जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने को बदलनी होगी जीवन पद्धति

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जलवायु परिवर्तन का कहर पृथ्वी के प्रत्येक क्षेत्र में वर्षा होने वाली है। इस प्रकरण का निराशाजनक पहलू यह है कि मनुष्य ने खुद के निर्मित इस संकट से निपटने का न तो कोई इंतजाम किया है और न ही आगे करने के प्रति उत्सुक है। उल्टे इसके जो थोड़े बहुत प्रयास किए भी गए तो कुछ उपभोक्तावादी देश अपने निजी हित में इन प्रयासों को नष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। 1992 में रियो डी जनेरियो से शुरू पृथ्वी सम्मेलन के अब 20 साल पूरे हो गए हैं। इस बीच पांच और सम्मेलन हुए लेकिन सबका नतीजा एक सा यानी, शून्य रहा है। यहां तक की क्योटो में हुए सम्मेलन के दौरान बनी सहमति को भी अमीर देश मानने को तैयार नहीं। अभी हाल ही में दोहा दौर की वार्ता में भी सबसे बड़ी अड़चन उन्हीं देशों द्वारा खड़ी की गई। खैर, जैसे-तैसे दोहा दौर में क्योटो प्रोटोकॉल को आगे जारी रखने भर सहमति बनी, लेकिन कोई बड़ी प्रगति नहीं हो सकी। इस जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक और प्रभावी असर खाद्य पदार्थ यानि, खेती-बारी पर पड़ने वाला है। देश में अपने स्तर पर इस आसान संकट से निपटने का प्रयास हो रहा है। कृषि मामले में कई संस्थाएं और वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के हैदराबाद स्थित सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्राईलैंड एग्रीकल्चर (क्रीडा) के निदेशक डॉ. बी. वेंकटेश्वरलु ने जलवायु परिवर्तन का कृषि पर असर को लेकर काफी काम किया है और इससे निपटने के लिए उनके पास कई सुझाव और सलाह भी हैं। प्रस्तुत है डॉ. वेंकटेश्वरलु से अतुल कुमार सिंह की इस मुद्दे पर बातचीत।

जलवायु परिवर्तन को किस तरह से आप देखते हैं और इसे कैसे समझा जा सकता है?
जलवायु परिवर्तन को देखने का नजरिया तो एक ही है। इसमें मौसम के मिजाज गर्मी, सर्दी और बरसात की परंपरागत प्रवृत्तियों में बदलाव को देखा जाता है। हम लोग प्रभाव का आकलन मॉडलिंग से करते हैं। वैसे शुरू में यह साफ करना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन को दो स्तर पर देखा जाना चाहिए। एक तो साल-दर-साल हो रहे बदलाव और मौसम में विविधता को दर्ज किया जाता है। दूसरा दीर्घकालिक असर है जो कम से कम 25-30 साल के बाद देखा जा सकेगा।

देश में कृषि पर जलवायु परिवर्तन का असर किस तरह का पड़ रहा है?
बिल्कुल निगेटिव है। जरूरत से ज्यादा बाढ़, सूखा पड़ रहा है। इससे फसलें खराब हो रही हैं। बारिश में इस तरह की अनियमितता का असर धान के साथ ही दलहन, तिलहन पर अधिक पड़ रहा है। हालांकि अभी ठीक से आकलन नहीं हो पाया है लेकिन परिवर्तन को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है।

पिछले पचास साल में जलवायु में कितना परिवर्तन आया है और किस तरह से?
पिछले पचास साल या इससे कुछ अधिक समय रखिए। इस दौरान तापमान में कुल 0.7 डिग्री की वृद्धि दर्ज की गई है तथा बरसात और गर्मी में बदलाव देखे जा रहे हैं। यानि, बरसात देश में औसत ही हो रही है लेकिन बरसात के दिन कम हो गए हैं और इस कम दिनों में ही अत्यधिक बारिश दर्ज की जा रही है। इससे सूखा के दिनों की संख्या साल में बढ़ गई है। जाहिर है कि फसलों के लिए यह घातक स्थिति है।

मोटे अनाजों में इसका असर किस तरह देखा जा सकता है?
मोटे अनाजों पर इसका सीधा असर नहीं देखने में आया है। मोटे अनाजों की जो खेती खत्म हुई है वह बाजारोन्मुख न होने और लोगों की भोजन प्रवृत्ति चावल और गेहूं आधारित होने से बदली है। वैसे मौसम में बदलाव का असर से भी इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस दिशा में अभी तक ठीक से अनुसंधान नहीं हुए हैं।

देश में एक जैसी स्थिति है या अलग-अलग?
जहां तक देश के स्तर पर देखा जाए तो बरसात औसत से ही हो रही है। लेकिन क्षेत्रवार में काफी अंतर आया है। छत्तीसगढ़, पूर्वी मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना में वर्षा कम होने का ट्रेंड है तो राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी घाट में बढ़ रही है। लेकिन इसे एक साल के आधार पर नहीं देखना चाहिए। यह दीर्घकालिक प्रवृत्ति है।

आपने बिहार, झारखंड का नाम लिया। यहां और किस तरह के प्रभाव हैं?
बिहार में इधर के वर्षों में बाढ़ और सूखा एक ही साल में देखने को मिला है। इसका मुख्य कारण यही है कि कुछ बरसाती दिनों में ही पूरी बारिश हो जा रही है। इससे बाढ़ आती है और बाकी दिनों में बारिश न होने से सूखा होता है।

इस इलाके के किसानों के लिए आपके क्या सुझाव हैं?
मेरा कहना है कि बिहार, झारखंड जैसे उन इलाकों में, जहां वर्षा में कमी देखी जा रही है, किसानों को ऐसी फसलों पर जोर देना चाहिए जो कम पानी में हो। मोटे अनाज को वैज्ञानिक स्तर पर भी उन्नत करना चाहिए और लोगों को भी अपने फुड हैबिट में इसे लाना चाहिए। बाजार में इसकी मांग को बढ़ाने के उपाय किए जाएं तो समस्या से बहुत हद तक निपटा जा सकता है। कर्नाटक में लोगों का फुड हैबिट बदल रहा है। रागी, कोदो जैसे मोटे अनाज की पैदावार और उसे खाने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

धान, दलहन, तिलहन पर ही असर देखा जा रहा है या अन्य फसलों पर भी?
असर तो सभी फसलों पर हो रहा है। लेकिन जितना तापमान बदला है या वर्षा की प्रवृत्ति बदली है, उसका ज्यादा असर फिलहाल नहीं दिखाई देता। जो थोड़ा-बहुत असर है, उसे जल प्रबंधन और अन्य तकनीकों की मदद से नाकाम करने की कोशिश हो रही है। लेकिन लंबे समय में जब बदलाव अधिक होगा तो तकनीक नाकाम हो जाएंगे।

लंबे समय में किस तरह के बदलाव की आशंका है और क्या असर हो सकता है?
ऐसा अनुमान है कि अगर वर्तमान स्तर पर कार्बन उत्सर्जन होता रहा तो 2030 तक तापमान में 1.5 डिग्री तक बढ़ोतरी होगी। इस कारण अनाज के उत्पादन में 4 से 6 फीसदी तक गिरावट आएगी। अगले 70-75 साल में तापमान के 4 डिग्री तक बढ़ने का अनुमान है। यह स्थिति भयावह होेगी। इससे निपटना मुश्किल हो जाएगा।

मौसम में आ रहे बदलाव से निपटने के लिए वैज्ञानिक स्तर पर क्या प्रयास हो रहे हैं?
इस पर अनुसंधान चल रहा है। कोशिश हो रही है कि अगले 20-25 साल में ऐसी तकनीक विकसित हो जो फसलों को 4 डिग्री तक तापमान वृद्धि को सहने लायक बना दे। या फसलों की ऐसी अनुकूल नस्ल ही तैयार हो जाए।

इस संकट से फिलहाल कैसे दूर रहा जा सकता है?
इसके लिए लोगों को जल प्रबंधन सीखना होगा। कम पानी में कैसे अधिक से अधिक सिंचाई हो, या फिर फसलों को लगाने के समय पर ध्यान देने की जरूरत है। फसलों को उचित समय पर लगाने से भी तापमान का असर कम होता है। वैसे बिहार में जहां धान की खेती काफी होती है, वहां के किसानों के लिए मेरा सुझाव है कि वे धान का बिचड़ा बरसात आने से पहले ही लगा लें। बरसात के समय रोपनी कर दें तो आगे धान में अधिक सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ेगी। अभी बिहार में देखा जा रहा है कि बरसात आने पर लोग बिचड़ा लगाते हैं। इससे रोपनी में देरी होती है। इसका असर रबी फसलों पर पड़ रहा है और अधिक पानी की जरूरत हो रही है। इसके साथ ही सामूहिक नर्सरी को प्रचलित करना चाहिए। यानि एक किसान के खेत में कई लोग मिलकर बिचड़ा लगा दें और रोपनी बरसात होने पर करें तो काफी फायदे का सौदा रहेगा।

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