किसका हो जल-जंगल-जमीन पर पहला हक

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आदिवासी हो या आम किसान, जीविका के लिए जल, जंगल और जमीन पर ही निर्भर रहा है लेकिन आजादी के छ दशक बीत जाने के बाद उसे अपना हक पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। सदियों से नदी के किनारे और जंगल में बसे लोगों का इन संसाधनों पर नैसर्गिक अधिकार रहा है लेकिन नव-उदारवादी व्यवस्था की आड़ में सरकार अक्सर इन्हें इनके अधिकार से वंचित करती रही है। विकास के नाम पर इन्हें शहरों की झुग्गियों में धकेलने की कोशिश क्या दुष्परिणाम दिखा सकती है, बता रहे हैं प्रख्यात गाधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता पी.वी. राजगोपाल।

देश में जल-जंगल-जमीन को लेकर झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडीशा में सबसे खराब हालात देखने को मिलते हैं। इन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जब रेल और सड़क का जाल बिछ रहा था, तब आदिवासियों ने अपने हक के लिए संघर्ष करने के बजाय ऊंचे पहाड़ों-जंगलों की ओर चले जाने में अपनी भलाई समझी लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि जिन स्थानों में वह शरण ले रहे हैं, आगे चलकर उन्हें वहां से भी बांध बनाने, नेशनल पार्क या फिर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के नाम पर हटने के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। आजादी के समय किसी ने महात्मा गांधी से पूछा कि आप किस प्रकार के भारत का निर्माण करना चाहते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि हमारा देश स्वावलंबी, स्वाश्रयी गांवों का एक फेडरेशन होगा लेकिन दुर्भाग्य से आज गांवों में गांधी के सपनों का भारत कहीं नजर नहीं आता है।

गांव और ग्रामीण दोनों की हालत बदतर नजर आती है। सत्ता के केंद्र अब बड़े-बड़े शहर हो गए हैं। भौगोलीकरण के चलते उन सभी के लिए खिड़की दरवाजे खोल दिए गए हैं जो अमेरिका में बैठे-बैठे बैंक के जरिए भारत में जमीन खरीदना चाहते हैं।

ऐसे में आम आदमी के लिए अपने हकों को हासिल करने के लिए संघर्ष का दायरा काफी बड़ा हो गया है। ब्राजील, कोलंबिया, अमेरिका और यूरोप आदि में देखें तो पाएंगे कि यह भौगोलिक बिमारी है, जिसमें हर कोई जल, जंगल, जमीन को जितना लूट सकता है, लूटने की कोशिश में लगा हुआ है।

भावी पीढ़ी के लिए नदी-नाला, पर्वत-पर्यावरण आदि को लेकर कोई चिंतन नहीं करना चाहता है। दुखद रूप से इसी भौगोलिक संदर्भ में भारत भी फंसा हुआ है। लोग मानने लगे हैं कि पूंजीवाद ही एक मात्र व्यवस्था है और बाजारवाद ही एकमात्र वाद है।

एक समय हम देश का नेतृत्व राधाकृष्ण जैसे दार्शनिक लोगों को दिया करते थे लेकिन आज चुन-चुन कर अर्थशास्त्री को आगे लाया जा रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे इसके अलावा देश-दुनिया में कोई मुद्दा बचा ही नहीं है।

देश में सिर्फ अर्थशास्त्री और एमबीए ही होने चाहिए। ये दो चीजें जिन्हें आती हैं, वही नेता हो सकता है। पिछली सरकार में यदि देखें तो मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे अर्थशास्त्री के हाथ में सत्ता सौंप दी गई थी।

बीते बीस सालों में जल, जंगल और जमीन का जमकर दोहन हुआ है। चूंकि वर्तमान सरकार विकास के मुद्दे पर ही चुनकर आई है, इसलिए पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी के मुकाबले वह चार कदम आगे ही चलकर दिखाएगी।

मौजूदा सरकार भी गांवों को बर्बाद करते हुए जल-जंगल और जमीन को पांच सितारा संस्कृति के लिए इस्तेमाल करती है और दिल्ली जैसे शहर बनाने पर जोर देती है, जहां पर पैदल चलने वालों और साइकिल से चलने वालों की कोई अहमियत नहीं होती, विकलांगों की कोई पूछ नहीं होती है।विकास के नाम पर नदी-नालों, पहाड़-पर्यावरण को बर्बाद करेगी। किसान के हाथों से जबरदस्ती जमीन छीनेगी और निवेश करने वाले हर व्यक्ति के लिए रेड कार्पेट बिछाएगी।

देश में जल-जंगल-जमीन को लेकर झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडीशा में सबसे खराब हालात देखने को मिलते हैं। इन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जब रेल और सड़क का जाल बिछ रहा था, तब आदिवासियों ने अपने हक के लिए संघर्ष करने के बजाय ऊंचे पहाड़ों-जंगलों की ओर चले जाने में अपनी भलाई समझी लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि जिन स्थानों में वह शरण ले रहे हैं, आगे चलकर उन्हें वहां से भी बांध बनाने, नेशनल पार्क या फिर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के नाम पर हटने के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। उन्हें यह भी नहीं पता था कि जिस भूमि पर वह रह रहे हैं, वह लोहा, तांबा और कोयला आदि खनिज संपदा से भरी हुई है।

गौरतलब है कि मौजूदा समय में सबसे ज्यादा उत्खनन कंपनियां इन्हीं राज्यों में सक्रिय हैं। नक्सल को लेकर सबसे ज्यादा हौवा भी इन्हीं क्षेत्रों में खड़ा किया गया है। नतीजतन इन क्षेत्रों में सामाजिक संगठनों का काम करना भी कठिन होता जा रहा है।

जल-जंगल-जमीन को लेकर आवाज उठाने वालों को नक्सलियों का समर्थक करार दिया जा रहा है, इसलिए वे भी अपनी जान बचाने के लिए वहां से वापस जा रहे हैं। इन क्षेत्रों के आदिवासियों का कहना है कि वह हिंसा के त्रिकोण में फंसकर रह गए हैं।

एक तरफ नक्सल तो दूसरी तरफ खनन कंपनियों का तो तीसरी तरफ पुलिस और पैरामिलिट्री फोर्सेस की हिंसा है, ऐसे में जल-जंगल-जमीन के जरिए जीवन जीने वाले लोग किधर जाएं।

प्रकृति को अपना मानकर बगैर किसी लालच के जीवन जीने वाले इस आदिवासी समाज को बीते बीस सालों में एकदम से नंगा कर उत्खनन और वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन के नाम पर असहाय बना दिया है।

किसानों की जमीन को शहर और सड़क बनाने के नाम पर छीन लिया जा रहा है। सरकार भले ही इसके बदले उन किसानों को मुआवजा दे दे लेकिन उस जमीन से जुड़े हुए तमाम लोगों को रोजगार नहीं दे पाई है। नतीजतन उनके शहर की ओर पलायन से झुग्गी-झोपड़ी की संख्या बढ़ती ही जा रही है।

विकास के नाम पर आज एक ऐसे मॉडल को प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें गरीबों के लिए, मछुआरों के लिए कोई गुंजाइश नजर नहीं आती है। सार्वजनिक जीवन जीने वाले घुमंतू समाज के लोग जिस भूमि पर जानवर चराया करते थे, उसे भी बड़ी कंपनियों के हवाले कर दिया गया है।

गुजरात के अबारी लोगों के पास बहुत संख्या में जानवर हुआ करते थे। वे लोग गुजरात से निकलकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ होते हुए साल भर में वापस अपने राज्य में लौटते हैं लेकिन फॉरेस्ट एक्ट आने के बाद उन्हें जंगल में जानवरों को चराने के लिए मना कर दिया गया।

इसके बाद वह सार्वजनिक जमीनों पर अपने जानवरों को चराने के लिए जाने लगे लेकिन उस जमीन को भी एसईजेड के नाम पर तमाम कंपनियों को सौंप दिया गया। हालात यह हो गए हैं कि तमाम क्षेत्रों में लोग अब यह कहने लगे हैं कि आप हमसे वृद्धा पेंशन कार्ड, राशन कार्ड आदि ले लिजिए लेकिन मल-मूत्र त्यागने के लिए तो जमीन दे दीजिए।

एक समय गांवों में 80 प्रतिशत लोगों के होने की बात कही जाती थी। फिर यह आंकड़ा 75 प्रतिशत हुआ और अब हम कहने लगे हैं कि सिर्फ 65 प्रतिशत लोग गांव में रहते हैं। पिछली यूपीए सरकार ने घोषणा की थी कि हम 2020 तक गांव के 50 प्रतिशत लोगों को शहर में भेजना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि गांवों को खाली कराना चाहते हैं।

ऐसें में इस गांव विरोधी अभियान का अंतिम परिणाम वही होगा, जो ब्राजील में देखने को मिला। मौजूदा समय ब्राजील में 80 प्रतिशत लोग शहर में और 20 प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं। इन 20 प्रतिशत ग्रामीणों में भी अधिकांश धनी और ताकतवर लोग हैं, जबकि गरीब तबके के लोग गंदी बस्तियों में रहने के लिए बाध्य हो गया है।

इस तरह देखा जाए तो बीते बीस साल में भारत को ब्राजील बनाने की कोशिश की गई है। यदि इस प्रयास पर अंकुश नहीं लगाया गया तो भले ही हम हर साल 15 अगस्त मनाएंगे लेकिन उसमें इन गरीब वर्ग की कोई भागीदारी नहीं रहेगी।

पिछली यूपीए सरकार के सामने यह सवाल उठाया गया था कि जब भारत में इंडस्ट्री के लिए पॉलिसी है, न्यूक्लियर के लिए पॉलिसी है तो आखिर जहां 85 प्रतिशत लोग रह रहे हैं, उस भूमि के लिए पॉलिसी क्यों नहीं है? इसके बाद सरकार ने नेशनल लैंड पॉलिसी लाने की बात की ताकि यह पता लगाया जा सके कि आखिर भारत में कितनी जमीन है? कितनी वन विभाग के पास है या फिर कितनी किसान के पास है और बाकी जो जमीन है आखिर उसका वितरण कैसे हो सकता है?

सरकार द्वारा जब यह भी संभव न हो सका तो हमने उसके सामने 10 डेसिमल आवासीय जमीन देने की मांग रखी। सरकार ने इस मांग को स्वीकार किया और इसके लिए कानून बनाया जाना था लेकिन वह सिर्फ उसका ड्राफ्ट ही तैयार कर पाई। इस तरह सरकार और जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष कर रहे आंदोलनकारियों के साथ जो समझौता आगरा में हुआ था, उसे सरकार गिरने तक अंजाम नहीं दिया जा सका।

जल-जंगल-जमीन को लेकर की गई यात्रा में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के नेता नरेंद्र तोमर भी शामिल हुए। राष्ट्रवादी विचारधारा के लिए पहचाने जाने वाले ये लोग आज सत्ता में हैं। इन्हें इस बात को समझना होगा कि आम लोगों के हाथ से जल-जंगल-जमीन छीन कर, उनकी आवश्यकताओं को दरकिनार कर भारत को महान देश नहीं बनाया जा सकता है।

यदि इन बातों को दरकिनार कर मौजूदा सरकार भी गांवों को बर्बाद करते हुए जल-जंगल और जमीन को पांच सितारा संस्कृति के लिए इस्तेमाल करती है और दिल्ली जैसे शहर बनाने पर जोर देती है, जहां पर पैदल चलने वालों और साइकिल से चलने वालों की कोई अहमियत नहीं होती, विकलांगों की कोई पूछ नहीं होती है तो हम यही मानेंगे कि नई सरकार भी उसी रास्ते पर चल रही है, जिस पर पिछली सरकार चल रही थी और इनका राष्ट्रवाद खोखला है, जिसमें आम आदमी के लिए कोई जगह नहीं है।

प्रस्तुति : मधुकर मिश्र

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