हदें पार कर रहा है भूजल का दोहन
हर साल हम जितना पानी ट्यूबवेल और अन्य संसाधनों से उलीच रहे हैं उसे यदि साल भर का इकट्ठा मिला लिया जाये तो हमारे देश के सबसे बड़े बाँध 9.340 क्यूबिक किमी क्षमता वाले भाखड़ा नांगल डैम को 26 बार भरा जा सकता है। इतनी बड़ी तादाद में हर साल पानी धरती के गर्भ से निकाला जा रहा है, कल को यदि यह पानी का खजाना रीत गया तो... बिना इस चिन्ता के हम लगातार इसका मनमाना और लापरवाहीपूर्ण दोहन कर रहे हैं। हजारों-लाखों सालों से किसी बैंक बैलेंस की तरह संग्रहित हमारे भूजल भण्डार का दोहन हम इस हद तक कर चुके हैं और कर रहे हैं कि अब चिन्ता नहीं की तो शायद यह खजाना धीरे-धीरे खत्म भी हो सकता है। हम भूजल का दोहन करने के मामले में तमाम हदें पार कर चुके हैं। इस बार केन्द्रीय भूजल मण्डल की जो रिपोर्ट सामने आई है, उसने हमारी आशंकाओं को और भी बढ़ा दिया है।
पूरी दुनिया में कोई भी देश अपने भूजल भण्डार का इतना ज्यादा दोहन नहीं कर रहा है, जितना हम कर रहे हैं। बीते तीस सालों में हमने कभी इस पर गम्भीरता नहीं बरती, यही कारण है कि आज हम दुनिया में अपने जमीनी पानी के खजाने को लूटने में अव्वल नम्बर पर हैं। देश में बीते कुछ सालों के बारिश के आँकड़ों पर गौर करें तो साफ है कि बारिश में लगातार कमी हो रही है। इसका बुरा असर हमारे भूजल भण्डार पर पड़ रहा है, लेकिन इसकी चिन्ता किये बिना भूजल पर हमारी निर्भरता बढ़ती ही जा रही है।
ताजा रिपोर्ट बताती है कि हम हर साल अपने जमीनी पानी के भण्डार से 251 क्यूबिक किलोमीटर (सीयूकेएम) पानी लगातार निकाल रहे हैं। आँकड़े से भी कई बार इसकी भयावहता स्पष्ट नहीं हो पाती तो अब जरा यह भी जान लें कि यह आँकड़ा करीब कितने पानी का होगा?
आप यह जानकर हैरान रह जाएँगे कि हर साल हम जितना पानी ट्यूबवेल और अन्य संसाधनों से उलीच रहे हैं उसे यदि साल भर का इकट्ठा मिला लिया जाये तो हमारे देश के सबसे बड़े बाँध 9.340 क्यूबिक किमी क्षमता वाले भाखड़ा नांगल डैम को 26 बार भरा जा सकता है। इतनी बड़ी तादाद में हर साल पानी धरती के गर्भ से निकाला जा रहा है, कल को यदि यह पानी का खजाना रीत गया तो... बिना इस चिन्ता के हम लगातार इसका मनमाना और लापरवाहीपूर्ण दोहन कर रहे हैं।
इसमें ज्यादातर पानी का इस्तेमाल खेतों में सिंचाई के लिये किया जा रहा है। 2014-15 की केन्द्रीय भूजल मण्डल की रिपोर्ट खुद कहती है कि भूजल का इस्तेमाल सर्वाधिक करीब 90 फीसदी सिंचाई के लिये किया जा रहा है। इसकी वजह से हमारे देश में करीब 60 फीसदी जमीन सिंचित हो पाती है।
हम दुनिया में पहले ऐसे देश के रूप में पहचाने जाते हैं, जो अपने पानी के लिये सबसे ज्यादा भूजल पर ही निर्भर रहते हैं। यहाँ तक कि सर्वाधिक आबादी वाला देश चीन और विकसित देश अमेरिका भी इस कतार में हम से पीछे खड़े नजर आते हैं। इन दोनों देशों में भूजल भण्डारण के दोहन की दर भारत की दर 251 क्यूबिक किमी से कम मात्र 112 क्यूबिक किमी (यूनेस्को की 2012 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक) तक ही सीमित है।
एक अनुमान है कि देश में भूजल उलीचने के लिये करीब तीन करोड़ से ज्यादा संरचनाएँ हैं, लेकिन भूजल को जमीन में पहुँचाने के लिये हमारे यहाँ कोई गौर नहीं किया जाता। बैंक के खातों की तरह हम बड़ी तादाद में पानी निकाल तो रहे हैं पर उतनी ही तादाद में धरती में वापस लौटा नहीं पा रहे हैं, इससे भूजल स्तर में लगातार कमी होती जा रही है।
भूजल वैज्ञानिक बताते हैं कि भूजल भण्डारण पर बढ़ती हुई निर्भरता का सबसे बड़ा कारण देश के किसानों में हरित क्रान्ति के बाद आया वह बड़ा बदलाव माना जाता है, जो उन्हें यह धारणा बनाता है कि खेतों में सिंचाई के लिये ट्यूबवेल ही एकमात्र सहारा है। हमारे यहाँ परम्परागत त्रिकोण से कुओं-तालाबों से भी सिंचाई होती रही है। लेकिन हरित क्रान्ति के दौरान जो प्रयोग देश में किये गए, उनमें कुओं और तालाबों पर ज्यादा बात नहीं हुई। यहाँ किसानों को बताया गया कि भरपूर पानी के लिये ट्यूबवेल ही श्रेयस्कर है।
इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अभी तक पानी को खासकर भूजल भण्डार को हमने सामुदायिक संसाधन स्वीकार नहीं किया है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की तर्ज पर अभी तक जिसकी जमीन, उसका ही पानी माना जाता रहा है, जबकि पानी पर वहाँ रहने वाले और खेती करने वाले पूरे समुदाय का अधिकार होना चाहिए। बारिश का पानी जमीन में रिसते हुए जिस तरह लाखों सालों में भूजल भण्डार के रूप में संचित है, उस पर किस तरह जमीन के मालिक का ही हक हो सकता है।
यही कारण है कि देश में कुछ ही बरसों में ट्यूबवेल की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई और हमारे कुएँ तथा अन्य सिंचाई संसाधन लगातार पिछड़ते चले गए। कुएँ-कुण्डियाँ और ताल-तलैया उपेक्षित हो गए। ज्यादा-से-ज्यादा पानी लेने की होड़ में बोरवेल मशीनों से धरती के गर्भ में गहरे और गहरे उतरते चले गए। अब भी हमारी यह होड़ थमी नहीं है।
केन्द्रीय भूजल मण्डल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इस साल 64 प्रतिशत कुओं के जलस्तर में गिरावट दर्ज की गई है, जो बहुत ही चिन्ताजनक और विचारणीय तथ्य है। रिपोर्ट के मुताबिक मात्र 03 प्रतिशत कुओं के जलस्तर में ही मुश्किल से चार मीटर की बढ़ोत्तरी हुई है। यह उस देश के आँकड़े हैं, जहाँ कुओं का इस्तेमाल परम्परागत सिंचाई में कभी सबसे बड़े स्रोत के रूप में किया जाता रहा है। 64 फीसदी कुओं में गिरावट, 33 फीसदी में कोई अन्तर नहीं और मात्र 03 फीसदी में बढ़ोत्तरी।
भूगर्भ वैज्ञानिक बताते हैं कि धरती के पानी भण्डार को बढ़ाने में वही बारिश उपयोगी होती है जो बहुत धीमे-धीमे होती है। यह पानी ही धरती की नसों में जा पाता है और लाखों साल पुराने जल भण्डार को और भी समृद्ध करता है। बीते सालों में ऐसी बारिश लगातार ही कम हुई है। दरअसल धरती के अन्दर लाखों सालों से जमा पानी ही फिलहाल हमारे हैण्डपम्प और ट्यूबवेल के जरिए हमारी जरूरतों को पूरा कर रहा है।
हमने बीते कुछ सालों में भूजल का दोहन तो बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ा दिया है वहीं हम धरती में साल-दर-साल पानी कम ही रिसा पा रहे हैं। इससे आने वाले दिनों में भूजल के खत्म होते जाने की चेतावनी भूजलविद लम्बे समय से देते रहे हैं। पर आज तक कोई यथोचित बदलाव नहीं हो पा रहा है, न तो हमने भूजल का दोहन कम किया और न ही जमीन में पानी रिसाने के लिये बड़ा कदम उठाया है।
ज्यादातर तेज बारिश के दौरान पानी सतह से ढाल की ओर बहते हुए चला जाता है और जमीन प्यासी-की-प्यासी ही रह जाया करती है। दूसरा हुआ यह कि तेज बारिश ने जलस्रोतों को तुरन्त लबालब तो कर दिया लेकिन धरती अन्दर-ही-अन्दर इस पानी को सोखती रही और जल्दी ही जलाशय रीतने लगे। लगातार धीमी बारिश से धरती सन्तृप्त होती तो जलाशयों के पानी में उल्लेखनीय गिरावट इतनी जल्दी ही नहीं हो पाती।
यदि यही हालात बरकरार रहे तो आगे आने वाले 15-20 सालों में देश के एक बड़े हिस्से में भूजल की स्थिति भयावह हो सकती है। सबसे ज्यादा संकट पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसानों के लिये हो सकता है। मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में तो जलस्तर के लगातार नीचे जाने से हर साल बोरवेल कराना पड़ रहा है और यहाँ का किसान इससे भारी आर्थिक संकट में पहुँच गया है।