जल संकट के आईने में समाधान की खोज
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कृष्ण गोपाल 'व्यास’
पेयजल संकट ने दस्तक दे दी है। वह कहीं कम है तो कहीं अधिक। कहीं वह ग्रीष्मकालीन खेती के लिए है तो कहीं वह आने वाले दिनों में पेयजल की आपूर्ति के लिए है, तो कहीं-कहीं उद्योग-धन्धों के लिए कठिनाई का सबब है। पर्यावरणविदों के लिए वह नदियों के ग्रीष्मकालीन प्रवाह या पर्यावरणीय प्रवाह और जैवविविधता का संकट है। इसके अतिरिक्त, कहीं वह एक ही नदी के अलग-अलग हिस्सों में प्रवाह के कम या अधिक होने का भी संकट है। वह कुओं और नलकूपों की विश्वसनीयता का भी संकट है। वह, एक ही शहर की अलग-अलग बस्तियों में असमान वितरण से उपजा संकट भी है। वह, पानी की कमीबेषी के अलावा बिगड़ती गुणवत्ता के कारण उपजा रासायनिक संकट भी है। वह समाज के पानी पर मिलने वाले संवैधानिक अधिकार पर भी संकट है। जिम्मेदारी को ठीक से निभाने की गरज से वह सरकार पर भी संकट है। इत्यादि, इत्यादि। इन चन्द उदाहरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जल संकट बहुआयामी संकट है। सर्वव्यापी होने के बाद भी वह अलग-अलग क्षेत्र, वर्ग और उपभोक्ता के लिए अलग-अलग है। मीडिया के लिए भी वह लगभग पहेली जैसा ही है। इसी कारण मीडिया भी, सामान्यतः उसका चरित्र-चित्रण तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार ही करता या कराता है। यह विचलित करने वाली हकीकत है कि वैचारिक गोष्ठियों में भी जल संकट के समाधान के समग्र रोडमेप का दर्शन नहीं होता। आईए, सबसे पहले उसे समझने का प्रयास करें। उसकी चर्चा का प्रारंभ देश के हृदय कहे जाने वाले मध्यप्रदेश की 2019 की बरसात और नगरीय तथा ग्रामीण इलाकों के मौजूदा जलसंकट से करें-
मध्यप्रदेश के अधिकांश जिलों में सन 2019 में औसत से अधिक बरसात हुई थी। इसके अलावा, ठंड के मौसम में भी किसी-किसी अंचल में बरसात की मेहरबानी बनी रही। चूँकि बरसात की कमीबेषी को जल संकट से जोडकर देखने का चलन है इसलिए सन 2019 की बरसात की मेहरबानी के असर को नगरीय नल-जल योजनाओं और ग्रामीण क्षेत्रों में निर्मित हेन्ड पम्पों की पानी देने की क्षमता के आईने में देखना सही ही होगा। यह भी सही है कि अप्रैल के तीसरे सप्ताह में आने वाले दिनों के हालतों का सही सही अनुमान लगाना दूर की कौडी होगा, पर इस अवधि के आंकड़ों की मदद उसकी प्रवृत्ति की दिशा का अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है।
मध्यप्रदेश के नगरों में पेयजल प्रदाय की जिम्मेदारी नगरीय निकायों की तथा ग्रामीण अंचलों में लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग की होती है। लगभग एक सप्ताह पहले दैनिक भास्कर अखबार के अनुसार 378 नगरीय निकायों में से 81 निकायों (लगभग 20 प्रतिशत) में पानी का संकट प्रारंभ हो गया है। अधिक संकटग्रस्त हैं सरदारपुर, मेघनगर, सुवासरा और टौंकखुर्द इत्यादि के नगरीय निकाय जहाँ हर तीसरे दिन पानी दिया जा रहा है। बाकी 70 निकायों में एक दिन के अन्तराल से पानी दिया जा रहा है। कहा जा सकता है कि जब गर्मी का मौसम चरम पर होगा, उस समय यहाँ के हालात बिगडेंगे। कहीं कहीं गंभीर भी होंगे। गौरतलब है कि यह स्थिति सामान्य या सामान्य से अधिक बरसात के बाद की है। इसलिए यह कहना अनुचित नही होगा कि जल संकट को केवल बरसात की मात्रा के आईने में ही नहीं देखना चाहिए। उसे, उसकी समस्त संभावित समस्याओं के आईने में देखा जाना चाहिए। जल संकट का एक और पक्ष है। यदि इन निकायों की भौगोलिक स्थिति को देखें तो इंगित होता है कि यह संकट मौटे तौर पर प्रदेश के पश्चिमी और दक्षिणी हिस्से में है। थोडी समस्या ग्वालियर अंचल के कुछ जिलों में है। प्रदेश के बुन्देलखंड और बघेलखंड अंचल के नगरीय निकाय अभी सुरक्षित लग रहे हैं। यह मौजूदा प्रवृत्ति है।
मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में पेयजल की आपूर्ति का मुख्य स्रोत हेंडपम्प हैं। प्रदेश में ग्रामों की संख्या 54,903 और हेन्डपम्पों की संख्या 5.55 लाख हैं। फिलहाल, भूजल स्तर के गिरने के कारण बन्द हेन्डपम्पों की संख्या मात्र 3409 है। मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में पेयजल की आपूर्ति की दूसरी योजना नल-जल योजना कहलाती है। इस साल 15 अप्रैल की स्थिति में ग्रामीण क्षेत्र की नल-जल योजनाओं की कुल संख्या 16231 और भूजल स्तर के गिरने के कारण बन्द नल-जल योजनाओं की संख्या केवल 449 है। फौरी तौर पर कहा जा सकता है कि अच्छी बरसात के कारण बहुत कम हेन्डपम्पों तथा ग्रामीण नल-जल योजनाओं का भूजल-स्तर गिरा है। यह फौरी अनुमान है क्योंकि भूजल-स्तर की गिरावट को समझने के लिए उस पर असर डालने वाले अनेक घटकों की जानकारी आवश्यक होती है। इसलिए बिना समग्र अध्ययन के फौरी निष्कर्ष को अन्तिम सत्य के तौर पर पेश करना जल्दबाजी होगी। गलत भी हो सकता है।
मध्यप्रदेश में पिछले अनेक सालों से जल संरक्षण और जल संवर्धन के लिए अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं। बुन्देलखंड भी केन्द्रीय पैकेज का लाभ उठा चुका है। हर साल प्रदेश के हर अंचल में मनरेगा के अन्तर्गत जल संरक्षण तथा जल संवर्धन के काम भी हो रहे हैं। खेत तालाब भी बन रहे हैं। छत के पानी को धरती में उतार रहे हैं। वाटरशेड कार्यक्रम भी कर चुके हैं। पानी रोको तथा जलाभिषेक कार्यक्रम चला चुके हैं। वन भूमि पर भी जल संरक्षण और मिट्टी के संरक्षण के काम किए हैं और अभी भी हो रहे हैं। इस सबके बाद यदि जल संकट हर साल पनपता है तो वह कुछ मूलभूत प्रश्न खडे करता है। ये प्रश्न किसी एक विभाग या संस्था के लिए नहीं हैं। वे समूची व्यवस्था के लिए हैं। वे सवाल कामों की सार्थकता तथा उनके स्थायित्व को लेकर हैं। इसलिए आवश्यक है कि पानी की सार्वकालिक उपलब्धता के लिए नए सिरे से सोचा जाए। सबसे पहले डी-लर्निग हो। फिर समाधानों के तकनीकी पक्ष को सुधारा जाए। वन भूमि पर किए जाने वाले जल संरक्षण और मिट्टी के कामों को असरकारी बनाने के लिए वर्किंग प्लान में यथोचित सुधार हो। प्रदेश में पानी की प्लानिंग और समझ के विकास में अपनी ढ़पली अपना राग बन्द हो। नुस्खा पद्धति बन्द हो। अब कुछ चर्चा ग्रीष्मकालीन खेती से।
मध्यप्रदेश के मालवा अंचल और नर्मदा घाटी के काफी बडे रकबे पर ग्रीष्मकालीन खेती होती है। लहसन, प्याज, मूंग और उडद जैसी फसलें उगाई जाती हैं। सभी इलाकों में सब्जी भी लगाई जाती है। कहीं कहीं फूलों की भी खेती होती है। केला, सन्तरा भी उगाया जाता है। मौटे तौर पर ग्रीष्मकालीन खेती किसान को आर्थिक सम्बल प्रदान करती है। अतः वह आवश्यक है। विदित है कि ग्रीष्मकालीन खेती मुख्यतः भूजल का उपयोग करती है इसलिए वह हेन्डपम्पों, नदियों तथा कुओं को सुखाने के लिए जिम्मेदार है। ताज्जुब है कि सभी सम्बन्धितों द्वारा पानी के उपयोग की प्लानिंग विभागों की सीमाओं में रखकर की जाती है। यह अनुचित है। उसे सभी संभावनाओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। इस खामी के कारण विसंगतियाँ पनपती हैं। ग्रीष्मकालीन खेती और रीचार्ज की आवश्यकता तथा पानी के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग को ध्यान में रखकर प्लानिंग की जाए तो समाधान का निरापद रास्ता खोजा जा सकता है। पानी को खंड-खंड में विभाजित कर और विभागीय सीमाओं में रखकर उपयोग में लाने का परिणाम हमारे सामने है।
यह फौरी अनुमान है लेकिन यह अनुमान जल संकट की हकीकत को समग्रता में समझने की आवश्यकता को रेखांकित अवश्य करता है। इसलिए उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उसके समग्र अध्ययन के फोकस का केन्द्र-बिन्दु समाज ही होना चाहिए। इसलिए सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभाव डालने वाले कारकों के प्रभावों को परखने की आवश्यकता है। यह जिम्मेदारी पानी के विभिन्न पहलुओं पर अकादमिक काम करने वाली नामचीन संस्थाओं (आईआईटी रुड़की, मध्यप्रदेश के बोधी, वाटर और लैंड मैनेजमेंट संस्था, सीजीडब्ल्यूबी, सीडब्ल्यूसी तथा कृषि विश्वविद्यालय) की है। उन्हें आगे लाने की आवश्यकता है।
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