कुम्भ पर्व : एक अनूठी भारतीय परम्परा

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हमारा देश विविध संस्कृतियों का संगम स्थल है। यहाँ यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि संस्कृतियों के पनपने में मेलों और विभिन्न पर्वों का विशेष योगदान है। यदि हम यह कहें कि तीज-त्यौहारों और मेलों आदि ने ही सच्चे अर्थों में हमारे सांस्कृतिक विकास में मदद दी है और उसे हर पल जीवंत बनाये रखा है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक ऐसा ही पर्व-कुम्भ मेला पुनः हमारे सामने है जो सिर्फ हिन्दु संस्कृति का ही नहीं वरन पूरे भारतवर्ष की समस्त संस्कृतियों के उनयन का प्रबल प्रतीक है। इस बार जन-जन का यह पर्व कुछ विशिष्टता लिये हुये है। यह इस शताब्दी का अन्तिम कुम्भ पर्व भी है। इस कारण इसे देखने-परखने और अगली सदी के कुम्भ पर्वों की तैयारियों के लिये पर्व का आकलन करने के उद्देश्य से भी यह कुम्भ मेला महत्त्वपूर्ण है।

पौराणिक महत्व

पूर्ण कुम्भोऽधि कालं आहितस्तं, वै पश्यामो बहुधानु संतः।
स इमा विश्वास भुवनानि प्रत्यंड, कालं तमाहुः परमे व्योमन्।।

खगोलशास्त्रीय मान्यताएँ

पद्मिनी नायके मेषे कुम्भ राशि गते गुरो।
गंगा द्वारे भवेद्योग कुम्भनान्मातदोत्तमः।।

ऐतिहासिक पहलू

भारत के सांस्कृतिक तथा सामाजिक जीवन में कुम्भ मेले का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हर 12 साल में आयोजित होने वाले कुम्भ पर्व से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलता है और इसमें भारतीय जीवन की विविधता की सुन्दर झाँकी पेश होती है। इन दिनों हरिद्वार में इस शताब्दी का अन्तिम कुम्भ चल रहा है। लेखक ने इस अनूठे आयोजन के धार्मिक, खगोलशास्त्रीय और ऐतिहासिक पहलुओं का परिचय देते हुये वर्तमान कुम्भ को सफल बनाने के व्यापक प्रबन्धों पर प्रकाश डाला है।

व्यवस्थाएँ और प्रबंध

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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