एक बांध और कई बवाल
अशोक चह्वाण कभी कांग्रेस के चहेते मुख्यमंत्रियों में से थे, लेकिन बाभली परियोजना और चंद्रबाबू नायडू के मुद्दे पर वे अब हाई कमान की आंख की किरकिरी बन चुके हैं।एक अरसे से कांग्रेस हाई कमान की आंखों का तारा होने का दम भरते आये महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण अब आंख की किरकिरी साबित हो रहे हैं। पड़ोसी राज्यों-आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के साथ बाभली परियोजना और मराठी-भाषी इलाकों के मसले को लेकर उन्होंने जिस राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दिया है, उससे केंद्र सरकार और कांग्रेस हाईकमान दोनों ही नाराज हैं। गोदावरी नदी पर स्थित बाभली जल परियोजना के मुद्दे पर उन्होंने आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगु देशम पार्टी के नेता एन. चंद्रबाबू नायडू को जीरो से हीरो बना दिया। आंध्रप्रदेश में भी कांग्रेस की ही सरकार है और वाइएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने पहले से ही मुख्यमंत्री के रोसैया की नाक में दम कर रखा है।
बाभली बैराज एक बांध है जो महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले से होकर बहने वाली गोदावरी नदी पर बनाया जा रहा है। यह इलाका आंध्र की सीमा से लगता है। गोदावरी आंध्र में श्रीराम सागर परियोजना के जलाशय को भी पानी उपलब्ध कराती है जो तेलंगाना के सात जिलों-निजामाबाद, आदिलाबाद, करीमनगर, वारंगल, खम्मम, मेडक और रंगारेड्डी- के लिए जीवन रेखा साबित हो रही है। यह बैराज श्रीराम सागर परियोजना को प्रभावित करेगा। चूंकि गोदावरी महाराष्ट्र से बहती हुई आंध्रप्रदेश में जाती है, इसलिए इसका पानी दोनों राज्यों के बीच बांटा जाता है। दोनों राज्यों के बीच 6 अक्तूबर 1975 को पानी के इस्तेमाल को लेकर समझौता हुआ था।
इस समझौते के तहत महाराष्ट्र को 60 थाइलैड मिलियन क्यूबिक फुट (टीएमसीएफ) पानी मिलना तय किया गया। इससे नांदेड़ के 58 गांवों और 7995 हेक्टेयर जमीन को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने के लिए धरमाबाद तालुके में 10 मार्च 1995 को बैराज बनाने का फैसला किया गया जो कि बाभली नामक क्षेत्र में था। इस पर 221 करोड़ रुपये खर्च होने हैं और अब तक 165 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। अगस्त 2004 में इसका निर्माण कार्य शुरू हुआ, जिसे 2009 में पूरा हो जाना था। इसका बहुत थोड़ा-सा ही काम बाकी है।
आंध्रप्रदेश ने पहली बार 2005 में केंद्र सरकार से इस पर अपना विरोध दर्ज करवाया। उसकी शिकायत थी कि 1975 में किये गये गोदावरी जल विवाद समझौते का उल्लंघन करते हुए इस बैराज का निर्माण किया जा रहा है। इसके निर्माण से श्रीराम सागर परियोजना को मिलने वाले पानी पर असर पड़ेगा। शिकायत मिलने पर केंद्रीय जल आयोग ने दोनों राज्यों के अफसरों के साथ बैठकें कीं। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ 4 अप्रैल 2006 को भी बैठक की गयी। इस संबंध में एक तकनीकी समिति गठित की गयी, जिसे 20 मई 2006 तक अपनी रिपोर्ट देनी थी। यह भी तय किया गया कि फिलहाल बाभली परियोजना में यथास्थिति बनायी रखी जाये। तकनीकी समिति की दो बैठकें होने के बाद भी कोई रिपोर्ट नहीं दी गयी।
इससे नाराज होकर आंध्र प्रदेश सरकार ने जुलाई 2006 में सर्वोच्च न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। बाभली बांध के निर्माण पर तुरंत रोक लगाये जाने की मांग की गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने 26 अप्रैल 2007 को दिये अपने अंतरिम आदेश में जहां एक ओर बाभली परियोजना का काम जारी रखा, वहीं यह कहा कि वह उसमें पानी रोकने वाले दरवाजे नहीं लगायेगा। महाराष्ट्र सरकार अपने जोखिम पर यह निर्माण कार्य जारी रख सकती है।
महाराष्ट्र सरकार की दलील थी कि वह अपनी सीमा में बैराज बना रही है। दोनों राज्यों में पानी के बंटवारे का जो समझौता हुआ था, इसके निर्माण के बाद भी उसे उतना ही हिस्सा मिलेगा। उसका दावा है कि वह सर्वोच्च न्यायालय की सहमति से ही इस निर्माण कार्य को जारी रखे हुए है। अगर तेलंगाना में 12 विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव न हुए होते तो शायद यह मामला ठंडा पड़ा रहता ।
खुद मुख्यमंत्री रहते हुए तेलंगाना राज्य के गठन का विरोध कर चुके तेलुगुदेशम के नेता चंद्रबाबू नायडू को इस क्षेत्र में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए यह एक सुनहरा मौका लगा। यह बात अलग है कि कांग्रेस की तरह ही उनकी पार्टी का इस उपचुनाव में सफाया हो गया। सुर्खियों में आने की कोशिश में चंद्रबाबू नायडू ने बाभली जाने का एलान कर दोनों ही राज्यों की सरकारों के लिए समस्या खड़ी कर दी। वे अपने दल के 66 विधायकों, सासंदों और पदाधिकारियों के साथ बाभली के लिए रवाना हो गये।
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के रोसैया ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण से अनुरोध किया कि वे मौके की नजाकत को देखते हुए इन लोगों को वहां जाने दें, लेकिन वे नहीं माने। महाराष्ट्र की सीमा में प्रवेश करते ही चंद्रबाबू नायडू को उनके दल-बल समेत गिरफ्तार कर लिया गया। इसका सीधा लाभ विपक्ष को मिला। कडप्पा के कांग्रेसी सासंद जगनमोहन के अपने चैनल ‘साक्षी’ ने उनसे कहीं ज्यादा चंद्रबाबू नायडू को प्रचार दिया। इससे बैठे-ठाले विपक्ष सुर्खियों में आ गया। तेलुगु-देशम, जो अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत थी, राज्य के राजनीतिक पटल पर तेजी से उभर कर छा गयी। इससे चंद्रबाबू को अपने दल के अंदर भी स्थिति मजबूत करने में काफी मदद मिली क्योंकि एनटी रामाराव के अभिनेता पुत्र एन बालकृष्ण उन्हें पार्टी में अलग-थलग करने में जुटे थे।
आंध्र प्रदेश में तेलुगुदेशम पार्टी में जान पड़ने की खबरों से घबड़ाये कांग्रेस हाइ कमान ने जब अशोक चह्वाण को आडे हाथों लिया तो उन्होंने जेल भेजने के लिए रवाना कर दिये गये चंद्रबाबू नायडू और उनके दल को बीच रास्ते में वापस बुलवा कर विशेष चार्टर्ड विमान से हैदराबाद रवाना करवाया। उनके खिलाफ सरकार द्वारा दायर किये गये मुकदमे भी वापस हो गये। अशोक चह्वाण को अप्रत्यक्ष रूप से राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री व भारी उद्योग और सार्वजनिक उपक्रम मंत्री विलास राव देशमुख ने भी कड़ी लताड़ पिलायी। उनका कहना था कि बेहतर यही होता कि इस तरह के मामले पूरी तरह से सर्वोच्च न्यायालय पर छोड़ दिये जाते। अव्वल, तो इन लोगों को राज्य में घुसने ही नहीं देना चाहिए था। अगर वे घुस गये थे तो उन्हें वहां जाने देना चाहिए था।
अशोक चह्वाण की दूसरी फजीहत कर्नाटक के बेलगांव जिले के मराठी भाषी 865 गांवों को केंद्र –शासित प्रदेश का दर्जा दिये जाने की मांग को लेकर हुई। पहली बार जब 1956 में भाषाई आधार पर राज्यों का गठन हुआ था तो मैसूर का हिस्सा रहा बेलगांव कर्नाटक में शामिल हुआ। सन् 1960 में मुंबई का पुनर्गठन करके उसे महाराष्ट्र और गुजरात में बांट दिया गया। तब से ही बेलगांव के मराठी भाषी गांवों के लोग इसे महाराष्ट्र में शामिल किये जाने की मांग करते आये हैं। महाराष्ट्र सरकार ने इस मामले को लेकर सर्वाच्च न्यायालय में गुहार लगायी और केंद्र सरकार ने उसकी मांग के खिलाफ हलफनामा दाखिल करके कहा कि महज भाषा के आधार पर ही किसी राज्य का पुनर्गठन नहीं किया जा सकता। इस हलफनामे में राज्य सरकार से इस तरह की अपील करने के कारण उस पर हुए अदालती खर्च को भी वसूलने की गुजारिश की गयी। अहम बात तो यह रही कि अशोक चह्वाण ने इस हलफनामे की सार्वजनिक रूप से आलोचना की। वे अपनी इस मांग पर कायम रहे कि बेलगांव को केंद्र-शासित प्रदेश का दर्जा दिया जाये।
चह्वाण के इस रूख से खुद सोनिया गांधी काफी नाराज हैं, क्योंकि बेलगाम को केंद्र-शासित प्रदेश का दर्जा दिये जाने की मांग शिवसेना करती रही है। उनका मानना है कि इस तरह की बचकानी मांग का समर्थन करने से निकट भविष्य में पार्टी के लिए काफी दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं। वे उत्तर भारत के नेता कृपाशंकर सिंह की इस दलील से सहमत हैं कि मुंबई में बहुत बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग रहते हैं। कल को वे भी भाषाई आधार पर मुंबई को केंद्र-शासित प्रदेश घोषित करने की मांग कर सकते हैं। यह स्थिति महाराष्ट्र में रहने वाले कन्नड़भाषियों की भी है। अगर उन्होंने भी कर्नाटक के साथ मिलने की इच्छा जाहिर की तो क्या होगा?