबसे कारगर माध्यम होती है। आर्द्रभूमि न हो, तो बाढ़ के पानी के निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता है जिससे यह घरों में ही प्रवेश करता है।
आसमान से अगर कोलकाता को देखा जाये, तो यह सुनहरा दिखता है। इसके पूरब की तरफ पानी का एक बड़ा क्षेत्र है। इसकी सीमाएँ हरी घास से ढँकी हुई हैं। दूर से देखने पर लगता है कि मैदान में बाढ़ आई हो। इसमें तालाब भी हैं, चैनल भी व बड़ी झील भी।
अगर आप सड़क मार्ग से ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स की तरफ जाएँ, तो आपको ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स की ओर से दोपहिया ट्रैलर व मोटरसाइकिलों पर सब्जियाँ व मछलियाँ लेकर बाजार जाते लोग दिखेंगे।
इस आर्द्रभूमि में जिस प्रक्रिया से पानी की सफाई होती है, वह कुछ प्राकृतिक है और कुछ मानव निर्मित। इस अद्भुत प्रक्रिया को खोज लाने का श्रेय जाता है इंजीनियर से इकोलॉजिस्ट व फिर मानव विज्ञानी बने ध्रुवज्योति घोष को।
ध्रुवज्योति घोष बांग्ला टोनवाली अंग्रेजी नहीं बोलते हैं। उनकी अंग्रेजी बहुत सॉफ्ट व एकदम शुद्ध है।
सन 1981 में घोष को यह पता लगाने को कहा गया था कि आखिर कोलकाता के घरों से निकलने वाला गन्दा पानी जाता कहाँ है। कोलकाता से भारी मात्रा में सीवेज निकलता है जबकि कोलकाता में कोई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। इसके बावजूद यहाँ सीवेज से प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं है। शहर से निकलने वाला गन्दा पानी कहीं जाकर विलुप्त हो जाता है।
69 वर्षीय घोष कहते हैं, ‘जिस प्रक्रिया से यहाँ गन्दा पानी साफ होता है, उसके लिये अंग्रेजी में ‘सेरेंडिपिटी’ (आकस्मिक हुई खोज) शब्द सबसे उपयुक्त है।’
हम आर्द्रभूमि के एक तालाब के बगल में खड़े हैं। यहाँ एक टूटा-फूटा ढाँचा नजर आ रहा है, जो कुछ-कुछ मन्दिर जैसा दिखता है। युवाकाल में घोष रोजाना कोलकाता से पैदल यहाँ आया करते थे, यह पता लगाने कि गन्दा पानी यहाँ कैसे खुद-ब-खुद साफ हो जाता है। जानते-समझते उन्हें पता चला कि यहाँ का पानी बेहद खूबसूरत है। वह कहते हैं, ‘यहाँ जो हो रहा है उसे समझने के लिये जीवविज्ञान की डिग्री की जरूरत नहीं, कॉमन सेंस ही काफी है। गन्दे पानी में 95 प्रतिशत पानी और महज 5 प्रतिशत हिस्सा समस्यादायक होता है।’
कोलकाता से निकलने वाला गन्दा पानी चैनलों के मार्फत वेटलैंड्स में पहुँचता है। वेटलैंड्स में जाकर सूरज की अल्ट्रा वायलेटेड (यूवी) किरणों से गन्दे पानी में मौजूद तत्व टूटने लगता है। (विडम्बना देखिए कि कोलकाता का मध्यवर्ग पानी को पीने लायक बनाने के लिये यूवी ट्रीटमेंट पर पैसे खर्च करता है।)
शहर से निकलने वाले गन्दे पानी में जो तत्व होते हैं, वे बैक्टीरिया व सूरज की किरणों से मछलियों के लिये भोजन में तब्दील हो जाते हैं। वेटलैंड्स से इस पानी को चैनलों के जरिए तालाबों तक पहुँचाया जाता है जहाँ मछलीपालन किया जाता है।
हालांकि, सीवेज से पलने वाली मछलियों में हानिकारक तत्व होने का एक सन्देह उभरता है। लेकिन, घोष व अन्य विशेषज्ञों की राय है कि ये मछलियाँ बिल्कुल हानिकारक नहीं होतीं, क्योंकि कोलकाता से निकल वाले पानी में हेवी मेटल्स बहुत कम होते हैं।
मैं घोष से जर्जर इमारत के बारे में पूछता हूँ। वह मुस्करा देते हैं। घोष स्थानीय लोगों से कहते हैं कि वे इस इमारत को यों ही रहने दें क्योंकि यह महत्त्वपूर्ण धरोहर है। यह इमारत असल में ब्रिटिश के समय बनाए गए पारम्परिक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का हिस्सा है, जो अब काम नहीं करता।
उष्णकटिबन्धीय देशों में महंगे वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए हानिकारक बैक्टीरिया को बाहर निकाला जाता है। लेकिन, कोलकाता का यह वेटलैंड्स गन्दे पानी को महज 20 दिनों में साफ कर देता है। वैसे पारम्परिक तरीके से जल परिशोधन में शैवाल परेशानी का सबब बन सकता है। लेकिन, ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स से मछुआरे ही शैवाल हटा देते हैं और उनका इस्तेमाल मछलियों के भोजन के रूप में करते हैं। वेटलैंड्स में चूँकि प्रचूर मात्रा में पोषक तत्व होते हैं, इसलिये मछलियों का विकास तेजी से होता है।
घोष कहते हैं, ‘यहाँ मछलीपालन के लिये कुछ नहीं लगता है। आपको मछलियों के लिये भोजन की भी जरूरत नहीं पड़ती है।’
ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स यहाँ दो भूमिकाएँ निभाते हैं, हालांकि दोनों ही परस्पर विरोधी हैं। अव्वल तो यहाँ सीवेज का ट्रीटमेंट होता है और यह उर्वर एक्वाटिक मार्केट भी है। दूसरा इसका पानी मछलियों के काम तो आता ही है साथ ही इसका उपयोग धान व सब्जियों की सिंचाई के लिये भी किया जाता है। यानी इसके लिये अतिरिक्त खर्च भी नहीं करना पड़ता है। सम्भवतः यह भी एक वजह है कि कोलकाता देश के दूसरे शहरों की तुलना में सस्ता है।
ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स में हर साल करीब 10 हजार टन मछलियों का उत्पादन होता है और कोलकाता के बाजारों में बिकने वाली साग-सब्जियों का 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा वेटलैंड्स गार्बेज फार्म से तैयार किया जाता है। कोलकाता में मिलने वाली सब्जियाँ सस्ती व ताजी होती हैं। सस्ती इसलिये कि उसे बाजार तक लाने में साइकिल का इस्तेमाल किया जाता है और ताजी इसलिये कि बाजार से खेतों की दूरी कम है।
घोष कहते हैं, ‘इस शहर को मैं इकोलॉजिकली सब्सिडाइज्ड शहर कहता हूँ। अगर आप इन आर्द्रभूमियों को खो देंगे, तो सब्सिडी खो देंगे। लेकिन, कोलकाता के लोग यह जानने के इच्छुक नहीं हैं कि आखिर कोलकाता इतना सस्ता शहर क्यों है।’
ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स में लम्बे समय से इस प्रक्रिया से गन्दे पानी का परिशोधन हो रहा है, लेकिन घोष से पहले आधिकारिक तौर पर यह किसी को नहीं पता था। हाँ, वहाँ के मछुआरे यह जानते थे।
बताया जाता है कि अंग्रेजी हुकूमत के वक्त एक बंगाली जिसने ग्लासगो से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी, ने एक चैनल बनाया ताकि कोलकाता के घरों से निकलने वाला गन्दा पानी इस वेटलैंड्स में जा सके।
बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में स्थानीय मछुआरे इस पानी का इस्तेमाल मत्स्यपालन के लिये किया करते थे। तालाबों में धान की खेती हुआ करती थी। फिलवक्त इस वेटलैंड्स से 30000 लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है।
घोष का शोध महत्त्वपूर्ण तो था, लेकिन उसे तुरन्त आधिकारिक मान्यता नहीं मिली। वह कहते हैं, ‘दस सालों तक मेरे शोध को चुनौती दी जाती रही, लेकिन यह इतना सीधा था कि चुनौती देने लायक इसमें कुछ था ही नहीं।’