जल-जीवन मिशन: भूमिका बदलने की ज़रूरत
हर घर में नल, हर नल में जल। एक नज़र से देखें तो यह सपना प्रभावित करता है। भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में घोषित ’जल-जीवन मिशन’ का लक्ष्य यही है। इस लक्ष्य को हासिल करने की समय-सीमा वर्ष 2024 रखी गई है। इस सपने और लक्ष्य के पक्ष में कई तर्क हो सकते हैं। धरती के नीचे का पानी, तेज़ी से नीचे उतर रहा है। प्रदूषित भूजल के इलाकों की संख्या, भारत में तेज़ी से बढ़ रही है। लिहाजा, पेयजल की उपलब्धतता और गुणवत्ता का संकट भी तेज़ी से ही बढ़ रहा है। फरवरी से जून महीनों के दौरान, कई इलाकों में पीने के पानी के लिए टैंकर पर निर्भर रहना पड़ता है। कहीं-कहीं पीने योग्य पानी के स्त्रोत दूर हैं। वहां, पानी पाने के लिए लम्बी दूरी तक चलकर जाना पड़ता है; बोझ को कमर, सिर या साईकिल पर ढोकर लाना पड़ना है। लोग, ऐसे गांवों में अपनी बेटी की शादी नहीं करना चाहते, जहां दूर से पानी ढोने के काम औरतों के जिम्मे है। संभव है कि कई लड़कियां, सिर्फ इसीलिए स्कूल न जा पाती हों। कई इलाकों के भूजल में भारी धातु तत्व, फ्लोराइड, नमक तथा आर्सेनिक जैसे ज़हर की उपस्थिति लोगों को बीमार बना रही है। उनके पास कोई विकल्प नहीं है, सिवाय इसके कि वे पानी साफ करने की मशीनें लगाएं अथवा बाज़ार से पानी खरीदने में पैसा गंवाते रहें। तर्क दिया जा सकता है कि यदि हर परिवार को नल से जल पहुंचा दिया जाए, तो इन सब परेशानियों से निजात मिल जाएगी। अतः यह किया जाए। जितना बजट चाहिए हो, दिया जाए।
इस सपने के प्रतिपक्ष में भी तर्कों की कमी नहीं। पूछा जा सकता है कि क्या जहां-जहां नल पहुंच गए, वहां-वहां के नलों में हम पर्याप्त पानी पहुंचा पा रहे हैं ? जो पानी पहुंच रहा है, क्या उसकी गुणवत्ता ऐसी है कि उसे सीधे पीया जा सकता है ? हर घर में नल से जल वाली दिल्ली में पीने के पानी के लिए बाज़ार पर निर्भरता घटने की बजाय, बढ़ क्यों गई है ? इन प्रश्नों के पक्ष में दिल्ली, बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, मुंबई, भोपाल, जयपुर, शिमला जैसे राजधानी नगरों से लेकर टिहरी, गैरसैंण जैसे पहाड़ी इलाकों तक की सूची को सामने रखकर कहा सकता है - ’’जनाब, जब मूल स्त्रोत में पानी होगा, तब तो नल से जल पिलाओगे।’’ सूखती केन को सामने रखकर, यही सवाल केन-बेतवा नदी जोड़ के भरोसे बुंदेलखण्ड को पानी पिलाने का दावा करने वालों से भी किया जा सकता है।
नगरों तथा भौगोलिक विषमता के चलते पहाड़ी इलाकों के हर परिवार को नल से पानी पहुंचाने की आवश्यकता को एकबारगी मंजू़र कर भी लिया जाए, तो मैदानी गांवों के संदर्भ में तर्क दिया जा सकता है कि पाइप से पानी की उपलब्धता, लोगों को पानी के मामले में पराधीन बनाती है। पाइप से पानी मिलने लगता है, तो लोग पानी की स्वावलम्बी व्यवस्था के बारे में सोचना और करना... दोनो बंद कर देते हैं। इसका तिहरा नुक़सान होता है। स्त्रोत तथा आपूर्ति प्रणाली को दुरुस्त रखने की सारी ज़िम्मेदारी जलापूर्ति करने वाले निकाय पर आ जाती है। जल की सहज उपलब्धता के कारण, उपभोक्ता उसकी कीमत सिर्फ बिल में दिए पैसे से लगाता है। जिसकी जेब में जितना बिल वहन करने की क्षमता है, वह उतने जल के उपभोग व बर्बादी को अपना अधिकार समझने लगता है। दूसरी तरफ, जिसके पास बिल देने के लिए पैसे नहीं है, उसके पानी का कनेक्शन काट दिया जाता है।
अनुभव यह है कि जल-आपूर्ति करने वाले निकाय को कई बार जान-बूझकर नकारा बना दिया जाता है; ताकि जलापूर्ति को निजी कम्पनियों को सौंपा जा सके। इस तरह जल के मूल स्त्रोत के उपयोग के अधिकार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कम्पनी के हाथों में चले जाते हैं। कम्पनी, इस अधिकार का दुरुपयोग बेलगाम मुनाफा कमाने में करती है। जीवन के लिए जल ज़रुरी है। यह मानकर ही संवैधानिक तौर पर जलाधिकार को जीवन के अधिकार से जोड़कर देखा जाता है। बोलीविया समेत दुनिया के कई घटनाक्रम गवाह हैं कि इस अधिकार में कम्पनियों के हस्तक्षेप का नतीजा अराजक सिद्ध हुआ है।
पानी चाहे पाइप से पहुंचाया जाए अथवा नहरों से, जलापूर्ति के इस तंत्र की एक कमज़ोरी यह भी है कि जितना पानी उपयोग में नहीं आता, उससे ज्यादा बर्बाद हो जाता है। भारत की नहरी सिंचाई व्यवस्था के प्रभावी उपयोग का आंकड़ा मात्र 15 से 16 प्रतिशत का है। पाइप के ज़रिए, मूल स्त्रोत से नल तक पानी पहुंचाने के रास्ते में 40 प्रतिशत तक पानी रिसकर बह जाने का आंकड़ा है। नदी जोड़ की परियोजनाओं में इस रिसाव का ख़तरा कई गुना होगा। बांधों और सिंचाई परियोजनाओं के बूते आर्थिक समृद्धि हासिल वाला महाराष्ट्र, आज पानी के लिए सबसे अधिक जूझता राज्य है; बावजूद इसके हम बांधों, नहरों और पाइपों पर आधारित नदी-जोड़ परियोजना को लागू करने की जिद् छोड़ नहीं रहे। क्यों?
गौर कीजिए कि सिंचाई तंत्र तथा बांधों के लिए वर्ष 2011 तक 07 लाख करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। चालू वित्त वर्ष में जल संसाधन, नदी विकास एवम् गंगा संरक्षण मंत्रालय का बजट 8000 करोड़ रुपए का है। पेयजल एवम् स्वच्छता विभाग के तहत राष्ट्रीय ग्रामीण स्वच्छता मिशन को 8200 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। ’जल-जीवन मिशन’ की लक्ष्य प्राप्ति के लिए जल-बजट में और अधिक वृद्धि की बात चर्चा में आ रही है। पूर्व सचिव, जल संसाधन शशिशेखर कह रहे हैं कि ज़रूरत बजट बढ़ाने से ज्यादा, पानी के प्रभावी उपयोग की है।
पूछा जा सकता है कि जब तक हम पाइप से पानी पहुंचाने के मामले में पूरी तरह लीकप्रूफ नहीं हो जाते, क्या हमें पाइप से पानी पहुंचाने का अतिरिक्त ढांचा बनाने के बारे में सोचना चाहिए ? अपने-पराए घर की टंकी हो या कोई सार्वजनिक टूटा नल, बेकार बहते पानी को देखकर जब तक हम में से प्रत्येक के भीतर उसे रोकने की बेचैनी, साहस और तमीज पैदा नहीं हो जाते, तब तक मैदानी गांवों को हर घर में नल के सपने से दूर नहीं रखना चाहिए ? किसी एक इलाके के हिस्से का पानी ले जाकर, दूसरे इलाके को देना अनैतिक है। जल-बंटवारों के विवाद पहले से हैं। पाइप से पानी को बढ़ावा देने से पानी के झगडे़ और अधिक बढेंगे।
ऐसे में पूछा जा सकता है कि हर घर को नल से जल की राह में इतनी विषमताएं हैं तो क्या ज़रूरी है कि हम इस राह चलें ? कम से कम मैदानी गांवों के मामलों में क्या यह उचित नहीं कि ग्राम्य पेयजल स्वावलम्बन की दृष्टि को लक्ष्य बनाएं ? भारत के सबसे कम वर्षा वाले जैसलमेर की रामगढ़ तहसील के पीने का पानी इंतज़ाम, एक गवाह है। इसे सामने रखकर दावा किया जा सकता है कि हर इलाके के सिर पर पर्याप्त पानी बरसता है; यदि हर इलाका अपने सिर पर बरसे पानी को संजो ले, तो ही उसके पीने के पानी का इंतज़ाम हो जाएगा।
यह एक ऐसा बिंदु है, जिस पर आकर पाइप से पानी पहुंचाने के पक्ष और प्रतिपक्ष की बीच समझौता संभव है; बशर्ते एक शर्त मान ली जाए। तय हो कि अपने नल में अपना पानी ही आएगा अर्थात नल भी अपना, पाइप भी अपनी और पानी की आपूर्ति का मूल स्त्रोत भी अपना ही हो। दूसरे इलाके के स्त्रोत से पानी खींचकर लाने पर पूर्ण प्रतिबंध होगा। आप पूछ सकते हैं कि क्या यह व्यावहारिक है ? हां, यह व्यावहारिक भी है, लीकपू्रफ भी और संभव भी; क्योंकि भारत का पेयजल-संकट पर्यावरणीय कम, गवर्नेंन्स का जुड़ा संकट ज्यादा है।
केन्द्र सरकार के मुखिया के तौर पर, प्रधानमंत्री श्री मोदी ने ’न्यू इण्डिया’ का सपना सामने रखा है। हर परिवार को नल से जल, इसी ’न्यू इण्डिया’ के सपने का हिस्सा है। यदि हम चाहते हैं कि ’न्यू इण्डिया’ सचमुच पानीदार हो तो सबसे पहला प्रधानमंत्री स्वयं उठाए; गौर करें कि पानी, राज्यों के निर्णय और निर्वाहन का विषय है। केन्द्र सरकार की भूमिका, सिर्फ तकनीकी और वित्तीय सहायक की है। केन्द्र सरकार को चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय तथा अंतरराज्यीय प्रवाहों तथा केन्द्र शासित क्षेत्रों को छोड़कर, अन्य जल-प्रवाहों व जल-संरचनाओं के प्रबंधन मामलों में वह अपने-आप को सिर्फ और सिर्फ तक़नीकी और वित्तीय सहयोगी की भूमिका तक ही सीमित करे।
राज्य सरकारें गौर फरमाएं कि सरकारों का एक तीसरा स्तर भी होता है; गांव और नगर के स्तर पर ’अपनी सरकार’। अब सभी राज्य सरकारों को भी चाहिए कि वे ’अपनी सरकार’ के संवैधानिक दर्जे का सम्मान करें। पेयजल ही नहीं, गांव स्तर पर सम्पूर्ण जल-प्रबंधन तथा जल-स्वच्छता की समग, स्वावलम्बी एवम् समयबद्ध कार्ययोजना बनाने तथा उसे क्रियान्वित करने का सम्पूर्ण दायित्व व आर्थिक-तकनीकी-प्रशासनिक अधिकार संबंधित जल संबंधी वार्ड समितियों को सौंप दें। उनकी जल-संरचनाओं के स्थान का चयन, डिज़ाइन, निर्माण सामग्री तथा प्रक्रिया उन्हे स्वयं तय करने दें। उन्हे तय करने दें कि वे अपने गांव में नल से आया पानी पीना चाहते हैं अथवा कुएं, हैण्डपम्प या तालाब से लाया हुआ।
ऐसा करने हेतु निम्नलिखित 21 नीतिगत् निर्णय अपेक्षित हैं। अपेक्षित निर्णय दस्तावेज़ देखें।
भारतीय जल प्रबंधन की मौजूदा कमियों से पार पाने की दिशा में यह क्रांतिकारी कदम होगा। तय मानिए कि जल प्रबंधन के इस व्यवस्थापरक बदलाव से सरकार का बोझ घटेगा; जिसे पानी पीना है, उसकी हक़दारी और जवाबदारी बढे़गी। बिना तैयारी के किया रचनात्मक कार्य भी विध्वंसक सिद्ध होता है। लिहाजा, राज्य सरकारें इसे पूर्ण प्रचार, प्रशिक्षण तथा पूर्व तैयारी के साथ करें। इससे जल-जीवन का मिशन भी पूरा होगा और संसदीय लोकतंत्र को पंचायती लोकतंत्र की दिशा में ले जाने का संवैधानिक संकल्प भी।
यहाँ पढ़े भारत जल-स्वावलम्बन प्रस्ताव - भारत जल-स्वावलम्बन प्रस्ताव - 2019