Baitarani river
Baitarani river

केंदूझार जिले में उद्योगों द्वारा जलदोहन

Published on

बैतरणी में बेइमानी

1.16 क्यूमेक पानी की अनुमति तो सिर्फ तीन इकाइयों को दी गई है। भूषण स्टील, आर्सेलर मित्तल, स्ट्राइल, उत्तम गैलवा समेत कई जलशोषक लौह इकाइयों का यहां आना अभी बाकी है। अकेले केंदूझार में ही प्रतिवर्ष 30 मिलियन टन स्टील का उत्पादन प्रस्तावित है। उनमें कितना पानी खपेगा? वाष्पन के कारण कितना जल क्षय हो जायेगा?... अभी इसका आकलन बाकी है। दूसरी ओर देखें तो किसान अपनी ढाई लाख एकड़ कृषि भूमि को सिंचित करने के लिए प्रस्तावित सिंचाई परियोजनओं की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

दिसंबर, .2011 का दूसरा पखवाड़ा लोकपाल के अलावा जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा राजनैतिक कवायद करता बीता, वह था -खेती। मंदी की मार ने एक बार फिर भारत सरकार को खेती में जरूरी सुधार की याद दिलाई। औद्योगिक विकास दर लुढ़क जाये, तो कृषि उसे संभाले -यह नारा हालिया बातचीत में उभरता दिखाई दिया। प्रश्न यह है कि जब कृषि बचाने व बढ़ाने की बात व्यवहार में है ही नहीं, तो कृषि बढ़े कैसे? भारत में किसान के स्थान पर उद्योग और व्यापार नीतियों को कृषि का भाग्य विधाता बना दिया गया है। उनसे बचे, तब तो कृषि उबरे। यदि लोगों की जरूरत के पानी, नदी और खेती पर हमला होता है तो एक दिन वे लोग ही उद्योग पर ताला लगा देते हैं। फ्रांस, इंग्लैंड समेत कई देशों की क्रांतियां इस बात की प्रमाण हैं। इस सामाजिक पहलू को नजरअंदाज करने से भी हमारी सरकारें गुरेज नहीं कर रही। उद्योगों के लिए वे खेती, पानी, मिट्टी व जैवविविधिता चक्र की दृष्टि से आवश्यक जीव व वनस्पतियों को ही मार रही है। उद्योगों की आवश्यकता पूर्ति के लिए वे मनुष्य व प्राकृतिक संतुलन की आवश्यकताओं मे से कटौती का दुस्साहस कर रही है। हालांकि वे इससे उद्योगों का भी भला नहीं कर रही। यह सिर्फ कुछ उद्योगपतियों के तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी विनाश का खेल है। दरअसल अब हमारी सरकारें अक्सर भूलने लगी हैं कि उद्योग मनुष्यों की आवश्यकता पूर्ति के लिए है, न कि मनुष्य उद्योगों की आवश्यकतापूर्ति के लिए बना है।

इसी अन्यायपूर्ण रवैये का शिकार उड़ीसा की एक नदी है- बैतरणी और जिला- केंदूझार

उल्लेखनीय है कि बैतरणी उड़ीसा की अनन्य आस्था वाली पौराणिक देवधारा है। बैतरणी का प्रवाह उड़ीसा के केंदूझार, मयूरभंज, जयपोर और भद्रक जिले से बहती हुई धाम्र बंदरगाह पर समुद्र से मिल जाता है। गिरती नौ धाराओं के रूप में गोंसिका की पहाड़ियों से होता बैतरणी का उद्गम सचमुच मोहित करने वाला है। इन नौ धाराओं को नौ बाहुनी बैतरणी के नाम से जाना जाता है। इनसे से मुख्य धारा की ख्याति गुप्त गंगा के नाम से है। कई किमी. तक लुप्त हो जाने के कारण ही इसका नाम गुप्त गंगा पड़ा। यह धारा गोनसिका तीर्थ के पास पुनः दिखाई देती है। बसुदेबपुर तक करीब सौ किमी. के पहाड़ी ढलाव से उत्तरावर्ती होकर उतरने के बाद बैतरणी मैदानी इलाके में प्रवेश करती है। यूं बैतरणी के प्रति समूचे उड़ीसा की गहरी आस्था व जुड़ाव है। इसीलिए इसे ’पुन्यतोया बैतरणी’ कहते हैं। केंदूझार के लिए तो यह बेहद आवश्यक धारा है। केंदूझार जिले के 83 फीसदी यानी 6824 वर्ग किमी भूभाग की स्थानीय आदिवासी आबादी की आजीविका व पारिस्थितिकी का मूलाधार बैतरणी नदी ही है। किंतु आज यह मूलाधार ही शोषण की चपेट में है।

यह सभी जानते हैं कि आदिवासी आजीविका का आधार फैक्ट्रियां नहीं, बल्कि नदी का पानी, जंगल की लकड़ी-औषधि-जीव तथा अन्य वनोत्पाद होते हैं। केंदूझार में बड़े पैमाने पर खनन तथा फैक्ट्रियों के हुए आगमन ने सघन जंगलों की समृद्धि तो पहले ही कम कर दी है। अब जलाभाव के कारण केंदूझार जिले की काफी भूमि भी असिंचित श्रेणी में शामिल हो गई है। बात कीजिए तो पता लग जायेगा कि केंदूझार के आदिवासी जीवन में पानी की कमी किस कदर बदहाली ला रही है। विकास के योजनाकार स्थानीय खनन व फैक्ट्रियों के जरिए इन्हें रोजगार देने का दावाकर अपनी पीठ थपाथपा रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि इन हालातों ने अपनी मर्जी के राजा रहे आदिवासियों को खेतों के मालिक से खनन का मजदूर बना दिया है। मजदूरी इनकी मजबूरी बन गई है। क्योंकि नदी किनारे रहकर भी इनके खेत प्यासे हैं। गहरी खदानों ने वर्षा जल संचयन के प्रयासों को बेनतीजा कर दिया हैं। सिंचाई टिके तो टिके कैसे? खदानों में खुलने वाले प्रवाह कुएं, तालाब, नदी सभी को सुखा रहे हैं।

विरोधाभास यह है कि सरकार पानी की इस कमी तो जानती तो हैं, लेकिन मानती नहीं। यदि सरकार मानती होती, तो बेलगाम जलनिकासी करने वाले लौह अयस्क आधारित खनन और उद्योगों को इजाजत कदापि न देती। आज यहां उद्योगों के पास जलनिकासी के लिए उड़ीसा सरकार के भिन्न विभागों/एजेंसियों की लिखित अनुमति है। जलनिकासी की अनुमति में आपत्ति न होने के कारण भारत सरकार से पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र भी इन्हें हासिल है। उपलब्ध जल के वास्तविक आंकड़ों का अवलोकन करें तो यह अनुमति व अनापत्ति पूरी तरह अन्यायपूर्ण है। बतौर नमूना केंदूझारगढ. में 55 हजार की आबादी को प्रतिदिन न्यूनतम 7.3 मिलियन लीटर पानी की जरूरत होती है। जनस्वास्थ्य विभाग उसे बमुश्किल प्रतिदिन पांच मिलियन लीटर पानी की ही जलापूर्ति करता है। जबकि यहां एक स्लरी इंडस्ट्री को प्रतिदिन 28.8 मिलियन लीटर जलनिकासी की अनुमति दी गई है। स्लरी यानी लौह अयस्क घोल से संबद्ध उद्योग। मौजूदा समय में यहां तीन स्लरी इंडस्ट्रीज को प्रतिदिन यानी 1.16 क्यूमेक पानी पानी निकालने की अनुमति दी जा चुकी है, जबकि कनुपर बांध से निकलने वाली एकमात्र नहर में छोड़े जाने के लिए न्यूनतम उपलब्ध पानी की मात्रा 0.6 क्यूमेक होती है। क्यूमेक यानी क्युबिक मीटर प्रति सेकेंड।

बैतरणी नदी भी अब फैक्ट्रियों की वजह से गंदी

औद्योगीकरण में विलम्ब होगा। इस एक वाक्य की आड़ में राज्य प्रदूषण निंयत्रण बोर्ड ने जनसुनवाइयों के दौरान जानबूझकर ऐसे तथ्यों की अनदेखी की। पानी के इस अन्यायपूर्ण वितरण के मसले पर जब विरोध सड़कों पर उतरता दिखाई दिया, तो गत वर्ष इन्हीं महीनों में उड़ीसा सरकार की सहायता के नाम पर पानी लूट रहे उद्योगों की हितपूर्ति के लिए तकनीकी सहायक के रूप में एशिया विकास बैंक सामने आ गया है। एक रिपोर्ट पेशकर एशिया विकास बैंक के नुमाइंदो ने नागरिक समाज तथा लाभान्वितों की राय लेने का नाटक रचा। इस रिपोर्ट में पेश एकीकृत जलसंसाधन प्रबंधन रोडमैप पूरी तरह किसान के विरोध और निजीकरण तथा पानी के व्यावसायीकरण के पक्ष में था। आखिर पानी को कच्चा माल मानते हुए लागत खर्च में शामिल करने के प्रस्ताव किसे रास आता? उड़ीसा वाटर फोरम द्वारा आयोजित रायशुमारी बैठक में इस रिपोर्ट को पटल पर रखते ही विरोध ने खतरनाक मोड़ ले लिया। जनविरोध और बढ़ा तो उद्योगों पर ताले लगने से इंकार नहीं किया जा सकता। यह अच्छा न होगा।

ऐसा नहीं है कि समाधान नहीं है। समाधान है किंतु लालच पर लगाम लगाये बगैर वह संभव नहीं। समुचित तकनीक से वाष्पन को न्यूनतम किया जा सकता है। परियोजना प्रस्ताव बनाते वक्त बड़े पैमाने पर जलसंचयन इकाइयों के निर्माण तथा संचालन को भी आवश्यक रूप से शामिल किया जाना चाहिए। सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि उन्हे पूरी समझदारी व संकल्प के साथ जमीन पर भी अंजाम दिया जाना चाहिए। स्थानीय जैव विविधता का सम्मान करते हुए वनीकरण का व्यापक स्तर पर काम हो। इससे बढ़ने वाला भूजल स्तर, रुकने वाला कटाव तथा मिट्टी में रुकने वाली नमी मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन बना सकेंगे। उद्योग और खेती जिंदा रह सकेंगे। वह भी साथ-साथ। साथ ही साथ भारत की अर्थव्यवस्था व प्रकृति भी। विश्व बैंक को रास नहीं आयेगा, तो भी।

India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org