जल समेट क्षेत्र (Recharge Zone) का उपचार
जल स्रोत समेट क्षेत्र की कोई प्रबन्धन व्यवस्था न होने के कारण इन क्षेत्रों पर जैविक दबाव निरन्तर बढ़ा है। इन क्षेत्रों से वानस्पतिक आवरण के ह्रास के साथ ही भूमि में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में कमी आई है तथा निरन्तर चराई व आग के कारण भू क्षरण की दर बढ़ी है परिणामस्वरूप अधिकतर वर्षा का जल भूमि की सतह से बह जाता है। वर्षा के जल का भूमि में अवशोषण बहुत कम हो जाने के कारण जल स्रोत का जल चक्र प्रभावित हुआ है। जल स्रोत के जल चक्र को पुनः स्थापित करने के लिए निम्न सामाजिक, अभियान्त्रिक और वानस्पतिक उपचार करने आवश्यक हैंः
1. सामाजिक उपाय
जल स्रोत के समेट क्षेत्र के संरक्षण व प्रबंधन के लिए निम्न कार्य आवश्यक हैं:
i. जल स्रोत पर निर्भर परिवारों का समूह बनाना व उनके द्वारा जल स्रोत व जल समेट क्षेत्र के प्रबन्धन हेतु अपने आवश्यकतानुसार सर्वसम्मति से नियम बनाना तथा नियमों का उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
ii. उपभोक्ता परिवारों की नियमित बैठक सुनिश्चित करना, जल संरक्षण सम्बन्धी कार्यों की रूपरेखा, निर्माण कार्य, रख-रखाव एवं कार्यों का मूल्यांकन नियमित रूप से करना।
iii. जल समेट क्षेत्र को पशु चराई, खनन, पतेल, लकड़ी, चारा-पत्ती व अन्य उपयोग हेतु पूर्णरूप से प्रतिबन्धित करना।
iv. जल समेट क्षेत्र को आग से बचाना।
v. जल समेट क्षेत्र के उपचार में ग्रामवासियों का श्रमदान व अंशदान सुनिश्चित करना।
vi. सर्वसम्मति से जल समेट क्षेत्र की सामाजिक घेरबाड़ करना तथा पशुओं को खूंटी पर खिलाने की व्यवस्था करना।
vii. जल समेट क्षेत्र में मल-मूत्र त्याग व कूड़ा करकट फेंकने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाना।
viii. जल स्रोतों की गुणवत्ता एव स्वच्छता बनाये रखने के लिए जल स्रोत की नियमित सफाई की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
ix. जल स्रोत के जल के वितरण को समयबद्ध करना तथा पानी का बराबर बँटवारा सुनिश्चित करना।
x. जल स्रोत के भविष्य में रख-रखाव व प्रबन्धन के लिए सामूहिक कोष का निर्माण करना।
2. अभियान्त्रिक उपाय
2.1. कन्टूर-नालियों (Contour Trench) का निर्माण
1. कन्टूर रेखाओं को चिन्हित करना
नोट -
A -फ्रेम का उपयोग करने से पूर्व भली भाँति इसका मध्य बिन्दु निकाल लेना आवश्यक है।
भूमि में कन्टूर रेखा को चिन्हित करने के लिए ढलाऊ भूमि के एक किनारे से A -फ्रेम को रखते हैं तथा A -फ्रेम के पिछले पाँव को स्थिर रखकर अगले पाँव को तब तक उपर नीचे करते हैं जब तक कि तुला A -फ्रेम के मध्य में न आ जाय, इस प्रकार तुला का मध्य स्थान निकाल लेते हैं। तुला मध्य स्थान आने पर भूमि पर चूने से निशान लगा लेते हैं अथवा खूंटियाँ गाड़ देते हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ा कर जमीन के अन्तिम सिरे तक निशान लगा लेते हैं। अब इन निशानों को चूने की सहायता से जोड़ देते हैं।
नोट -
यदि भूमि पर निशान ऊपर-नीचे लगे हों तो इनका मध्य निकालकर सीधी रेखा खींचते हैं।
भूमि में एक कन्टूर रेखा को एक किनारे से दूसरे किनारे तक खींचने के उपरान्त उस रेखा से 4 से 6 मी. की दूरी पर दूसरी रेखा खींचते हैं। ढाल के अनुरूप दो कन्टूरों के मध्य की खड़ी दूरी 4-6 मीटर के बीच होनी चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण जल समेट क्षेत्र में कन्टूर रेखायें चिन्हित करते हैं।
नोट-
यदि कन्टूर रेखा की सीध में चट्टान, पेड़ आदि आयें (जहाँ कन्टूर रेखा नहीं बनाई जा सकती) तो इन्हें छोड़ कर आगे से उसी सीध में कन्टूर रेखायें खींचते हैं।
2. कन्टूर नालियों का निर्माण
सावधानियाँ
2.2 सोख्ता नालियाँ (Precolation Trench)
सावधानियाँ
2.3 खाल अथवा चाल
सावधानियाँ
2.4 नालियों में रोक बाँध
सावधानियाँ
2.5 गेबियन रोक बाँध
सावधानियाँ
2.6 निजी कृषि भूमि का उपचार
सावधानियाँ
3. वानस्पतिक उपचार
3.1. प्रजातियों का चयन
3.2 वृक्ष प्रजातियों का रोपण
सावधानियाँ
3.3 घास व झाड़ियों का रोपण
1. कन्टूर-नालियों में छिड़काव द्वारा बीज बोना
नोट -
इस विधि में सफलता का प्रतिशत बहुत कम होता है क्योंकि सूखा, तेज वर्षा, पक्षियों व जंगली जानवरों से बोये गये बीज को नुकसान पहुँचने की सम्भावनायें अधिक होती है।
2. कन्टूर-नालियों में कटिंग/पौधरोपण करना
नोट -
प्रायः घास व झाड़ी के बीज छोटे होने से उनका जन्म प्रतिशत काफी अनिश्चित रहता है तथा बीजों के पानी में बहने की सम्भावना अधिक रहती है। अतः घास का रोपण नर्सरी में तैयार पौध/कटिंग द्वारा ही उचित रहता है। इस विधि में सफलता की सम्भावनायें अधिक होती हैं क्योंकि कन्टूर नालियों में वर्ष भर भू-आर्द्रता बनी रहती है जिससे रोपित पौधे तेजी से बढ़ते हैं।