जल-भूजल : अनोखे गुण एवं भविष्य की चुनौतियाँ

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भूजल का संरक्षण न करने अथवा उसके स्रोतों से अज्ञानतापूर्वक छेड़-छाड़ कर नष्ट करने सम्बन्धी एक और नई चुनौती है जिसका हमें आने वाले समय में (विशेष तौर पर शहरी क्षेत्रों में) सामना करना पड़ेगा। आपको विदित होगा कि अधिक मात्रा में भूजल के दोहन के लिये सरकारी अथवा गैर सरकारी स्तर पर गहरे नलकूपों का ही निर्माण किया जाता है। इस प्रकार हम लगभग 70 प्रतिशत गहरे व अधिकतर कंफाइंड भूजल जलाशयों से पानी लेते हैं जिनके रिचार्ज जोन सुदूर क्षेत्रों में हो सकते हैं। यह सर्वविदित और अकाट्य सत्य है कि हवा के बाद पानी ही मनुष्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पानी की जानकारी मनुष्य को हवा से पहले हुई।

इसका कारण यह है कि हवा तो स्वतः ही शरीर में आती-जाती रहती है तथा सर्व विद्यमान है लेकिन पानी को प्राप्त करने के लिये हमें प्रयास करना पड़ता है। यह बड़े ही आश्चर्य की बात है कि सबसे पहले जानकारी में आने वाला पानी आज भी वैज्ञानिकों के लिये एक अजूबा बना हुआ है।

पानी के कुछ विशेष गुण वैज्ञानिकों के सतत् प्रयासों के बाद आज भी समझ से परे हैं। उदाहरण के तौर पर पानी का घनत्त्व 4 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर तथा नीचे कम होना शुरू हो जाता है तथा पानी का ठोस रूप में आयतन बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त पानी की विशिष्ट ऊष्मा समान तरह के द्रव्यों में सबसे अधिक होती है।

प्रयोगशाला में सतत् प्रयास करने के बाद भी लेखक पानी के इन विशिष्ट गुणों का कारण नहीं समझ सका लेकिन पानी के विभिन्न स्रोतों के गुणों का अध्ययन करते समय लेखक को पानी में प्रकृति द्वारा प्रदत्त इन गुणों के होने की आवश्यकता के सम्बन्ध में जो जानकारी प्राप्त हुई उसका विवरण देने का प्रयास इस लेख के अन्तर्गत किया गया है।

पहला यह कि यदि पानी का घनत्व 4 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे आने पर कम ना होता तो ठंडे स्थानों पर पानी में रहने वाले सभी जीव-जन्तु मर जाते। अतः प्रकृति ने अपने को बनाए रखने के लिये पानी को ऐसा विशिष्ट गुण प्रदान किया है जो कि अभी तक वैज्ञानिकों की समझ से परे है।

ठंडे प्रदेशों में अथवा अधिक ऊँचाई वाले स्थानों पर, सर्दी के मौसम में जब तापमान गिरना शुरू होता है तो तापमान के साथ-साथ उपलब्ध सतही जलस्रोतों में पानी की ऊपरी सतह का भी तापमान गिरना शुरू हो जाता है जिससे ऊपर का पानी भारी होने लगता है और परिणामस्वरूप नीचे की तरफ जाने लगता है।

लेकिन नीचे वाला जल अधिक तापमान पर होने के कारण हल्का होता है जिससे वह ऊपर आने लगता है। इस प्रकार पानी के ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर आने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है तथा जलस्रोत सभी गुण धर्मों में ऊपर से नीचे तक लगभग एक समान हो जाता है।

लेकिन यदि पानी की ऊपरी सतह का तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे गिरने लगता है तो ऊपरी सतह का पानी हल्का हो जाने के कारण पानी के नीचे व ऊपर जाने वाली प्रक्रिया रुक जाती है। लेकिन यदि तापमान 0 डिग्री सेंटीग्रेड अथवा इससे भी नीचे जाता है तो पानी की केवल 4-5 मी. की ऊपरी सतह बर्फ बन जाती है क्योंकि पानी का सर्कुलेशन रुक चुका होता है।

बर्फ ऊष्मा की कुचालक होती है, अतः ऊपरी ठंडक नीचे नहीं जा पाती तथा बर्फ के नीचे सभी जीव-जन्तु जीवित बने रहते हैं। कल्पना कीजिए यदि ऐसा न होता तो क्या होता? अंटार्कटिका में भी बर्फ की अधिकतम 10-15 मी. मोटी तह के नीचे सैकड़ों मीटर गहरे पानी का समुद्र विद्यमान है।

इसी प्रकार यदि पानी की विशिष्ट ऊष्मा (एक ग्राम पानी को वाष्प में परिवर्तित करने के लिये आवश्यक ऊष्मा) अधिक न होती तो पृथ्वी पर नदी, तालाब, झील, रिजर्वायर यहाँ तक कि समुद्र का भी अस्तित्व नहीं होता क्योंकि पानी जरा सी गर्मी से वाष्प बनकर उड़ जाता। ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर किसी भी प्रकार का जीवन सम्भव नहीं हो पाता।

अभी तक वैज्ञानिक यही समझ पाये हैं तथा आगे के शोध कार्यों में लगे हुए हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने पानी की संरचना से सम्बन्धित स्पष्टीकरण दिये हैं लेकिन वे पूरी तरह पर्याप्त नहीं हैं।

इसके अतिरिक्त यदि मैं आपको बताऊँ कि समुद्र का अपना जल खारा नहीं होता तो आप चैंकिए मत क्योंकि यह बात बिल्कुल सही है कि समुद्र का अपना जल जो कि भूजल से प्राप्त होता है तथा लम्बे समय तक (लगभग 2000 वर्ष) समुद्र का हिस्सा बनकर रहता है वह खारा नहीं होता है। फिर आप कहेंगे कि समुद्र का पानी खारा कैसे है?

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि समुद्र में खारापन मूल रूप से नदियों की देन है। नदियाँ हर समय हल्का खारा पानी समुद्र में उड़ेलती रहती हैं तथा समुद्र में पानी के वाष्पीकरण के कारण नदियों से लाये हल्के खारे पानी का सान्द्रण होता रहता है।एक और रोचक बात यह है कि जिस तरह सभी जीव-जन्तुओं की उम्र होती है, उसी प्रकार पानी की भी उम्र होती है। फर्क सिर्फ इतना है कि जीव-जन्तुओं की उम्र काफी कम होती है जबकि पानी कई सौ हजार साल पुराना भी हो सकता है। मैं आपको यह बात जल संरक्षण के बारे में बता रहा हूँ।

जैसा कि आपको विदित ही है कि हमारे किसी भी शहर में 24 घंटे पानी की आपूर्ति नहीं है। ऐसी स्थिति में लोग पानी का भण्डारण अपनी आवश्यकता से अधिक करते हैं। क्योंकि उन्हें डर रहता है कि पता नहीं अब पानी कब आएगा? लेकिन जब कल पानी आता है तब हम पहले दिन वाला पानी बासी समझकर बहा देते हैं तथा ताजा पानी फिर भर कर रखते हैं।

आपको बता दें कि हमारे जल की आपूर्ति में भूजल का हिस्सा जो कि गहरे नलकूपों द्वारा प्राप्त किया जाता है वह प्रायः 20-50 वर्ष पुराना होता है। अतः जल संरक्षण के लिये जरूरी है कि हम जनता को सही जानकारी दें जिससे वह जल का भण्डारण साफ-सफाई से करें एवं यदि पानी कई दिन पुराना भी है तो उसका इस्तेमाल किसी-न-किसी रूप में करें न कि एक दिन पुराने पानी को बहाकर पानी का दुरुपयोग करें।

पानी के संरक्षण के लिये हमें एक नहीं दो उपाय करने बहुत जरूरी हैं। पहला हम आवश्यकता से अधिक पानी का उपयोग न करें, जिससे पानी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध रहे तथा दूसरा पानी की गुणवत्ता बनाए रखें क्योंकि यदि खराब गुणवत्ता का पानी उपलब्ध भी है तो भी वह हमारे किसी काम का नहीं, आज हम दोनों ही फ्रंट पर अपने आपको असफल होता देख रहे हैं।

भूजल का स्तर नहर वाले क्षेत्रों को छोड़कर तेजी से गिर रहा है। मैं विशेष रूप से आपका ध्यान भूजल में हो रही गुणवत्ता की गिरावट की ओर दिलाना चाहूँगा जो कि हमारे अव्यवस्थित शहरीकरण के कारण हो रहा है।

आज नई-नई बसने वाली प्राइवेट काॅलोनियों में लोग सेप्टिक टैंक के साथ-साथ सोकपिट बनवा रहे हैं जिसमें 40-50 फुट का बोर करवा देते हैं जिससे सेप्टिक टैंक का ओवर फ्लो तथा किचन व बाथरूम का पानी बिना किसी फिल्टर के भूजल में 40-50 फुट नीचे पहुँच जाता है। केवल घरों का ही नहीं अब तो छोटे-बड़े कल-कारखाने भी दूषित जल व अन्य निस्तारित हानिकारक तरल द्रव्य सीधे बोरिंग करके भूजल में पहुँचा रहे हैं।

अतः यही समय है जबकि हम अपनी नीतियों में इस तरह के प्रावधान लाएँ कि यदि कोई सतही जल को भूजल में डाल रहा है तो वैज्ञानिक विधि द्वारा आवश्यक फिल्टर इत्यादि का प्रयोग करना उसके लिये अनिवार्य हो जाये अन्यथा आगे आने वाले वर्षों में हमें दूषित भूजल के कारण महामारियों के रूप में बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।

हमारे सामने दूसरी चुनौती वर्षाजल संचयन (रेनवाटर हार्वेस्टिंग) प्रोग्राम को लेकर है। यदि वैज्ञानिक तरीके से इस तकनीकी का इस्तेमाल किया जाये तो इस तकनीक के लाभ-ही-लाभ हैं। जैसा कि मैंने महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर किये जा रहे इस कार्यक्रम के मूल्यांकन के लिये आइसोटोप तकनीकों का प्रयोग करके पाया कि वहाँ वर्ष के कुछ भाग में भूगर्भ जल की उपलब्धता केवल वर्षाजल हार्वेस्टिंग के कारण ही थी जिससे किसान अपनी खेती कर पा रहे हैं।

शहरी क्षेत्र के गहरे भूजल जलाशय में आगे आने वाले वर्षों में भूजल की कमी हो जाएगी अथवा गुणवत्ता की दृष्टि से उपलब्ध भूजल अनुपयोगी हो जाएगा। अतः हमारे लिये यही समय है कि हम पहले बड़े-बड़े शहरी क्षेत्रों में गहरे भूजल जलाशयों के रिचार्ज जोन का निर्धारण करें जिससे उन्हें मानवीय गतिविधियों से होने वाली क्षति से बचाया जा सके। भूजल के क्षेत्र में हमें अपने अन्वेषण कार्यों में बदलाव लाने की भी आवश्यकता है। जिसे हमें एक चुनौती के रूप में लेना चाहिए।लेकिन जैसा कि देखने में आ रहा है कि रेन वाटर हार्वेस्टिंग के नाम पर आर्टीफिशियल रिचार्ज के कार्यक्रम चल रहे हैं तथा सम्बन्धित प्राइवेट व सरकारी संस्थानों से जुड़े लोग समुचित फिल्टर का प्रयोग न करके सीधे बोरहोल बनाकर दूषित सतही जल को भूमिगत जलाशयों में पहुँचा रहे हैं जोकि भूजल की गुणवत्ता की दृष्टि से अत्यधिक खतरनाक साबित हो सकता है। अतः इस बारे में आवश्यक दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करने की आवश्यकता है।

भूजल का संरक्षण न करने अथवा उसके स्रोतों से अज्ञानतापूर्वक छेड़-छाड़ कर नष्ट करने सम्बन्धी एक और नई चुनौती है जिसका हमें आने वाले समय में (विशेष तौर पर शहरी क्षेत्रों में) सामना करना पड़ेगा। आपको विदित होगा कि अधिक मात्रा में भूजल के दोहन के लिये सरकारी अथवा गैर सरकारी स्तर पर गहरे नलकूपों का ही निर्माण किया जाता है।

इस प्रकार हम लगभग 70 प्रतिशत गहरे व अधिकतर कंफाइंड भूजल जलाशयों से पानी लेते हैं जिनके रिचार्ज जोन सुदूर क्षेत्रों में हो सकते हैं। क्योंकि हमें उनका आज ज्ञान नहीं है अतः इन रिचार्ज जोन्स में कोई काॅलोनी, कल-कारखाने लगाने का कार्य किया जा सकता है अथवा पाॅल्यूटेन्ट डम्पिंग साइट के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया जा सकता है।

दोनों ही स्थितियों में हमें शहरी क्षेत्र के गहरे भूजल जलाशय में आगे आने वाले वर्षों में भूजल की कमी हो जाएगी अथवा गुणवत्ता की दृष्टि से उपलब्ध भूजल अनुपयोगी हो जाएगा। अतः हमारे लिये यही समय है कि हम पहले बड़े-बड़े शहरी क्षेत्रों में गहरे भूजल जलाशयों के रिचार्ज जोन का निर्धारण करें जिससे उन्हें मानवीय गतिविधियों से होने वाली क्षति से बचाया जा सके।

भूजल के क्षेत्र में हमें अपने अन्वेषण कार्यों में बदलाव लाने की भी आवश्यकता है। जिसे हमें एक चुनौती के रूप में लेना चाहिए। अभी हमारी जितनी भी खोज-बीन (इंवेस्टीगेशन्स) होती हैं वह उथले भूजल जलाशयों में ही होती हैं जबकि हम लगभग 70 प्रतिशत गहरे व कंफाइंड भूजल जलाशयों से पानी लेते हैं। अतः भूजल की सही मात्रा के आकलन के लिये हमें अपनी वर्तमान पद्धति में मूलभूत परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

इसके लिये जियोहाइड्रोलाॅजिकल सूचना के आधार पर विभिन्न गहराइयों पर पाये जाने वाले भूजलाशयों को रेखांकित करके भूजल जलाशयों की गहराई के अनुसार क्लस्टर आॅफ पीजोमीटर्स को बनाने की आवश्यकता है। इन पीजोमीटर्स में भूजल के स्तर में परिवर्तन से कुल भूजल की उपलब्धता का आकलन किया जाना चाहिए तथा इसके लिये नवीनतम तकनीकों जैसे आइसोटोप्स, रिमोट सेंसिंग व डाटा लाॅगर, सुदूर संवेदन से युक्त उपकरणों का उपयोग किया जाना चाहिए।

अन्त में मैं कहना चाहूँगा कि भूजल का अधिक दोहन करने वाले, विशेष रूप से जहाँ भूजल के स्तर मेें तेजी से गिरावट हो रही है, चाहे वह सरकारी, गैर-सरकारी अथवा कोई व्यक्ति विशेष द्वारा किया जा रहा हो, उस पर कम से कम, उपयोग में लाये जा रहे पानी के 50 प्रतिशत भाग के बराबर, रेनवाटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से भूजल के पुनः रिचार्ज करने की जिम्मेवारी डाल दी जानी चाहिए। लेकिन ध्यान रहे यह सब तभी सम्भव है जबकि एनफोर्समेंट में लगे हुए लोग अपनी जिम्मेवारी ईमानदारी से निभाएँ अन्यथा परिणाम बिल्कुल उल्टे ही होंगे।

पानी का उचित प्रबन्धन बहुत जरूरी है - डॉ. भीष्म कुमार

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